Wednesday, 26 October 2022

धर्माधर्मौ सुखं दुःखं

अष्टावक्र गीता 

अध्याय १

श्लोक ५

धर्माधर्मौ सुखंदुःखं मानसानि न ते विभो।।

न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा।।५।।

अर्थ :

धर्म और अधर्म, सुख और दुःख आदि तुम्हारी नहीं, मन अर्थात् चित्त की ही भिन्न भिन्न वृत्तियाँ हैं। तुम न तो कर्ता हो, न भोक्ता हो, तुम तो सब प्रकार से सर्वत्र ही व्याप्त, विद्यमान और सदा ही, मुक्त ही हो।

--

ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ

ಅಧ್ಯಾಯ ೧

ಶ್ಲೋಕ ೫

ಧರ್ಮಾಧರ್ಮೌ ಸುಖಂದುಃಖಂ ಮಾನಸಾನಿ ನ ತೇ ವಿಭೇ|

ನ ಕರ್ತಾಸಿ ನ ಭೋಕ್ತಾಸಿ ಮುಕ್ತ ಏವಾಸಿ ಸರ್ವದಾ||೫||

--

Ashtavakra Gita

Chapter 1

Stanza 5.

Virtue and vice, pleasure and pain, are of the mind, not you, O All-pervading One! You are neither doer nor enjoyer (the one who could experience pleasure or pain), Verily, You are ever-free!

***




No comments:

Post a Comment