Thursday, 12 November 2015

’घर’ / Story-14 / कथा -14,

’घर’/ Story-14 / कथा -14, 
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बहुत दिनों पहले ’घर’ छोड़ दिया था,
तब ये पंक्तियाँ लिखीं थीं :
जिनका कहीं कोई ’घर’ नहीं होता,
उन्हें किसी भी तरह का डर नहीं होता ।
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मेरी मुँहबोली बिटिया परसों उसके पापा के साथ मुझसे दिवाली मिलने आई । 
उसने दोनों हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ पहन रखीं थीं ।
"दोनों हाथों में ढेर सारी चूड़ियाँ!"
वह दोनों हाथ उठाकर मुझे दिखा रही थी ।
"हाथों में चूड़ियाँ, या चूड़ियों में हाथ?"
उसने उत्तर नहीं दिया।
"पैरों में चप्पल या चप्पलों में पैर?
उससे तो बस इतना पूछा लेकिन बाद में सोचने लगा :
मन शरीर में होता है, या शरीर मन में?
मन संसार में होता है, या संसार मन में?
अगर संसार मन में होता हो, और मन शरीर में, तो संसार शरीर में होता होगा ।
लेकिन लगता यह है कि शरीर संसार में होता है ।
शिव मन में है, या मन शिव में?
संसार शिव में है, या शिव संसार में?
तुम मन में हो, या मन तुम में?
तुम शिव में हो, या शिव तुममें?
अभी एक मित्र ने ’घर’ के बारे में कुछ लिखा तो लगा,
’घर’ हमारे भीतर होता है, या हम घर के भीतर?
और तब वह दिन याद आया जब मैंने घर छोड़ दिया था ।
कहना न होगा घर ने भी तब मुझे छोड़ दिया था ।
या शायद पूरी धरती ही मेरा घर हो गई ।
इस घर का मतलब घर समझें या परिवार, जैसा भी आपको ठीक लगे ।
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लेकिन एक सवाल अभी भी अनुत्तरित है :
अगर मेरा घर कहीं नहीं है, तो मैं कहाँ रहता हूँ?
ज़ाहिर है कि शरीर तो इस भौतिक जगत में ही रहता है और उन्ही चीज़ों से बना / टिका रहता है जिनसे जगत बना हुआ है ।
रही बात ’मेरी’ अर्थात् मेरे चित्त / मन की तो वह कभी राजनीति में रहता है, कभी कामना, ईर्ष्या-द्वेष, घमंड, लोभ या डर, सन्देह या काल्पनिक भगवान के प्रति विश्वास या अविश्वास में... आशा-निराशा, अवसाद-विषाद या क्रोध में रहा करता है । वे ही तो चित्त / मन के अनेक ’घर’ हैं । और हाँ सच्चे-झूठे आदर्श, लक्ष्य, सपने, ’मेरा धर्म’, ’मेरी जाति, ’मेरा राष्ट्र’, ’मेरी भाषा, ’मेरी संस्कृति’... इन सबमें भी! जब मैं कहता हूँ ’शिव में’, तब भी शिव की एक कल्पना ही तो हुआ करती है मेरे मन में! क्या यही सब मेरे अनेक ’घर’ नहीं हैं ? वह कौन है जो इतने घरों का स्वामी है? मैं तो अवश्य ही अपनी प्रकृति के / संस्कारों के धक्के खाता हुआ चाहे / अनचाहे इन घरों में जाने और उन्हें छोड़ने के लिए बाध्य होता हूँ!
एक ’घर’ है नींद का भी!
वहाँ भी मैं जब ज़रूरत हो, क्या उस घर में आने-जाने के लिए मैं स्वतन्त्र / मज़बूर हूँ ? 
क्या इन सब घरों को त्यागा जाना संभव है? 
हाँ मैं उनसे उदासीन रहूँ इतना शायद हो सकता है, लेकिन ऐसा भी यदि मैं किसी ’मुक्ति’ या ’ईश्वर-प्राप्ति’ के आकर्षण से लुब्ध होकर करता हूँ तो ’उम्मीद’ / ’भविष्य’ (के विचार) में घर बना लेता हूँ । और अगर मैं ठीक से समझ लेता हूँ कि अस्तित्व मुझे जहाँ जैसा रखना चाहे रखेगा तो ’घर’ या ’घर छोड़ने’ का प्रश्न ही कहाँ रह जाता है?
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1 comment:

  1. हमनें भी कयी बार सोचा था कि मेरा घर मेरे मन में है या मेरा मन घर में है जो मुझे यहां खींच लाता है।

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