Tuesday, 12 August 2025

The Mother of All!

MAYA/  माया

आवश्यकता आविष्कार की, और इसी प्रकार से कामना आवश्यकता की जननी होती है, अपूर्णता की भावना  कामना और अस्मिता ही अपूर्णता की। अविद्या अस्मिता की जननी होती है।

और यह अविद्या प्रमाद (In-attention) का ही दूसरा नाम है।

अविद्या अस्मिता राग-द्वेष तथा अभिनिवेश यही पाँचों क्लेश हैं जिनकी जननी है - माया और जिन्हें अज्ञान भी कहा जाता है।

समस्त प्रतीतियाँ बुद्धि में उत्पन्न होनेवाले आभास होते हैं और बुद्धि के सक्रिय होने के साथ ही मायारूपी प्रपञ्च प्रारम्भ होता है और बुद्धि का लय होते ही यह प्रपञ्च भी विलीन हुआ जान पड़ता है। बुद्धि का लय भी पुनः सुषुप्ति, मूर्च्छा, स्वप्न या समाधि (संप्रज्ञात या संप्रज्ञात, सविकल्प या निर्विकल्प, सविचारा या निर्विचारा) आदि स्थितियों  में से किसी भी स्थिति में हो जाया करता है। राग से आसक्ति और द्वेष से विरक्ति उत्पन्न होते हैं। राग तृष्णा को और विराग विरक्ति को जन्म देता है। राग-द्वेष की निवृत्ति होने का अर्थ है वैराग्य जागृत होना। जब यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त दुःख और सुख दोनों ही एक दूसरे के ही भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले प्रकार मात्र होते हैं और मूलतः क्लेश ही हैं, तभी वैराग्य का आविर्भाव होता है। किन्तु वैराग्य जागृत हो जाने मात्र से ही सारे क्लेशों का निवारण नहीं हो पाता है।

क्योंकि वैराग्य के जागृत हो जाने के बाद भी तितिक्षा रूपी तप करना होता है, क्योंकि -

मात्रा स्पर्शा तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्या ताँस्तिक्षस्व भारत।।१४।।

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ। 

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।१५।।

(गीता अध्याय २)

और, 

ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते।

आद्यन्तवतः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।२२।।

( गीता अध्याय ५)

तो, क्या किसी कर्म से कर्म की निवृत्ति हो सकती है?

ईश्वराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्। 

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतं। 

चित्त-शोधकं मुक्तिसाधकम्।।

(उपदेश-सारः)

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।४९।।

(गीता अध्याय २)

कुरुते गंगासागर गमनम् 

व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीनं सर्वमनेन

मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।

(शंकराचार्य)

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