सरलता और कुटिलता -2
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संभ्रम राजनीति की बुनियाद है ।
और संभ्रम अनेक प्रकार के हो सकते हैं ।
संभ्रम की विशेषता यह भी है कि वे घोर निश्चयात्मक भी प्रतीत हो सकते हैं । संभ्रम मूलतः एक विचार होता है जो तथ्य को किसी विशिष्ट प्रारूप में देखता है । मजे की बात यह भी है बहुत से संभ्रम अपने मौलिक सिद्धान्तों में एक दूसरे से मिलते-जुलते भी नज़र आते हैं किन्तु जैसे-जैसे ’विकसित’ अर्थात् परिवर्धित होते जाते हैं भिन्न-भिन्न रूप ले लेते हैं । एक उदाहरण देखें ’साम्यवाद’ का । या फिर पूँजीवाद का । या फ़िर नास्तिक-मत का ।
और हाँ, 'एकेश्वरवाद' तो और भी अच्छा, सशक्त उदाहरण होगा।
संभ्रांत, संभ्रम के आसान शिकार होते हैं ।
संभ्रम और परंपरा का चोली-दामन जैसा साथ होता है ।
संभ्रम परंपरा को जन्म देता है / देते हैं , और परंपरा असुरक्षा की भावना को ।
क्योंकि तब विभिन्न परंपराएँ , भले ही मूल में एक ही विचार से उत्पन्न हुई हों, विभिन्न दिशाओं में पनपती-फैलती हैं । संभ्रम अर्थात् ’विश्वास’ जो सिर्फ़ कल्पित असुरक्षा, लोभ, भय या आशा पर अवलंबित होता है, न कि तथ्य की समझ पर स्वरूपतः तो एक ’विचार’ ही होता है । एक ’विचार’ की तरह यह सिर्फ़ कुछ शब्दोंका क्रम-विन्यास मात्र होता है जो कितना भी लुभावना डरावना या मोहक हो, विचार के रूप में अल्पजीवी होता है जिसका रूप और आकृति तो होते हैं, आकार-प्रकार भी होते हैं और इस तरह से वह देवता का निरंतर बदलता हुआ ’मूर्त’-रूप भी होता है किन्तु वह किसी सार या प्राण से सर्वथा रहित होता है ।
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अभी कल ही माननीय नरेन्द्र मोदीजी ने कहा कि भारतीय संस्कृति ’सहिष्णुता’ से कहीं बहुत आगे जाती है, भारतीय संस्कृति ’स्वीकार’ करने की संस्कृति है ।मुझे दुःख है कि पता नहीं किन ज्ञात-अज्ञात कारणों से उन्होंने अपनी बात को इससे आगे नहीं जाने दिया । अगर मुझसे पूछा जाता तो मैं कहता कि भारतीय संस्कृति जो मेरी दृष्टि में एक जीवन्त प्राणवान् भावना है, उस भारतीय संस्कृति के प्राण इस ’स्वीकार’ से भी बढ़कर आतिथ्य की उदार भावना ’अतिथि देवो भवः’ की भावना में बसते हैं । यह भावना न तो ’आदर्श’ है जिसे पाने के लिए हमें बहुत श्रम या संघर्ष करना होगा, या ’विचार’ है जो नित नये रूप लेता हुआ भी हमेशा अतृप्त, अधूरा, असुरक्षित और अनिश्चित होता है । जो दूसरे ’विचारों’ से निरंतर युद्धरत रहता है, सदा भयभीत और शंकालु, आशान्वित और अवसादयुक्त, हर्ष और अमर्षयुक्त होता है । जो अतिस्वप्नशील और अति निद्रालु होता है ।
राजनीति इन्हीं सब विशेषताओं का अराजक जमावड़ा होती है । इसलिए कुटिलता-जटिलता राजनीति की स्थायी मुद्रा होती है ।
राजनीति में होने का अर्थ है भ्रमित / कंफ़्यूज़्ड होना । बुद्धिजीवी का राजनैतिक होना भी वैसा ही स्वाभाविक है, जैसा कि उसका कंफ़्यूज़्ड होना । राजनीतिज्ञ की ही तरह बुद्धिजीवि के लिए भी जटिल-कुटिल न हो पाना बहुत कठिन है, सरल न हो पाना बिल्कुल स्वाभाविक ।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि राजनीति में स्थायी मित्र और स्थायी शत्रु जैसी कोई चीज़ नहीं होती, हो भी नहीं सकती ।
भारतीय संस्कृति की उदारता / सरलता उसका स्थायी स्वभाव है, राजनीतिक दृष्टि से यही उदारता उसकी कमज़ोरी है, जबकि कुटिलता-जटिलता राजनीति के पैंतरे । और वही राजनीति को आत्मघात की दिशा में भी ले जाते हैं ।
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संभ्रम राजनीति की बुनियाद है ।
और संभ्रम अनेक प्रकार के हो सकते हैं ।
संभ्रम की विशेषता यह भी है कि वे घोर निश्चयात्मक भी प्रतीत हो सकते हैं । संभ्रम मूलतः एक विचार होता है जो तथ्य को किसी विशिष्ट प्रारूप में देखता है । मजे की बात यह भी है बहुत से संभ्रम अपने मौलिक सिद्धान्तों में एक दूसरे से मिलते-जुलते भी नज़र आते हैं किन्तु जैसे-जैसे ’विकसित’ अर्थात् परिवर्धित होते जाते हैं भिन्न-भिन्न रूप ले लेते हैं । एक उदाहरण देखें ’साम्यवाद’ का । या फिर पूँजीवाद का । या फ़िर नास्तिक-मत का ।
और हाँ, 'एकेश्वरवाद' तो और भी अच्छा, सशक्त उदाहरण होगा।
संभ्रांत, संभ्रम के आसान शिकार होते हैं ।
संभ्रम और परंपरा का चोली-दामन जैसा साथ होता है ।
संभ्रम परंपरा को जन्म देता है / देते हैं , और परंपरा असुरक्षा की भावना को ।
क्योंकि तब विभिन्न परंपराएँ , भले ही मूल में एक ही विचार से उत्पन्न हुई हों, विभिन्न दिशाओं में पनपती-फैलती हैं । संभ्रम अर्थात् ’विश्वास’ जो सिर्फ़ कल्पित असुरक्षा, लोभ, भय या आशा पर अवलंबित होता है, न कि तथ्य की समझ पर स्वरूपतः तो एक ’विचार’ ही होता है । एक ’विचार’ की तरह यह सिर्फ़ कुछ शब्दोंका क्रम-विन्यास मात्र होता है जो कितना भी लुभावना डरावना या मोहक हो, विचार के रूप में अल्पजीवी होता है जिसका रूप और आकृति तो होते हैं, आकार-प्रकार भी होते हैं और इस तरह से वह देवता का निरंतर बदलता हुआ ’मूर्त’-रूप भी होता है किन्तु वह किसी सार या प्राण से सर्वथा रहित होता है ।
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अभी कल ही माननीय नरेन्द्र मोदीजी ने कहा कि भारतीय संस्कृति ’सहिष्णुता’ से कहीं बहुत आगे जाती है, भारतीय संस्कृति ’स्वीकार’ करने की संस्कृति है ।मुझे दुःख है कि पता नहीं किन ज्ञात-अज्ञात कारणों से उन्होंने अपनी बात को इससे आगे नहीं जाने दिया । अगर मुझसे पूछा जाता तो मैं कहता कि भारतीय संस्कृति जो मेरी दृष्टि में एक जीवन्त प्राणवान् भावना है, उस भारतीय संस्कृति के प्राण इस ’स्वीकार’ से भी बढ़कर आतिथ्य की उदार भावना ’अतिथि देवो भवः’ की भावना में बसते हैं । यह भावना न तो ’आदर्श’ है जिसे पाने के लिए हमें बहुत श्रम या संघर्ष करना होगा, या ’विचार’ है जो नित नये रूप लेता हुआ भी हमेशा अतृप्त, अधूरा, असुरक्षित और अनिश्चित होता है । जो दूसरे ’विचारों’ से निरंतर युद्धरत रहता है, सदा भयभीत और शंकालु, आशान्वित और अवसादयुक्त, हर्ष और अमर्षयुक्त होता है । जो अतिस्वप्नशील और अति निद्रालु होता है ।
राजनीति इन्हीं सब विशेषताओं का अराजक जमावड़ा होती है । इसलिए कुटिलता-जटिलता राजनीति की स्थायी मुद्रा होती है ।
राजनीति में होने का अर्थ है भ्रमित / कंफ़्यूज़्ड होना । बुद्धिजीवी का राजनैतिक होना भी वैसा ही स्वाभाविक है, जैसा कि उसका कंफ़्यूज़्ड होना । राजनीतिज्ञ की ही तरह बुद्धिजीवि के लिए भी जटिल-कुटिल न हो पाना बहुत कठिन है, सरल न हो पाना बिल्कुल स्वाभाविक ।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि राजनीति में स्थायी मित्र और स्थायी शत्रु जैसी कोई चीज़ नहीं होती, हो भी नहीं सकती ।
भारतीय संस्कृति की उदारता / सरलता उसका स्थायी स्वभाव है, राजनीतिक दृष्टि से यही उदारता उसकी कमज़ोरी है, जबकि कुटिलता-जटिलता राजनीति के पैंतरे । और वही राजनीति को आत्मघात की दिशा में भी ले जाते हैं ।
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