ईश्वरीय संकल्प
जब राजा दशरथ को ज्ञात हुआ कि प्रमादवश कितना बड़ा अनर्थ और अनिष्ट उनके हाथों से हुआ है तो राजा दशरथ बहुत ही व्यथित और अत्यन्त व्याकुल हो उठे। लौटकर वे वन में स्थित उस स्थान पर पहुँचे जहाँ उनके साथ आए सैनिक उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। दो सैनिकों को उन्होंने तुरंत ही द्रुत गति से अयोध्या जाकर अपने कुलगुरु वसिष्ठ से इस वृत्तान्त का विवरण देने के लिए कहा। काँवडधारी श्रवण कुमार और उसके वृद्ध माता-पिता के शवों को सम्मान के साथ सुरक्षित रखने की व्यवस्था करने के बाद वे कुछ समय तक उद्वेलित मन से श्रीहरि से उनकी सद्गति और अपने अपराध के लिए क्षमा की प्रार्थना बारम्बार प्रार्थना करते रहे।
सुबह होते होते उनके कुलगुरु और कुलपुरोहित वसिष्ठ राज्य के दूसरे पुरोहितों के साथ आ पहुँचे जहाँ सरोवर के उस तट पर तीनों शवों का विधिपूर्वक दाह संस्कार कर दिया गया। फिर वे सभी अयोध्या लौट आए।
शीघ्र ही यह वार्ता संपूर्ण अयोध्या में जंगल की आग की भाँति फैल गई। प्रजा दुःखी तो थी, किन्तु हर किसी ने यही सोचा कि राजा के हाथों हुआ यह अपराध अनजाने में ही हुआ था, जिसमें वे नियति के क्रूर हाथों के एक यंत्र भर थे। इसके बाद उनके कुलगुरु के द्वारा पुनः पुनः दी गई सान्त्वना से भी उनके हृदय का क्षोभ तनिक भी कम न हो सका। ऐसे ही अनेक वर्ष बीत गए। राजा की तीनों रानियाँ भी राजा के दुःख से दुःखी रहती थी। बहुत वर्षों तक निःसंतान रहने के बाद एक दिन उनके कुलगुरु और राजपुरोहित ऋषि वसिष्ठ ने उनसे कहा :
महाराज! आपका तप पूर्ण हुआ। अब तक आपकी तीनों रानियों ने भी आपके दुःख को कम करने के लिए यथेष्ट प्रयत्न किया और यद्यपि निःसंतान होने का अभिशाप और उसकी पीड़ा आपके साथ उन्होंने भी झेली, किन्तु यह तो विधि का विधान था जिसे बदल पाना मनुष्य के वश की बात नहीं है। आप भी वेदों के तात्पर्य को जानते ही हैं। अब आप संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान कीजिए ताकि साक्षात् भगवान् नारायण श्रीहरि आपको पुत्र की तरह संतान के रूप में प्राप्त हों।
तब से राजा दशरथ निरन्तर भगवान् नारायण श्रीहरि का मन ही मन स्मरण करने लगे।
इससे पहले भी अपनी तीनों रानियों से उनका अत्यधिक प्रेम था, किन्तु अब तक उस प्रेम में राग की ही अधिकता थी। अब कुलगुरु के वचनों को सुनते ही रानियों के प्रति उनके प्रेम से राग की अत्यन्त निवृत्ति हो गई और उसका स्थान भगवान् नारायण श्रीहरि के स्मरण ने ले लिया।
कुलगुरु का निर्देश प्राप्त होने पर नियत समय पर अपनी तीनों रानियों के साथ उन्होंने संकल्प-पूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञ के अनुष्ठान की दीक्षा ली और फिर चैत्रमास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन भगवान् नारायण श्रीहरि ने उनकी तीनों रानियों से उनकी चार संतानों :
श्रीराम लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूप में जन्म लेकर उनके शोक का निवारण कर दिया, उन्हें हर्षविभोर और पुलकित कर दिया।
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