Monday, 2 September 2024

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ऋषि कणाद का वैशेषिक दर्शन

जैसा कि मैंने समझा, कणाद उस ऋषि का उपनाम था, जिन्होंने न्याय दर्शन  की शाखा वैशेषिक दर्शन  का आविष्कार किया क्योंकि ऋषि सत्य का दर्शन करते हुए सिद्धान्तों का आविष्कार करते हैं न कि स्थापना, जैसा कि आधुनिक समझे जानेवाले भौतिक विज्ञान के मत को स्थापित करते हैं जो किसी तथ्य को तात्कालिक रूप से व्याख्यायित तो करता है किन्तु कालान्तर में उसे पुनः संशोधित किया जाना आवश्यक हो जाता है। वैज्ञानिक रीति से तथ्यों को समझने का तरीका प्रमाण पर निर्भर होता है जिसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता है।

पतञ्जलि के योग-दर्शन के अनुसार प्रमाण एक वृत्ति विशेष का ही एक प्रकार होता है -

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।। 

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

इसलिए प्रमाण नामक वृत्ति आकलन (evaluation) का ही एक रूप है, जो प्रत्यक्ष इन्द्रिय-संवेदन से, बौद्धिक आकलन से बुद्धिगम्य या जिसे प्रयोग के द्वारा निष्कर्ष के रूप में प्राप्त कर तात्कालिक रूप से सत्य मानकर लिया जाता है। प्रथम को प्रत्यक्ष, द्वितीय को अनुमान  और अंतिम को आगम कहा जाता है। इसीलिए वैदिक शास्त्र भी तदनुसार लौकिक, दैविक और आध्यात्मिक आधार पर ज्ञान का वर्णन इन तीनों प्रकारों से करते हैं। किन्तु इन तीनों ही छः दर्शनों  पर आधारित और उन पर ही आश्रित होते हैं। इन छः दर्शनों को क्रमशः :

साँख्य, कर्म-पूर्वमीमांसा, न्याय, योग और उत्तर-मीमांसा, वैशेषिक और (वेदान्त) के नाम से जाना जाता है।

न्यायदर्शन की ही एक शाखा है - वैशेषिक दर्शन, जिसका आविष्कार महर्षि कणाद ने किया था। यह सूक्ष्म गणित पर आधारित विशेष दर्शन है जिसमें पदार्थ विज्ञान के सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है।

यहाँ पर मुझसे कुछ त्रुटि हुई हो तो उसे कृपया सुधार लें। 

ऋषि कणाद का नाम का अर्थ :

कणं अत्ति इति कणादः 

से समझा जा सकता है। जैसे पिप्पलाद ऋषि पीपल के वृक्ष के फलों को खाते थे, उसी प्रकार कणाद ऋषि खेत करने के बाद उसमें पड़े अन्न-कणों का संग्रह और सेवन कर उनसे अपनी भूख मिटाते थे।

वैसे कण शब्द का एक अर्थ तो कं (किसे), और दूसरा क  अर्थात् आकाश (space) भी हो सकता है जैसा कि कमण्डल शब्द की व्युत्पत्ति से स्पष्ट है। "क" का अर्थ "चारों ओर" भी होता है, जैसा कि कपाल, कपोल, कन्ध / स्कन्ध, कर (हाथ), कटि (कमर) और कफोघ्नि (कोहनी) आदि संस्कृत शब्दों से देखा जा सकता है। कण शब्द का तीसरा अर्थ है पदार्थ (material) या द्रव्य यह जानना रोचक है कि पदार्थ आकाश को और आकाश पदार्थ / द्रव्य को खा जाता है। और इसीलिए आकाश (Space) और पदार्थ (material) दोनों ही पञ्च-महाभूत कहे जाते हैं। दोनों ही अव्यक्त से व्यक्त और व्यक्त से अव्यक्त में आते जाते रहते हैं -

अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत।।

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।

आकाश शून्य, एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः या सात आयामों से युक्त है।

सबमें व्याप्त है और सब  में ही ओत प्रोत है।

भूः भुवः स्वः क्रमशः तीन आयाम हैं जिनमें से प्रथम स्थूल या भौतिक, द्वितीय सूक्ष्म या दैविक / मानसिक और तृतीय जैसा कि नाम से स्पष्ट ही है, स्वपरक या अनंता / अस्मिता / चेतना (consciousness) का आयाम है। प्रथम बिन्दुमात्र है, जिससे सब व्यक्त होकर पुनः जिसमें लौट जाता है। यह नेत्र और दृष्टि भी है। आयामशून्य भी है और सातों आयामों के रूप में व्यक्त स्वरूप भी ग्रहण करता है।

जैसे द्विआयामी भौतिक जगत में एक समतल पर एक सरल रेखा एक आयामी होती है, किन्तु दीर्घवृत्त या वृत्त द्विआयामी होता है। पुनः वृत्त एक-नेत्र (univocal) जबकि दीर्घ-वृत्त द्विनेत्र होता है।

इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं :

वृत्त में एक केन्द्र होता है जिसके चारों ओर एक बिन्दु के उससे समान दूरी पर परिभ्रमण करने से वृत्त की रचना होती है। इसी प्रकार एक समतल पर स्थित दो बिन्दुओं के चारों ओर घूमता हुआ एक बिन्दु जिसकी इन दोनों बिन्दुओं से दूरियों का योग स्थिर और सुनिश्चित हो, एक दीर्घवृत्त की रचना करता है। उदाहरण के लिए परिकर (compass) में एक पेन्सिल लगाकर जैसे एक वृत्त की रचना की जा सकती है, उसी तरह दो स्थिर बिन्दुओं के चारों ओर यदि एक बिन्दु इस प्रकार परिभ्रमण करने कि दोनों से उसकी दूरियों का योग सुनिश्चित हो तो हमें एक दीर्घवृत्त प्राप्त होगा। इस स्थिति में दीर्घवृत्त के दो केन्द्र या नेत्र हैं ऐसा कह सकते हैं। (वैसे यदि आपकी रुचि हो तो किसी कागज पर दो पिन लगाकर एक पेन्सिल और एक धागे की सहायता से भी धागे को पिनों के चारों ओर घुमाकर उसमें पेन्सिल रखकर एक दीर्घवृत्त की रचना कर सकते हैं।)

जैसे किसी त्रिआयामी वस्तु का चित्र द्विआयामी समतल पर बनाया जा सकता है, उसी प्रकार इस स्थूल भौतिक जगत् में चार आयामी स्व पुनः पुनः किसी भौतिक शरीर के तीन आयामों में व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है। यह चतुरानन चार आयामी सतह ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है

अब पुनः इस त्रिआयामी जगत में स्थित दो स्थूल पिण्डों का विचार करें। जैसे अभी हमने एक दीर्घवृत्त की रचना कैसे होती है इसे समझा, उसी प्रकार जब पदार्थ अनेक छोटे-बड़े पिण्डों में टूटता है तो विभिन्न पिण्डों के बीच गुरुत्व बल की शक्ति के अनुपात में या तो दोनों परस्पर मिल जाते हैं, या अपनी अपनी विशिष्ट दिशाओं की ओर जाते हैं। अब हम रॉकेट साइन्स का उदाहरण देखें - जब किसी रॉकेट को लॉन्च किया जाता है और जब वह एक निश्चित गति से पृथ्वी से दूर जा रहा होता है तो जैसे जैसे पृथ्वी से उसकी दूरी बढ़ती है, उस पर लगने वाला पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण बल तब तक क्षीण होता रहता है, जब तक कि रॉकेट पर लगनेवाला यह बल बिलकुल ही शून्य नहीं हो जाता। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल से बँधा रॉकेट फिर भी पृथ्वी की उस कक्षा से बाहर नहीं निकल पाता किन्तु उसकी दिशा अवश्य ही बदल जाती है और वह किसी वृत्ताकार या दीर्घवृत्ताकार कक्षा में पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटने लगता है।

पहले दिए गए वृत्त और दीर्घवृत्त की रचना से यह समझा जा सकता है कि कैसे विभिन्न उपग्रह किसी ग्रह के चारों ओर, और सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर किसी वृत्ताकार या दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में परिभ्रमण करते हैं।

इसे एक और प्रयोग कर आप अच्छी तरह यह देख भी सकते हैं कि कैसे ये सभी ग्रह एक ही समतल में स्थित होते हैं। एक लंबी रस्सी में थोड़ी थोड़ी दूरी पर छोटे-बड़े पत्थर बाँध दीजिए और रस्सी को एक सिरे से पकड़कर कुछ तेज तेज घुमाइये, जैसे कि बच्चे कभी कभी रस्सी के एक सिरे पर एक पत्थर बाँधकर खेल खेल में रस्सी को गोल गोल घुमाता हैं। आप देख सकते हैं कि रस्सी में बँधे सभी पत्थर एक ही समतल में रहते हुए केन्द्र के उस बिन्दु की परिक्रमा करने लगते हैं।

इसकी कल्पना मेरे मन में उस समय उठी जब मैं करीब नौ वर्षों पहले वाल्मीकि रामायण पढ़ रहा था जिसमें यह वर्णन है कि जब भगवान राम के कुल में उत्पन्न त्रिशंकु नामक उनका पूर्वज सशरीर देवलोक जाना चाहता थे और इसके लिए उन्होंने ऋषि विश्वामित्र की सहायता ली तो देवलोक अर्थात् सूर्य और उसके चारों तरफ परिक्रमा करनेवाले ग्रहदेवताओं ने इस पर आपत्ति की। किन्तु वे सभी ऋषि विश्वामित्र से डरते भी थे। अंततः इन्द्र आदि ने ऋषि की प्रार्थना की और उन्हें इसके लिए राजी किया कि राजा त्रिशंकु को उनके देवलोक के इस समतल से भिन्न तिर्यक् दिशा में स्थान दे दिया जाए। त्रिशंकु नाम से ही हम समझ सकते हैं कि यह राजा का नहीं, बल्कि उस अंतरिक्षयान का नाम है जिसमें तीन शंक्वाकार सिरे हों, जैसा कि आधुनिक उपग्रहों में भी देखा जा सकता है।

महर्षि कणाद ने इसी सिद्धान्त के आधार पर वैशेषिक दर्शन का आविष्कार किया जिसमें सामान्य और विशेष तत्वों का वर्णन है।

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