J.Krishnamurti in the Light of śrīmadbhagvadgītā.
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श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में जे. कृष्णमूर्ति
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निष्ठा, सिद्धान्त, मत एवं विश्वास इन चार शब्दों पर कुछ कहना चाहूँगा।
अनुभव की पुनरावृत्ति से हमारे आसपास के संसार के प्रति हमारे मन में प्रतिक्रिया उसकी 'समझ' के रूप में एक तात्कालिक, स्थायी, अस्थायी या परिवर्तनशील विचार पैदा होता है यह एक ओर तो स्मृति बनता है, दूसरी ओर हमारे मन में भविष्य में उठने वाले विचारों को प्रभावित भी करता है। इसलिए 'विचार' सदा परिवर्तित रहता है। किन्तु कुछ विचार अपेक्षतया स्थायी रूप ग्रहण कर लेते हैं जिन्हें हम निष्ठा, सिद्धान्त, मत एवं विश्वास आदि नाम देते हैं। ये शुद्ध 'भौतिक', मानसिक अर्थात् वैचारिक या भावनागमय, बुद्धिगम्य अर्थात् 'निश्चयात्मक' या ऐसी दृढ़ अन्तःप्रेरणा बन जाते हैं जिनकी सत्यता हमारे लिए असंदिग्ध निर्विवाद, अकाट्य होती है।
एक छोटा सा उदाहरण लें -
गुरुत्वाकर्षण का अनुभव जो 'विचार' का रूप ग्रहण करने से पूर्व ही निष्ठा, सिद्धांत, मत, या विश्वास बन जाता है। ज़रूरी नहीं कि यह शाब्दिक हो, प्रायः सभी अनुभव प्रारंभ में शब्दरहित ही होते हैं किन्तु फिर उन्हें शब्दों से जोड़ दिया जाता है। बस इतनी सी कहानी है शब्दगत विचार की।
किन्तु विचार-श्रृंखला 'जानकारी' रूप में स्मृति बनकर एक आभासी ज्ञान पैदा करती है जो मूलतः ज्ञान का ही एक भेद है।
गुरुत्वाकर्षण के प्रति 'अनुभव' से हर प्राणी के मन में धरती / पृथ्वी के व्यवहार के प्रति एक समझ पैदा होती है जो अंतःकरण की एक स्वाभाविक प्रेरणा के रूप में एक निष्ठा हो जाती है। यह शुद्ध 'भौतिक' निष्ठा हुई। वैसे ही किसी मनुष्य में इस निरंतर परिवर्तनशील संसार में इसके किसी अपरिवर्तनशील आधार होने का विचार पैदा होता है जिसे वह परिभाषित या व्यक्त भले ही न कर सके किन्तु उसे साक्षात 'जानने' उत्कंठा उसे उसकी खोज करने के लिए सतत प्रेरित करती रहती है।
बाह्य रूप से से ऐसा लग सकता है कि वह अधिक सुखी होने के लिए या दुःख से छुटकारा पाने या नित्य-सुख को पाने के लिए प्रयासरत है, जैसा कि दुनिया भर के जीव किया करते हैं जबकि वस्तुतः उस अपरिवर्तनशील आधार के बारे में जिज्ञासा करनेवाला उस 'निष्ठा' से ही प्रेरित होकर अपने प्रयास करता प्रायः आध्यात्मिक साधना भी कहा जाता है।
उसके क्रिया-कलापों और व्यवहार के आधार पर इस निष्ठा को 'कर्म-निष्ठा' या 'ज्ञान-निष्ठा' के रूप में देखा जा सकता है। प्रथम 'कर्म-योग' जबकि द्वितीय 'ज्ञान-योग' कहा जाता है।
चूंकि उनके लिए प्रयास में संलग्न करनेवाली 'प्रेरणा' मूलतः एक ही होती है, इसलिए ही वृक्ष की दो शाखाएँ होती हैं। भगवद्गीता में इसे ही स्पष्ट किया गया है कि ऊपरी तौर पर कर्म-मार्ग (अर्थात् जैसे भी संभव हो, कर्तृत्व की भावना से छूटकर प्राप्त हुए कर्म का अनुष्ठान करना) और ज्ञान-मार्ग (अर्थात् अपने स्वरूप से परिचित होकर कर्तृत्व की भावना से छूट जाना) दोनों की प्रेरणा और परिणाम एक होने से दोनों स्वरूपतः अभिन्न हैं।
आध्यात्मिक सत्य के वास्तविक जिज्ञासुओं की निष्ठा दो रूपों में हुआ करती है। निष्ठा का अर्थ है वह उपाय जिसके माध्यम से वे इस सत्य का आविष्कार करते हैं। वह तरीका जिसे उनका मन अनायास स्वीकार कर लेता है। एक ओर 'कर्म' के प्रति आश्वस्त लोग, तो दूसरी ओर विवेचना और खोज-बीन के द्वारा सत्य को समझने / ग्रहण करने में रुचि रखनेवाले।
एक दृष्टि से ऐसी विवेचना और खोज-बीन भी एक प्रकार का 'कर्म' दूसरी ओर ऐसी विवेचना और खोज-बीन के अभाव में सम्यक कर्म होना / कर पाना भी संभव नहीं।
मनुष्य इन दो निष्ठाओं में से एक को प्रधान और दूसरी को गौण समझता है।
फिर अन्य दृष्टि से अतीत में हुए ज्ञानियों के आचरण और शिक्षाओं के आधार पर भी उनके बारे में यह अनुमान जा सकता है कि उनमें किस निष्ठा के दर्शन होते हैं।
सामान्यतः सांख्य-दर्शन अज्ञात के बारे में अपरोक्षतः कुछ नहीं कहता, जैसे 'ईश्वर' / 'आत्मा' 'स्वर्ग-नरक', देवी-देवता, सृष्टि या प्रलय आदि। वह सर्वाधिक 'प्रत्यक्ष' की विवेचना के आधार पर अपनी खोज-बीन। 'कर्म' का आग्रह रखनेवाले यह नहीं देख पाते कि कर्म, कर्ता, संकल्प सर्वथा अपरिभाषेय हैं। इनके बारे में 'विचार' उनका विकल्प नहीं होते। किन्तु तत्व 'ज्ञान' अर्थात जिसके अंतर्गत कर्म, कर्ता, संकल्प आदि को सत्यता प्रदान की जाती है अकाट्य, स्वप्रमाणित, नित्य अविकारी सत्यता है। जिसे चेतना कहा जाता है। इसकी सत्यता और सत्ता से कोई असहमत ही नहीं सकता और न ही इस पर प्रश्न उठाया जाना संभव है। और यद्यपि यह इन्द्रियों, मन (तर्क-शक्ति), बुद्धि (निर्णय-शक्ति) और भावना रूपी अनुभव से ग्राह्य भी नहीं है किन्तु सबमें शुद्ध 'बोध'रूपी इसकी विद्यमानता या अविद्यमानता ही उन्हें कार्य करने में समर्थ या असमर्थ बना देती है। इस दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति को सांख्य-निष्ठा से युक्त ज्ञानी कहना गलत नहीं होगा। वे शास्त्रों का प्रायः विरोध नहीं करते और यदि प्रसंगवश करते भी हैं, तो केवल इसलिए कि प्रत्यक्ष और जीवंत संवाद शास्त्र-ज्ञान के परोक्ष और संदिग्ध अध्ययन / पुनरावृत्ति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। और फिर जिन्हें शास्त्रों से कुछ मिलता प्रतीत होता है उनसे जे. कृष्णमूर्ति का कोई सरोकार, लगाव / वैमनस्य भी नहीं है। वे न तो उनकी निंदा करते हैं न प्रशंसा।
इस संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक श्लोक ही सारगर्भित रूप में उनके बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है।
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J.Krishnamurti in the Light of śrīmadbhagvadgītā
अध्याय 3, श्लोक 3,
श्रीभगवान् उवाच :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
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(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
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Chapter 3, shloka 3,
śrībhagavān uvāca :
loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
__
(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
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Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said :
O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhya-yoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñāna-yogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karma-yogins.
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श्रीमद्भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में जे. कृष्णमूर्ति
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निष्ठा, सिद्धान्त, मत एवं विश्वास इन चार शब्दों पर कुछ कहना चाहूँगा।
अनुभव की पुनरावृत्ति से हमारे आसपास के संसार के प्रति हमारे मन में प्रतिक्रिया उसकी 'समझ' के रूप में एक तात्कालिक, स्थायी, अस्थायी या परिवर्तनशील विचार पैदा होता है यह एक ओर तो स्मृति बनता है, दूसरी ओर हमारे मन में भविष्य में उठने वाले विचारों को प्रभावित भी करता है। इसलिए 'विचार' सदा परिवर्तित रहता है। किन्तु कुछ विचार अपेक्षतया स्थायी रूप ग्रहण कर लेते हैं जिन्हें हम निष्ठा, सिद्धान्त, मत एवं विश्वास आदि नाम देते हैं। ये शुद्ध 'भौतिक', मानसिक अर्थात् वैचारिक या भावनागमय, बुद्धिगम्य अर्थात् 'निश्चयात्मक' या ऐसी दृढ़ अन्तःप्रेरणा बन जाते हैं जिनकी सत्यता हमारे लिए असंदिग्ध निर्विवाद, अकाट्य होती है।
एक छोटा सा उदाहरण लें -
गुरुत्वाकर्षण का अनुभव जो 'विचार' का रूप ग्रहण करने से पूर्व ही निष्ठा, सिद्धांत, मत, या विश्वास बन जाता है। ज़रूरी नहीं कि यह शाब्दिक हो, प्रायः सभी अनुभव प्रारंभ में शब्दरहित ही होते हैं किन्तु फिर उन्हें शब्दों से जोड़ दिया जाता है। बस इतनी सी कहानी है शब्दगत विचार की।
किन्तु विचार-श्रृंखला 'जानकारी' रूप में स्मृति बनकर एक आभासी ज्ञान पैदा करती है जो मूलतः ज्ञान का ही एक भेद है।
गुरुत्वाकर्षण के प्रति 'अनुभव' से हर प्राणी के मन में धरती / पृथ्वी के व्यवहार के प्रति एक समझ पैदा होती है जो अंतःकरण की एक स्वाभाविक प्रेरणा के रूप में एक निष्ठा हो जाती है। यह शुद्ध 'भौतिक' निष्ठा हुई। वैसे ही किसी मनुष्य में इस निरंतर परिवर्तनशील संसार में इसके किसी अपरिवर्तनशील आधार होने का विचार पैदा होता है जिसे वह परिभाषित या व्यक्त भले ही न कर सके किन्तु उसे साक्षात 'जानने' उत्कंठा उसे उसकी खोज करने के लिए सतत प्रेरित करती रहती है।
बाह्य रूप से से ऐसा लग सकता है कि वह अधिक सुखी होने के लिए या दुःख से छुटकारा पाने या नित्य-सुख को पाने के लिए प्रयासरत है, जैसा कि दुनिया भर के जीव किया करते हैं जबकि वस्तुतः उस अपरिवर्तनशील आधार के बारे में जिज्ञासा करनेवाला उस 'निष्ठा' से ही प्रेरित होकर अपने प्रयास करता प्रायः आध्यात्मिक साधना भी कहा जाता है।
उसके क्रिया-कलापों और व्यवहार के आधार पर इस निष्ठा को 'कर्म-निष्ठा' या 'ज्ञान-निष्ठा' के रूप में देखा जा सकता है। प्रथम 'कर्म-योग' जबकि द्वितीय 'ज्ञान-योग' कहा जाता है।
चूंकि उनके लिए प्रयास में संलग्न करनेवाली 'प्रेरणा' मूलतः एक ही होती है, इसलिए ही वृक्ष की दो शाखाएँ होती हैं। भगवद्गीता में इसे ही स्पष्ट किया गया है कि ऊपरी तौर पर कर्म-मार्ग (अर्थात् जैसे भी संभव हो, कर्तृत्व की भावना से छूटकर प्राप्त हुए कर्म का अनुष्ठान करना) और ज्ञान-मार्ग (अर्थात् अपने स्वरूप से परिचित होकर कर्तृत्व की भावना से छूट जाना) दोनों की प्रेरणा और परिणाम एक होने से दोनों स्वरूपतः अभिन्न हैं।
आध्यात्मिक सत्य के वास्तविक जिज्ञासुओं की निष्ठा दो रूपों में हुआ करती है। निष्ठा का अर्थ है वह उपाय जिसके माध्यम से वे इस सत्य का आविष्कार करते हैं। वह तरीका जिसे उनका मन अनायास स्वीकार कर लेता है। एक ओर 'कर्म' के प्रति आश्वस्त लोग, तो दूसरी ओर विवेचना और खोज-बीन के द्वारा सत्य को समझने / ग्रहण करने में रुचि रखनेवाले।
एक दृष्टि से ऐसी विवेचना और खोज-बीन भी एक प्रकार का 'कर्म' दूसरी ओर ऐसी विवेचना और खोज-बीन के अभाव में सम्यक कर्म होना / कर पाना भी संभव नहीं।
मनुष्य इन दो निष्ठाओं में से एक को प्रधान और दूसरी को गौण समझता है।
फिर अन्य दृष्टि से अतीत में हुए ज्ञानियों के आचरण और शिक्षाओं के आधार पर भी उनके बारे में यह अनुमान जा सकता है कि उनमें किस निष्ठा के दर्शन होते हैं।
सामान्यतः सांख्य-दर्शन अज्ञात के बारे में अपरोक्षतः कुछ नहीं कहता, जैसे 'ईश्वर' / 'आत्मा' 'स्वर्ग-नरक', देवी-देवता, सृष्टि या प्रलय आदि। वह सर्वाधिक 'प्रत्यक्ष' की विवेचना के आधार पर अपनी खोज-बीन। 'कर्म' का आग्रह रखनेवाले यह नहीं देख पाते कि कर्म, कर्ता, संकल्प सर्वथा अपरिभाषेय हैं। इनके बारे में 'विचार' उनका विकल्प नहीं होते। किन्तु तत्व 'ज्ञान' अर्थात जिसके अंतर्गत कर्म, कर्ता, संकल्प आदि को सत्यता प्रदान की जाती है अकाट्य, स्वप्रमाणित, नित्य अविकारी सत्यता है। जिसे चेतना कहा जाता है। इसकी सत्यता और सत्ता से कोई असहमत ही नहीं सकता और न ही इस पर प्रश्न उठाया जाना संभव है। और यद्यपि यह इन्द्रियों, मन (तर्क-शक्ति), बुद्धि (निर्णय-शक्ति) और भावना रूपी अनुभव से ग्राह्य भी नहीं है किन्तु सबमें शुद्ध 'बोध'रूपी इसकी विद्यमानता या अविद्यमानता ही उन्हें कार्य करने में समर्थ या असमर्थ बना देती है। इस दृष्टि से जे.कृष्णमूर्ति को सांख्य-निष्ठा से युक्त ज्ञानी कहना गलत नहीं होगा। वे शास्त्रों का प्रायः विरोध नहीं करते और यदि प्रसंगवश करते भी हैं, तो केवल इसलिए कि प्रत्यक्ष और जीवंत संवाद शास्त्र-ज्ञान के परोक्ष और संदिग्ध अध्ययन / पुनरावृत्ति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। और फिर जिन्हें शास्त्रों से कुछ मिलता प्रतीत होता है उनसे जे. कृष्णमूर्ति का कोई सरोकार, लगाव / वैमनस्य भी नहीं है। वे न तो उनकी निंदा करते हैं न प्रशंसा।
इस संबंध में श्रीमद्भगवद्गीता का यह एक श्लोक ही सारगर्भित रूप में उनके बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है।
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J.Krishnamurti in the Light of śrīmadbhagvadgītā
अध्याय 3, श्लोक 3,
श्रीभगवान् उवाच :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
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(लोके-अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया अनघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानाम् कर्मयोगेन योगिनाम् ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ अर्जुन! इस लोक में (अधिकारी-भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न मनुष्यों में) जो दो निष्ठाएँ (परमार्थ की सिद्धि / प्राप्ति कैसे होती है, इस विषय में) होती हैं, उनके बारे नें मेरे द्वारा बहुत पहले ही कहा जा चुका है । साङ्ख्ययोग के प्रति ज्ञानयोगियों की निष्ठा, और कर्मयोग के प्रति कर्मयोगियों की निष्ठा ।
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Chapter 3, shloka 3,
śrībhagavān uvāca :
loke:'smindvividhā niṣṭhā
purā proktā mayānagha |
jñānayogena sāṅkhyānāṃ
karmayogena yoginām ||
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(loke-asmin dvividhā niṣṭhā
purā proktā mayā anagha |
jñānayogena sāṅkhyānām
karmayogena yoginām ||)
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Meaning :
Lord śrīkṛṣṇa said :
O sinless arjuna of pure mind! Long ago in times, there are two different kinds of ways to follow for approaching the Supreme which were described by ME (for those who deserve, according to the specific bent of their mind). Those who are inclined to follow the way of sāṅkhya-yoga (by deduction and enquiry into the nature of Reality, Self) are the jñāna-yogins. Others, who emphasize and are inclined to follow the way of action are the karma-yogins.
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