मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद)
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विचारणीय प्रश्न यह है कि जिसे बुद्धि कहा जाता है, और जिसके सक्रिय होने पर ही मस्तिष्क में विचार का कार्य होता है, वह नष्ट, विचलित या विलुप्त होने की स्थिति में क्या होता है? और पुनः जिन स्थितियों में यह हो सकता है, वह हैं जागृति, निद्रा, स्वप्न और मूर्च्छा। और इन सभी स्थितियों में भी मस्तिष्क अपना कार्य स्वचालित ढंग से करता ही रहता है। चेतन और अचेतन रूप से मस्तिष्क भी प्रकृति के अनुसार वैसे ही अपना कार्य करता रहता है जैसे शरीर के अन्य सभी अंग और कार्य प्रणालियाँ भी किया करते हैं। किन्तु बुद्धि का सम्पूर्ण कार्य "ज्ञात" या स्मृति पर ही अवलंबित होने से जैसे ही "ज्ञात" या स्मृति से कोई भी सूचना मिलना बंद हो जाता है, और बुद्धि को कार्य कर पाना संभव ही नहीं रह जाता है, तब यह प्रश्न ही नहीं रह जाता तब यह प्रश्न उठता है कि ऐसी किसी स्थिति में बुद्धि की क्या स्थिति होगी? और क्या तब बुद्धि स्तब्ध या कुंठित होकर अवरुद्ध या व्याकुल होकर रह जाती है? किन्तु जैसा कि प्रायः पाया जाता है, उस समय भी मनुष्य को यह भान हो सकता है कि बुद्धि ठिठक गई है और कुछ सोच सकने की स्थिति में नहीं है, या कि कुछ सूझ नहीं रहा है! किन्तु तब भी व्याकुलता, भय, चिन्ता या घबराहट भावना की तरह विद्यमान रह सकता है। इस मनःस्थिति में बुद्धि का अभाव तो नहीं हो जाता और यदि जागरूकता / ध्यान / अवधान स्थिर रहे, तो इसे ही बोध की तरह जान लिया जाता है। यद्यपि तब विचार कर पाना भी संभव न होता हो, फिर भी अपने अस्तित्व की सहज स्फूर्ति तो होती ही है। यही भान, जो विचार, भावना बुद्धि से विलक्षण वह अवस्था है जिसे द्वैतरहित अस्मिता या निजता भी कहा जा सकता है। चूँकि यह सदैव विद्यमान है और "समय" की कल्पना या सत्यता की तरह चूँकि तब स्वयं को दूसरे से भिन्न नहीं जाना जाता, इसलिए यह वह अपरोक्षानुभूति या दर्शन (immediate or non-mediate) है जिसे परम निष्कल आत्मज्ञान कह सकते हैं, जो मिथ्याज्ञान अर्थात् विपर्यय से भिन्न होता है।
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