अभिषेक तिवारी शो
कभी कभी मेरे दिल में सवाल उठता है!
2009 से मैंने कंप्यूटर पर ब्लॉग लिखना शुरू किया था। उद्देश्य केवल यही था कि इस माध्यम को कैसे प्रयोग में लाया जाता है यह समझ सकूँ। इस वीडियो को देखते हुए वह प्रश्न जो मेरे मन में पुनः उठा। मुझे लगता है कि भगवान की भक्ति करते करते संयोगवश क्या कोई कथावाचक बन सकता है?
वैसे मैंने कभी इस पर नहीं सोचा क्योंकि मुझे लगता है कि यह तो हर किसी का अपना अपना स्वभाव है। मैं यह भी सोचता हूँ कि अपनी प्रबल आन्तरिक प्रेरणा से मैंने श्री निसर्गदत्त महाराज के मराठी निरूपणों (शिक्षाओं) के स्व. मॉरिस फ्रीडमन द्वारा किए गए अंग्रेजी में किए गए संकलन -
I AM THAT
को ठीक से पढ़ने और अच्छी तरह से समझने की दृष्टि से ही इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद किया था, जिसे वर्ष 2001 में चेतना प्रकाशन मुम्बई,
chetana.com Mumbai
ने अहं ब्रह्मास्मि शीर्षक से प्रकाशित किया।
वैसे यह भी सच है कि मुझे किसी भी प्रकार से और किसी से भी धर्म और अध्यात्म की चर्चा करने में कदापि कोई रुचि नहीं है। और न ही किसी का फॉलोवर (follower) या फैन (fan) बनने में ही मेरी जरा सी भी रुचि है। मैं किसी भी प्रकार का धार्मिक या आध्यात्मिक प्रवचन भी नहीं करता। किसी से कोई विवाद भी नहीं करना चाहता। किसी की आलोचना, निन्दा या प्रशंसा भी नहीं करता। वैसे मैंने अनुवादक की भूमिका में कुछ विशिष्ट रचनाओं का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद भी किया है जिन्हें अपने ब्लॉग्स में प्रस्तुत भी किया है किन्तु मैंने न तो किसी प्रकार से ब्लॉग्स को monetize ही किया है, न कभी अपने अनुवाद कार्य के लिए पारिश्रमिक की मांग ही किसी से कभी की। यद्यपि मुझे कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन से तथा श्री रमण आश्रम से कुछ आर्थिक सहयोग
honorarium या remuneration
के रूप में अवश्य प्राप्त हुआ है जो किसी भी दृष्टि से मेरे द्वारा मेरे लिए किए जानेवाले दिन प्रतिदिन के आवश्यक व्ययों की पूर्ति के लिए अल्पप्नराय ही है, और मैं तो उसे केवल प्रसाद-भाव से ही अमूल्य मानकर स्वीकार / शिरोधार्य करता हूँ।
किन्तु अभिषेक तिवारी के उपरोक्त लिंक को देखने पर इस बारे में जरूर यह प्रश्न मेरे मन में आया कि
क्या धर्म और अध्यात्म मनोरंजन और प्रचार प्रसार का विषय, आजीविका या व्यवसाय हो सकता है?
धर्म और अध्यात्म क्या व्यक्ति की अपनी उत्कंठा, उत्सुकता, और खोज नहीं होता? हो सकता है कि इसके लिए वह किसी गुरु या सम्प्रदाय से जुड़े किन्तु तब इसका प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता ही कहाँ हो सकती है?
मुझे लगता है कि धर्म और अध्यात्म का प्रचार प्रसार करने की कल्पना ही नितान्त अधार्मिक और हेय है। हाँ आप धर्म और अध्यात्म की रक्षा करने के लिए कुछ करें तो वह अवश्य स्तुत्य और सराहनीय भी है।
पिछले 1000 वर्षों में जिस प्रकार सनातन धर्म पर विदेशियों और विधर्मियों द्वारा आक्रमण और आघात किया जाता रहा है, उसका प्रतिरोध किया जाना तो हमारा पावन कर्तव्य ही होना चाहिए। कथावाचक क्या इस भूमिका का बेहतर निर्वाह नहीं कर सकते?
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