शरीर, स्मृति और पहचान
क्या शरीर में स्मृति बनती, मिटती और रहती है या स्मृति में ही शरीर का भान प्रकट और विलुप्त होता रहता है? और प्रश्न यह भी है कि शरीर की पहचान स्मृति से होती है या स्मृति की पहचान शरीर से? और यह भी कि क्या शरीर और संसार / जगत् / विश्व दोनों एक दूसरे से भिन्न, स्वतन्त्र और अलग अलग दो वस्तुएँ हैं? यह तो स्पष्ट ही है कि जिन मूल भौतिक द्रव्यों से दोनों की रचना होती है वे दोनों समान, अनन्य और उभयनिष्ठ हैं।
और पुनः जिसे कि शरीर, संसार, स्मृति और पहचान का 'आभास' होता है, क्या वह इनमें से या इन सबसे भिन्न कोई या कुछ और होता है?
इसे समझने के लिए 'अनुभव' और 'अनुभवकर्ता' के बारे में देखना होगा। आभास और अनुभव दोनों एक दूसरे से अलग अलग दो वस्तुएँ हैं। 'आभास' होने की घटना में 'वह' जिसे कि 'आभास' होता है और जिसका 'आभास' होता है, कोई तीसरी वस्तु अर्थात् कोई माध्यम बीच में नहीं होता। 'आभास' शुद्ध संवेदनमात्र (perception) होता है, जबकि 'अनुभव', इन्द्रियों के माध्यम से होता है, इसलिए उस पर इन्द्रियों का रंग चढ़ा होता है। फिर यह "निजता" की प्रतीति, जो कि 'आभास' और "अनुभव" में समान और उभयनिष्ठ की तरह से पाई जाती है, क्या यह "निजता" -स्मृति, शरीर, संसार और अपने एक और व्यक्ति विशेष के रूप में होने की इन प्रतीतियों में से ही कोई एक या एक से अधिक का समूह होती है?
इसलिए ऐसा भी कहा जा सकता है कि 'आभास" और "अनुभव" के बीच जिस एक नई स्थिति का जन्म होता हो और जो कुछ नियत अति अल्प, अल्प या अपेक्षतया दीर्घ काल के बीत जाने के बाद विलीन हो जाती है, यही "अनुभवकर्ता" का वह सारतत्व है, जिसकी स्मृति "मैं" के रूप में मस्तिष्क में अंकित हो जाती है। और सतत ही बदलते हुए "अनुभवों" के क्रम में प्रत्येक "अनुभव" के साथ एक नये "अनुभवकर्ता" का जन्म होता है और उस "अनुभव" के बीतते ही यह "अनुभवकर्ता" भी विलीन हो जाता है। अर्थात् यह "अनुभवकर्ता" "अनुभव" नहीं, "आभास" मात्र होता है, जिसकी न तो स्मृति हो सकती है, न जो संवेदनगम्य (perceptible) ही हो सकता है।
समस्त "आभासों", "अनुभवों" और "अनुभवकर्ताओं" के आगमन और प्रस्थान के पहले, उस दौरान और उनके बाद जो आधारभूत पृष्ठभूमि इस सबसे अप्रभावित रह जाती है क्या उसे जाननेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा है सकता है?
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