Wednesday, 11 November 2015

अज्ञातपथगामिन्...

अज्ञातपथगामिन्...
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उस दुर्गम पथ पर चला जा रहा था एकाकी, वह सनातन मुमुक्षु ।
सुबह ने अभी घूँघट खोला भी न था लेकिन अँगड़ाई लेकर उठ बैठी थी और उसके झीने घूँघट में उसकी मुखाकृति और भी मोहक हो उठी थी । 
मुमुक्षु का इस पथ पर आना संयोग ही था । उसे दूर से कोई आता दिखाई दिया । दूर से दिखलाई देती आकृति से उसने अनुमान लगाया, हो सकता है कि कोई विदेशी हो, क्योंकि इतनी सुबह ...। इतनी सुबह कौन इस निर्जन रास्ते पर आ सकता है? उसे कौतूहल हुआ ।
उस अपरिचित पथिक के निकट आ जाने पर मुमुक्षु ने देखा कि आगंतुक तो नितांत भारतीय लग रहा था । हल्के क्रीम कलर का कुर्त्ता, सफ़ेद पाजामा और भूरे रंग की जॉकिट । कोई पढ़ा लिखा उच्च वर्ग का धनिक लग रहा था वह तो । लेकिन उसकी आँखों में वह कृत्रिम विनम्रता भी नहीं थी जो कि कुछ विद्वानों या लब्ध-प्रतिष्ठ लोगों में अनायास पाई जाती है। उसके बहुत निकट आ जाने पर मुमुक्षु का कौतूहल जिज्ञासा में बदल गया जब वह ठीक सामने आ पहुँचा तो क्षण भर के लिए उसकी दृष्टि मुमुक्षु पर ठिठक गई। वह दृष्टि उसे वैसी ही प्रतीत हो रही थी जैसे कोई ’रोवर-लाइट’ चारों ओर के क्षेत्र का स्कैनिंग कर रहा हो । वह तेज़-क़दम राही अपने ’मॉर्निंग-वॉक’ के साथ लगभग इसी रीति से अपने परिदृश्य का सावधानीपूर्वक किन्तु चपलता से अवलोकन करता प्रतीत हो रहा था ।
उसकी शून्य-दृष्टि में न तो कोई स्वप्न था, न विचार, न तो कोई स्मृति थी न कल्पना । न तो जुड़ाव था, न अलगाव । वह दृष्टि बस अवलोकन-मात्र थी, किसी भी आलोचना, भावुकता, या आकलन से रहित ।
मुमुक्षु के नेत्रों से पल भर के लिए मिलकर वह तत्क्षण आसपास के विस्तृत परिदृश्य पर लौट गई । किन्तु मुमुक्षु को ऐसा लगा कि इस एक पल में ही उस स्ट्रोब-लाइट ने उसके हृदय में प्रवेश कर उसके अन्तर्जगत् का पूर्ण अवलोकन कर लिया था । और फिर भी उस दृष्टि में आक्रामकता बिलकुल नहीं थी । 
इस क्षणिक साक्षात्कार ने मुमुक्षु को अभिभूत तो नहीं किया किन्तु उसे ऐसा अवश्य अनुभव हुआ कि उसका अपना अन्तर्मन उसके ही समक्ष अपने विस्तृत रूप में अनायास ही उसके लिए अनावृत्त हो उठा था । उसे आश्चर्य हुआ कि क्या काल कभी ठिठकता भी है? वह काल के सन्दर्भ में उस समय के विस्तार को नहीं समझ सका था, बस इतना ही कहा जा सकता है ।
बह दृष्टि किसी किरण सी उसके अंधकारपूर्ण हृदय में उतर चुकी था, कोमल और स्थिर । और उसका हृदय एक अद्भुत् प्रकाश से आलिकित हो उठा था । एक ऐसे प्रकाश से जो न तो सूरज की धूप सा ऊष्ण था, न चन्द्र-किरण सा शीतल, न चकाचौंधयुक्त था, न स्वप्निल । इसी क्षण में वह क्षण भर के लिए ठिठक गया था और अनायास उसके हाथ उस अपरिचित के समक्ष नमस्कार की मुद्रा में जुड़ गए थे ।
उस अपरिचित ने भी एक स्निग्ध मुस्कान  के साथ अभिवादन का प्रत्युत्तर दोनों हाथ जोड़कर दिया ।
दोनों के बीच अपरिचय का एक मौन व्याप्त था और दोनों ही उस मौन की अनुगूँज मात्र थे । क्योंकि दोनों के बीच न तो पहचान थी, न स्मृति, और न कल्पना या अपेक्षा ।
अपरिचित ने शायद सोचा होगा कि उसे न जाने कितने लोग जानते हैं पर वह स्वयं बहुत ही कम लोगों को जानता है । और जिन्हें जानता भी है उनकी बस एक औपचारिक सी स्मृति ही उसके मन में रहती है जिससे उसे कोई लगाव या विरक्ति भी नहीं होती । और इसलिए वह ऐसी परिस्थितियों में मौन ही होता है । एक मौन अपरिचय का, जब आपका भी कोई परिचय आपके पास नहीं होता । वह इतने लोगों को न तो याद रख सकता था न इसकी कोई ज़रूरत ही उसे महसूस होती थी । हर नए पल जो भी उसके समक्ष आता था उसके लिए नितांत अपरिचित और नया होता था और उसकी स्मृति पलक झपकते ही उस नए आगंतुक के संबंध में उसकी संचित जानकारी उसके लिए प्रस्तुत कर देती थी । मस्तिष्क एक आश्चर्यजनक ढँग से उसकी अनावश्यक स्मृति को निरंतर मिटाता रहता था और इसलिए हमेशा बहुत तरो-ताज़ा और सजग होता था ।
सुबह की सैर पर निकलते समय वह उन थोड़ी सी जमा स्मृतियों को भी पीछे छोड़ आता था और नितांत अकेला अपने रास्ते पर चल देता था । 
वह पथिक आगे चला गया तो मुमुक्षु ने पलटकर उस पथिक पर एक दृष्टि डाली । पाजामा-कुर्त्ता, जैकेट पहने वह जिस तरह तेज़ क़दम चलता उसके समीप आयुआ था, वैसे ही अब उससे दूर होता जा रहा था ।
मुमुक्षु भी अपने रास्ते पर चलने लगा और जल्दी ही अगले मोड़ पर मुड़ गया जहाँ से पथिक उसकी दृष्टि से सर्वथा ओझल हो गया था ।
इस पर्वतीयुअ रास्ते पर ऐसे बहुत से मोड़ थे जैसे दूसरे पहाड़ी अञ्चलों में प्रायः पाए जाते हैं । लोग पगडंडियाँ बना लेते हैं और जो आदमी अभी आपकी आँखों से ओझल हुआ था वह दो मिनट बाद ही आपको फिर से दिखलाई पड़ सकता है । 
कुछ दूर चलने के बाद मुमुक्षु को वही पथिक पुनः ऐसे ही कहीं दूर दृष्टिगत हुआ । इसका मतलब यह, कि वह पथिक वाहनों के लिए बने पक्के रास्ते छोड़कर भी जा सकता है,  - मुमुक्षु ने सोचा । किन्तु अब वह विपरीत दिशा में जा रहा था और एकाएक ग़ायब हो गया था । हाँ, वहाँ ढलान है, और रास्ता एकदम नीचे चला जाता है...। 
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"कौन था यह पथिक?"
मुमुक्षु के मन में प्रश्न उठा ।
मुमुक्षु जिस कुटिया में गत माह से ठहरा हुआ था वहाँ पहुँचकर पास के चूल्हे पर रखी केतली से चाय ली और अपने सामने के पेड़ के नीचे की समतल चट्टान पर आराम से बैठकर चाय पीने लगा ।
पथिक की दृष्टि ने पल भर में उसका मन हर लिया था । उस शीतल दृष्टि ने उसके मन को झकझोरा नहीं बल्कि सहलाया ही और शान्त और सुस्थिर कर दिया । उसके मन में विचारों के भीड़ तितर-बितर हो चुकी थी और जो इने-गिने थे वे भी शिथिल गति से आ जा रहे थे । आज तक, अभी कुछ देर पहले तक भी, मुमुक्षु अपने विचारों को सुधारने, बदलने और उन्हें अधिक श्रेष्ठ बनाने के लिए श्रम करता रहा था, व्यग्रता औरा चिन्तापूर्वक । लेकिन उसकी दृष्टि से उस पथिक की उस दृष्टि का स्पर्श मिलने के बाद पहली बार उसका ध्यान इस ओर गया विचार-मात्र उसके भीतर जमा हुआ स्मृति और शब्द-संयोजन है, जो एक नितांत बाहरी तत्व है । हर विचार मूक और बधिर होता है और संकेत-भाषा के अलावा किसी और तरीके से न तो कुछ कह सकता है, न सुन सकता है । विचार या तो अभिव्यक्ति है, या किसी अन्य विचार की प्रतिक्रिया मात्र जो स्मृति में पहले से संजो रखे गए विचार की गूँज भर हुआ करता है ।
इसलिए विचार न तो कभी नया होता है, न नए को देख पाने में सक्षम होता है ।
ज़ाहिर है इस प्रकार की विवेचना उस विचार / वैचारिक गतिविधि से नितांत विलक्षण तत्व था / है, जो उस विचार का अतिक्रमण कर सकता है ।
उसे यह सब साफ़-साफ़, स्पष्ट दिख रहा था ।
स्मृति-विचार-स्मृति का दुष्चक्र और उस दुष्चक्र में फँसा ’मैं’-विचार!
मुमुक्षु मुग्ध था । इतना सरल सत्य वह इससे पहले कभी क्यों न देख सका?
और उसे हँसी भी आ रही थी कि विचार के अलावा वह स्वयं अगर कुछ है ही नहीं, तो उसके लिए यह कैसे संभव होता? यदि वह न तो विचार है और न विचार से भिन्न कुछ और, तो वह क्या है? किन्तु विचार के रूप में उसके पास अब न तो कोई उत्तर था न उत्तर की कोई जरूरत ही थी । विचार के रूप में अगर वह कुछ है / था भी तो स्पष्ट है कि वह बस एक अपाहिज भर था, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और चल-फिर तक नहीं सकता । 
फिर "विचार कौन करता है?" 
-विवेचना ने प्रश्न उठाया ।
अपनी याँत्रिक गतिविधि के रूप में स्मृति के माध्यम से मस्तिष्क में विचार की एक प्रक्रिया (शायद) सतत चलती रहती है ।यदि स्मृति नहीं तो विचार नहीं, विचार नहीं तो स्मृति कहाँ? दूसरी ओर स्मृति नहीं तो पहचान भी नहीं, और पहचान नहीं तो स्मृति? और ये ही तो अस्मिता के अलग अलग रूप हैं इसलिए "विचार कौन करता है?" यह प्रश्न ही बुनियादी रूप से भ्रामक और असंगत भी है । 
-विवेचना ने कहा ।
मुमुक्षु सरलता से समझ-देख पा रहा था कि ’विवेचना’ बस जागरुकता की ही गतिविधि है, लेकिन अगर इसे शब्द तक सीमित रखा जाए तो वह भी बस विचार सी ही निरर्थक हो जाती है । जबकि इस विवेचना ने विचार को प्रतिस्थापित कर दिया है यह भी स्पष्ट था ।
पर इसका प्रयोग युक्ति की तरह से किया जाना ही विचार के दुष्चक्र का अन्त है ।  स्पष्ट है कि विचार ऐसा एक अपाहिज होता है, जो न देख सकता है, न सुन सकता है और चल-फिर तक नहीं सकता । बस रेंगता रहता है, साँप या केंचुए जैसा, - किसी दूसरे विचार के सहारे । वे सब ऐसे ही सतत रेंगते रहते हैं कभी अंधेरे में कभी उजाले में या धीमी मुर्दा रौशनी में चमकते हुए । उनकी अपनी कोई रौशनी कहाँ होती है?
उसे ’विवेचना’ के इस नए ’दर्शन’ से बड़ा  विस्मय हो रहा था । हाँ, इसे ’दर्शन’ कहना ही ठीक होगा क्योंकि यह कोई ’फिलॉसॉफी’/ फ़लसफ़ा तो हरगिज़ नहीं था । यह युक्ति है, शायद तकनीक, लेकिन याँत्रिक नहीं, बौद्धिक नहीं । यह एक आगम-प्रकार है, आगमन-प्रकार...। और उसे समझने में समय नहीं लगा कि ’षड्-दर्शन’ भी विवेचना के ही छः आगम-प्रकार हैं ।
उसे इस बात से थोड़ा क्षोभ भी हुआ कि वेदों और वेदोक्त दर्शन का अपात्र लोगों द्वारा किया गया अनुवाद और व्याख्या करनेवालों ने इस पूरी परंपरा का कैसा विद्रूप कर दिया है । यह एक भावना थी जिससे वह बँधा नहीं । ’वे सब कहाँ हैं तुम्हारी स्मृति अय्र् विचार से अलग? -विवेचना ने उसे सचेत किया ।
मुमुक्षु के दोनों नेत्र अर्धोन्मीलित से हो चुके थे । दोनों हाथ उस अज्ञात पथिक के प्रति सम्मान में जुड़ गए, और उसका मस्तक उसके प्रति आदर से झुक गया ।
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