अष्टावक्र गीता
अध्याय १
श्लोक ५
धर्माधर्मौ सुखंदुःखं मानसानि न ते विभो।।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा।।५।।
अर्थ :
धर्म और अधर्म, सुख और दुःख आदि तुम्हारी नहीं, मन अर्थात् चित्त की ही भिन्न भिन्न वृत्तियाँ हैं। तुम न तो कर्ता हो, न भोक्ता हो, तुम तो सब प्रकार से सर्वत्र ही व्याप्त, विद्यमान और सदा ही, मुक्त ही हो।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧
ಶ್ಲೋಕ ೫
ಧರ್ಮಾಧರ್ಮೌ ಸುಖಂದುಃಖಂ ಮಾನಸಾನಿ ನ ತೇ ವಿಭೇ|
ನ ಕರ್ತಾಸಿ ನ ಭೋಕ್ತಾಸಿ ಮುಕ್ತ ಏವಾಸಿ ಸರ್ವದಾ||೫||
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Ashtavakra Gita
Chapter 1
Stanza 5.
Virtue and vice, pleasure and pain, are of the mind, not you, O All-pervading One! You are neither doer nor enjoyer (the one who could experience pleasure or pain), Verily, You are ever-free!
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