Iconoclast and The Idolaters.
वह अनिर्वचनीय, दिव्य, चिरन्तन और शाश्वत परम ईश्वरीय सत्ता!
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जिसने भी अपने भीतर-बाहर उस दिव्य चिरन्तन सत्ता का साक्षात्कार कर लिया उसे यद्यपि उसकी कोई प्रतिमा बनाने की आवश्यकता न रही हो, किन्तु केवल उस सत्ता के प्रति केवल अनुग्रह और अहोभाव प्रकट करने ही के लिए शायद उसकी ऐसी कोई प्रतिमा बना भी सकता है।
किन्तु वह, जिसने अपने भीतर या बाहर भी ऐसी किसी सत्ता का साक्षात्कार नहीं किया हो निरन्तर ही दुराग्रह से प्रेरित, सशंकित, असंतुष्ट और क्षुब्ध रहने से यह कभी समझ भी नहीं सकता और प्रतिमा-पूजा करनेवाले के प्रति क्रोध, द्वेष और संभवतः ईर्ष्या से भी ग्रस्त होकर स्वयं अपने ही महाविनाश को आमंत्रित करता है। दूसरी ओर, प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा करनेवाला इस सबसे अप्रभावित और अक्षुब्ध रहकर निर्विकार, उदासीन भाव से उस सत्ता के प्रेम में उससे अनन्य हो उसमें ही निमग्न रहता है। और तब भी संसार में भी बस आश्चर्य विमुग्ध होकर, उस सत्ता के ही दर्शन किया करता है।
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