Saturday, 30 November 2024

इशारों को अगर समझो!

राज को राज रहने दो!

राज खुलने का तुम पहले,

जरा अंजाम सोच लो!

इशारों को अगर समझो,

राज को राज रहने दो!! 

ये पंक्तियाँ किसी फिल्मी गीत में 1975 के आसपास सुनी थीं। स्कन्द पुराण में पाण्डवों के कुल में उत्पन्न हुए बर्बरीक का उल्लेख है। संभवतः यही बर्बरीक तुरग / तुर्क परंपरा में जाकर बबरक हो गया होगा। तुर्क शब्द का अर्थ है त्वरायुक्त जो अश्वों की एक प्रजाति-विशेष का सूचक है। 

अश्व वाजि हय घोटक घोड़ा तुरंग

ये सभी शब्द अश्वः के पर्याय हैं। और अंग्रेजी भाषा का शब्द  horse  भी अश्वः का ही वैसा ही अपभ्रंश मात्र है जैसे Yester-day  संस्कृत भाषा के ह्यः ह्यःतर दिव् का अपभ्रंश है।

बर्बरीक से बर्बर / बब्बर की व्युत्पत्ति ध्वनिसाम्य और अर्थसाम्य दोनों ही प्रकार से समझी जा सकती है। याद आता है ऋग्वेद मण्डल १ का सूक्त १६३ जिसमें अर्वन् / अर्वण् / अरब जाति की उत्पत्ति का स्पष्ट उल्लेख पाया जा सकता है।

वाल्मीकि रामायण में ऋषि वसिष्ठ की गौ और विश्वामित्र की सेना के बीच हुए युद्ध के समय उस गौ से उत्पन्न हुई विभिन्न मानव प्रजातियों जैसे म्लेच्छ या मलेच्छ, यवन,  बल-ओज -- बलोच, पुष्टाः -पश्तून, (Mlecca, Jew), शक आदि प्रजातियों का उल्लेख देखा जा सकता है। 

बाबर जो मुगल था, संभवतः उसका मंगोलिया से संबंध रहा होगा। यह सब अनुमान है। इन अनुमानों की पुष्टि वेदों, उपनिषद्, पुराणों, और स्मृतियों आदि ग्रन्थों से भी होती है।

संसार भर में प्रचलित भाषाओं की उत्पत्ति के बारे में भी इन तमाम ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन है।

श्रीमद्भगवद्गीता के पहले ही अध्याय में यह उल्लेख है कि महाभारत युद्ध में संपूर्ण पृथ्वी के भिन्न भिन्न राजाओं की 18 अक्षौहिणी सेना कुरुक्षेत्र के विस्तृत रणांगन पर युद्ध करने के लिए एकत्र हुई।

इसी तरह से भविष्य पुराण तथा दूसरे कुछ ग्रन्थों में भी भगवान् विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के प्राकट्य के बारे में संकेत प्राप्त होते हैं।

और अगर पिछले पाँच सौ वर्षों से भी अधिक समय से हो रही घटनाओं के क्रम को देखें तो स्पष्ट होगा कि यह सब ईश्वरीय विधान में पूर्व प्रायोजित जैसा है। हम सब तो उस दिव्य ईश्वरीय विधान से परिचालित मोहरे मात्र हैं और जैसी बुद्धि हमें प्राप्त होती है, उससे प्रेरित होते हुए विभिन्न कर्मों में संलग्न होते हैं। चाहकर या फिर न चाहते हुए भी हम किसी भी उस कर्म से संलग्न या विरत नहीं हो सकते जो हमारे माध्यम से होना होता है, और यद्यपि हम उसका औचित्य कर्तव्य और आदर्शों की कसौटी पर सिद्ध भी कर देते हैं पर हमारी इस कर्तृत्व बुद्धि से प्रेरित होकर ही वह कर्म हमसे घटित होता है और हमारा ध्यान इस ओर भी नहीं जा पाता कि समस्त कर्म अवधारणा है और न तो कहीं किसी कर्ता का ही अस्तित्व है, न किसी कर्म का। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५ के अनुसार :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।। 

और, यह रोचक है कि संपूर्ण गीता के प्रारंभ और अन्त के दो बिन्दुओं को अध्याय २ के ९ वें और अध्याय १८ के ५९ वें श्लोक में एक शब्द "योत्स्य" अर्थात् "योत्स्ये" में प्रयुक्त किया गया है -

सञ्जय उवाच --

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप। 

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

(अध्याय २)

तथा, 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैषः व्यवसायस्ते प्रकृतिस् त्वां नियोक्ष्यति।।५९।।

(अध्याय १८)

वर्ष 2019 के नवंबर माह में कोरोना-काल था, और जब एक स्थान पर किसी यज्ञ का अनुष्ठान सूर्यग्रहण के समय किया जा रहा था, 25 / 26 दिसंबर को जैसा ज्योतिषीय षड्ग्रही योग बन रहा था, वर्ष 2025 में भी उसी प्रकार का ज्योतिषीय योग बनने जा रहा है। और बहुत से ऐसे ज्योतिषी जिन्हें ज्योतिष का थोड़ा या फिर विशेष ज्ञान भी है, इसलिए अत्यन्त रोमांचित और होकर भविष्य में झाँकने की चेष्टा कर रहे हैं। जिनके पास समय है, ऐसे लोग भी जानने के लिए उत्सुक हैं कि तृतीय विश्वयुद्ध कब होगा, कौन बचेगा और कौन नहीं बचेगा ! चिन्ता, भय, रोमांच, विस्मय से हर कोई मुग्ध है।

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Sunday, 24 November 2024

SanAtana-DRShTi.

सनातन-दृष्टि / sanAtana-dRShTi.

A Vision-Document.

संसार में लौकिक और संकीर्ण दृष्टि से धन की तीन ही गतियाँ हैं -

दान, भोग और नाश। 

सभी कुछ नाशवान है।

किन्तु सनातन दृष्टि से अर्थात् वैदिक दृष्टि से धन पर्यायतः लक्ष्मी, पृथ्वी, सुख, उल्लास और शान्ति,  है, जिसकी छः सनातन, चिरन्तन गतियाँ हैं -

ये छः गतियाँ हैं -

दान, उपभोग, नाश, निवेश, विकास या विस्तार, एवं सृजन।

यह एक सनातन, सतत और अनादि, अन्तहीन प्रक्रिया है।

सांसारिक, लौकिक दृष्टि से यह संसार अजर-अमर है किन्तु आधिदैविक और आध्यात्मिक दृष्टि से यह नित्य और अजर-अमर है।

अनन्त ऐश्वर्य। जैसे सुन्दर, सुन्दरता और सौन्दर्य एक ही वस्तु हैं वैसे ही ईशिता, ईश्वर और ऐश्वर्य एक ही वस्तु हैं। और सभी वही एकमेव अद्वितीय दिव्य सत्ता हैं जो चेतना का एक महासागर है, जिसमें कि व्यक्तिरूपी अनादि और अन्तरहित असंख्य तरंगें अनवरत उठती और विलीन होती रहती हैं। 

व्यक्ति की दृष्टि से भी, व्यक्ति और उसका संसार, जिसमें असंख्य व्यक्ति और उनमें से प्रत्येक के ही असंख्य संसार होते हैं, ऐसा ही नित्य आत्मतत्व है।

व्यक्ति और व्यक्तियों के मध्य एक काल्पनिक सत्ता उभरती और मिटती रहती है जिसे "समाज" और "संसार" कहा और समझा जाता है। यह सत्ता न तो नित्य है, न ही अनित्य है बल्कि क्षण क्षण आभास के रूप में व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है। अतः आत्मा या ईश्वर की तुलना में यह "मिथ्या" ही है। सद्-असद्-विलक्षण।

यह स्वयं इसका प्रमाण न तो है और न ही हो सकती है। यह "विपर्यय" है -

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।। 

(समाधिपाद)

यह "विकल्प" है -

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

(समाधिपाद)

विपर्यय है - hypothesis

विकल्प है - कल्पना  / Imagination.

अतः पारमार्थिक दृष्टि से यह सब अनिर्वचनीय है।

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शब्दावली - Glossary

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धन - Wealth.

दान - Donate.

उपभोग -Consume.

नाश - Exhaust.

निवेश - Investment,

विकास और विस्तार - Divestment,

सृजन - Create/ Creation.

ईशिता - Governance.

ईश्वर - Affluence.

ऐश्वर्य - Prosperity.

संसार - World,

लौकिक - Worldly, Mundane.

चाणक्य का अर्थशास्त्र -

The Economy of Chinakya. 

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Friday, 22 November 2024

SanskRtA / संस्कृता

संस्कृताप्राकृतालौकिकाः

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स्वयंभू ब्रह्मा बभूव प्रभोः हरेः विष्णोः।

सृष्टा सैव योऽसृजत सृष्टिं चैव सरस्वतीम्।।१।।

सरस्वती सा विद्या, प्रकृतिः सैव या माया।

तया या सृष्टा वाणी सा बभूव या गिरा।।२।।

अपरोऽपि बभूव यो ब्रह्मणा सैव अन्गिरा

अङ्गिरा वा अङ्गिरसो रसवद्व्याप्त ब्रह्मणि।।३।।

तेन हि कल्पिता भाषा या वदन्ति पशवः सर्वे

सा वाग्च वाणी सा वैखरी अवगम्यते / निगद्यते।।४।।

संस्कृता हि सा वाणी या परिष्कृताऽपि तेनैव

संस्कृता ततो परावाणी प्राकृता इतरा बभूव।।५।।

संस्कृता प्राकृता चैव भाषे द्वे ये प्रकल्पिते।

अनयोर्द्वयोर्हि एकत्वं यतो द्वे परिकीर्तिते।।६।।

ब्राह्मी लिपिः सर्वत्र लक्षणरूपा सरस्वती

गिरा तु या ग्रीका बभूव अङ्गिरा या संस्कृता।।७।।

ऋग्वेदे प्रथममण्डले च शताधिके-षष्ठितृतीये

वर्णितं यत्रस्फुटं यदर्वणाः कुतः क्व बभूवुः।।८।।

भारद्वाजविनायकस्वामिना अद्य विरचितमिति

संस्कृताप्राकृतालौकिका भाषाष्टकं सम्पूर्णम्।।

श्री भगवते प्रीयताम्।।

फलश्रुति:

एताः त्रिभाषाः हि सर्वत्र लोकेऽस्मिन् प्रवर्तिता

अन्याः हि बहुलाः तदा जायन्ते प्रविलीयन्ते।।

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Tuesday, 19 November 2024

Kalki is a phenomenon.

The Known, The Knowledge, 

The Knower and the Knowing.

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पाजञ्जल योगसूत्र : समाधिपाद

सूत्र 17

वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञात:।।

।।१७।।

शाङ्करभाष्य

।।1.17।। 

वितर्कश्चित्तस्याऽऽलम्बने स्थूल आभोगः। सूक्ष्मो विचारः। आनन्दो ह्लादः। एकात्मिका संविदस्मिता। तत्र प्रथमश्चतुष्टयानुगतः समाधिः सवितर्कः। द्वितीयो वितर्कविकलः सविचारः। तृतीयो विचारविकलः सानन्दः। चतुर्थस्तद्विकलोऽस्मितामात्र इति। सर्व एते सालम्बनाः समाधयः।

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In the above commentary in Sanskrit, Sri Shankaracharya explains the kinds of the :

sampragnAta samAdhi, / सम्प्रज्ञात समाधि,  where the experience of ecstasy takes place and the three components of this experience are :

The Experiencing / feeling, The  "one" who supposed to goes through the "experience", and the memory / knowledge of this phenomenon is stored in the brain. These three aspects of the consciousness are the "experiencing", "experience" and "the one who goes through "the experience";

i. e. The "ego" - the sense of being "oneself / individual being. This sense persists throughout all such experiences, like a thread in a garland.

In comparison, when one "knows" this whole phenomenon of "experiencing", the "knowing" attains a higher level, and there,the "knower" is not the ego, but is the "consciousness" only, where one is "conscious".

This "conscious-one" is the underlying, immutable principle, whereas the sense of ego goes through change all the time, moment to moment.

The "knowing", the "knowledge" and the "knower" are the essential constituents of the "ego".

So Knowing is of these two types -

One as the Underlying principle and the another as the person, the individual or the "ego".

Accordingly,

वितर्क, विचार, आनन्द  and the अस्मिता  are the four kinds through which such an ecstasy takes place.

This ecstasy is always "time-bound" a state of mind and howsoever exalted and deep, ultimately has to go away.

Now to understand these four kinds we can see four examples :

वितर्क :

This happens in an instant because of some pleasure, shock, excitement, thrill or any other such experience. Even as in deep sleep where one is asleep with great joy and happiness, this bliss persists.

विचार : 

This type is enjoyed by a philosopher, an artist, a mathematician, a scientist and even by a poet, where one feels great joy, exhilaration and for the moment it is like an ecstasy.

आनन्द :

This is the very normal state of the mind  of the well-being and enjoying the peace within oneself that too is lost after some time. Though the memory persists.

अस्मिता :

This is where and when one feels oneself and claims as the unique, the only entity "Who" performs certain actions, "Who" enjoys or suffers the various joys and sorrows, pleasures and pains, and the consequences of one's own or others' deeds.

One "Who" has this memory,  information, memory and the knowledge accordingly, a man of knowledge or an ignorant one.

The last kind is the one, "Who" through the sense of "one-self" possesses and is possessed by one's belongings.

In the Vedanta these four are known as  कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता and स्वामी .

Knowing is therefore the consciousness in the two forms as follows :

The first is awareness, while the another is information, memory, recognition.

The "knowing" is independent of "Time" and Time-interval, but the information, recognition and memory are subject to, and with reference to a Time-interval, and cause the illusion in terms of  all the  memory, thought and information.

You are always and ever so Timelessly conscious of things within or without the objects in the mind, that are perceived in the consciousness, independent of the information, memory or the recognition of those objects.

Consciousness is therefore a state of being conscious either with or without the objects in consciousness.

Consciousness is therefore knowing, but it's not a process related to the objects of the attention, whereas the knowing as in the form of the knowledge, information or memory takes place in a certain and a "measurable" Time-interval.

Again, the so-called Time-interval and the "Time" too have only a hypothetical existence, have no substance or essence beyond thought.

"Thought" is though inevitably always a process, subject to and in the assumed,  hypothetical Time.

Therefore "knowing" as consciousness is of two types :

Unrelated to Time and Time-interval, and within and without regard to this "assumed" Time and Time-interval.

The question : "What is Time?"

is therefore a most important and a  relevant question.

Tested on the criteria of the aphorism / Sutra :

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।1.8।।

and the next

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।1.9।।

we see that this hypothetical "Time" is but a word वस्तुशून्यो विकल्पः, with no substance and essence any.

Thought, Thinking and the Thinker.

वितर्कश्चित्तस्याऽऽलम्बने स्थूल आभोगः। सूक्ष्मो विचारः। आनन्दो ह्लादः। एकात्मिका संविदस्मिता। तत्र प्रथमश्चतुष्टयानुगतः समाधिः सवितर्कः। द्वितीयो वितर्कविकलः सविचारः। तृतीयो विचारविकलः सानन्दः। चतुर्थस्तद्विकलोऽस्मितामात्र इति। सर्व एते सालम्बनाः समाधयः।

Who is Kalki /  कल्कि

कलयति स कल्कि। - One who calculates. 

One Who "thinks or thinks over, ponders over is Kalki"., as is evident from the use of the word -  वितर्कविकलः

in the above commentary .

The era of Kalki is "Kalkiyuga or "Kaliyuga".

Presently there is much talk of arrival of the Kalki avatAra of ViShNu. Though all and every state of manifestation is truly  an avatAra of ViShNu, and we tend to believe that we all experience a "common world" , there is not, nor could be such any common world. Knowing the Reality thus helps us in transcending the virtual Reality and then the Absolute Reality shines before us where all differences cease to exist.

The state transcending all apparent states of being oneself and thinking oneself as the other than the world is called Brahman or the Atman  The Transcendent Truth. 

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Saturday, 16 November 2024

Two Instances.

Yesterday  and Tomorrow.

This moment that is Now, has neither a past nor any future. The past and the future appear and disappear only in the form of a thought.

Thought arises and dissolves and in between there is silence from where thought emerges out and then merges into. This silence never emerges out nor dissolves. While Thought manifests and assumes a form, it is known in that silence but there is no-one who exists other than the Thought,

Thought itself creates the illusion of one who is supposed to be the independent Thinker .

As in the absence of Thought there is no any such a Thinker, but the continuity of two or more thoughts is responsible for this illusion. Only a silent and watchful mind though can but see how because of the In-attention or the lack of attention, in the absent-mindedness, a spurious Thinker appears to exist.

This is no effort or seeking at all.

What is before the emergence of Thought, during the happening of the Thought and when the Thought has been replaced by yet another Thought, is the one and the same unique underlying principle that neither emerges nor subsides.

So-called Past and Future are but the names of the hypothetical states happening in the timeless present / now. 

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Thursday, 7 November 2024

Idolaters / प्रतिमा पूजक

Iconoclast and The Idolaters.

वह अनिर्वचनीय, दिव्य, चिरन्तन और शाश्वत परम ईश्वरीय सत्ता!

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जिसने भी अपने भीतर-बाहर उस दिव्य चिरन्तन सत्ता का साक्षात्कार कर लिया उसे यद्यपि उसकी कोई प्रतिमा बनाने की आवश्यकता न रही हो, किन्तु केवल उस सत्ता के प्रति केवल अनुग्रह और अहोभाव प्रकट करने ही के लिए शायद उसकी ऐसी कोई प्रतिमा बना भी सकता है।

किन्तु वह, जिसने अपने भीतर या बाहर भी ऐसी किसी सत्ता का साक्षात्कार नहीं किया हो निरन्तर ही दुराग्रह से प्रेरित, सशंकित, असंतुष्ट और क्षुब्ध रहने से यह कभी समझ भी नहीं सकता और प्रतिमा-पूजा करनेवाले के प्रति क्रोध, द्वेष और संभवतः ईर्ष्या से भी ग्रस्त होकर स्वयं अपने ही महाविनाश को आमंत्रित करता है। दूसरी ओर, प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करनेवाला इस सबसे अप्रभावित और अक्षुब्ध रहकर निर्विकार, उदासीन भाव से उस सत्ता के प्रेम में उससे अनन्य हो उसमें ही निमग्न रहता है। और तब भी संसार में भी बस आश्चर्य विमुग्ध होकर, उस सत्ता के ही दर्शन किया करता है। 

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Saturday, 2 November 2024

बहुत पुराना एक प्रश्न!

अभिषेक तिवारी शो 

कभी कभी मेरे दिल में सवाल उठता है!  

2009 से मैंने कंप्यूटर पर ब्लॉग लिखना शुरू किया था।  उद्देश्य केवल यही था कि इस माध्यम को कैसे प्रयोग में लाया जाता है यह समझ सकूँ। इस वीडियो को देखते हुए वह प्रश्न जो मेरे मन में पुनः उठा। मुझे लगता है कि भगवान की भक्ति करते करते संयोगवश क्या कोई कथावाचक बन सकता है? 

वैसे मैंने कभी इस पर नहीं सोचा क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो हर किसी का अपना अपना स्वभाव है। मैं यह भी सोचता हूँ कि अपनी प्रबल आन्तरिक प्रेरणा से मैंने श्री निसर्गदत्त महाराज के मराठी निरूपणों (शिक्षाओं) के स्व. मॉरिस फ्रीडमन द्वारा किए गए अंग्रेजी में किए गए संकलन -

 I AM THAT 

को ठीक से पढ़ने और अच्छी तरह से समझने की दृष्टि से ही इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया था, जिसे वर्ष 2001 में चेतना प्रकाशन मुम्बई,

chetana.com Mumbai 

ने  अहं ब्रह्मास्मि शीर्षक से प्रकाशित किया।

वैसे यह भी सच है कि मुझे किसी भी प्रकार से और किसी से भी धर्म और अध्यात्म की चर्चा करने में कदापि कोई रुचि नहीं है। और न ही किसी का फॉलोवर (follower) या फैन (fan) बनने में ही मेरी जरा सी भी रुचि है। मैं किसी भी प्रकार का धार्मिक या आध्यात्मिक प्रवचन भी नहीं करता। किसी से कोई विवाद भी नहीं करना चाहता। किसी की आलोचना, निन्दा या प्रशंसा भी नहीं करता। वैसे मैंने अनुवादक की भूमिका में कुछ विशिष्ट रचनाओं का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद भी किया है जिन्हें अपने ब्लॉग्स में प्रस्तुत भी किया है किन्तु मैंने न तो किसी प्रकार से ब्लॉग्स को  monetize  ही किया है, न कभी अपने अनुवाद कार्य के लिए पारिश्रमिक की मांग ही किसी से कभी की। यद्यपि मुझे कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन से तथा श्री रमण आश्रम से कुछ आर्थिक सहयोग 

honorarium  या  remuneration 

के रूप में अवश्य प्राप्त हुआ है जो किसी भी दृष्टि से मेरे द्वारा मेरे लिए किए जानेवाले दिन प्रतिदिन के आवश्यक व्ययों की पूर्ति के लिए अल्पप्नराय ही है, और मैं तो उसे केवल प्रसाद-भाव से ही अमूल्य मानकर स्वीकार / शिरोधार्य करता हूँ।

किन्तु अभिषेक तिवारी के उपरोक्त लिंक को देखने पर इस बारे में जरूर यह प्रश्न मेरे मन में आया कि

क्या धर्म और अध्यात्म मनोरंजन और प्रचार प्रसार का विषय, आजीविका या व्यवसाय हो सकता है?

धर्म और अध्यात्म क्या व्यक्ति की अपनी उत्कंठा, उत्सुकता, और खोज नहीं होता? हो सकता है कि इसके लिए वह किसी गुरु या सम्प्रदाय से जुड़े किन्तु तब इसका प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता ही कहाँ हो सकती है?

मुझे लगता है कि धर्म और अध्यात्म का प्रचार प्रसार करने की कल्पना ही नितान्त अधार्मिक और हेय है। हाँ आप धर्म और अध्यात्म की रक्षा करने के लिए कुछ करें तो वह अवश्य स्तुत्य और सराहनीय भी है।

पिछले 1000 वर्षों में जिस प्रकार सनातन धर्म पर विदेशियों और विधर्मियों द्वारा आक्रमण और आघात किया जाता रहा है, उसका प्रतिरोध किया जाना तो हमारा पावन कर्तव्य ही होना चाहिए। कथावाचक क्या इस भूमिका का बेहतर निर्वाह नहीं कर सकते?

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