Thursday, 10 December 2015

कर्ता / कर्म की स्वतंत्रता

कर्म की स्वतंत्रता 
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क्या मनुष्य कर्म करने / न-करने के लिए स्वतंत्र है? 
कर्म क्या है? क्या कर्म का विचार कर्म है? बुद्धि के द्वारा कर्म की अवधारणा जन्म लेती है । कोई भी घटना, घटना का विचार करने पर ही 'कर्म' का रूप ग्रहण कर लेती है । इस प्रकार घटना और कर्म विचार में ही परिभाषित किए जाते हैं और विचार के अभाव में उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । 
पुनः विचार भी स्मृति के अभाव में अस्तित्वमान नहीं हो हो सकते ।जबकि अस्तित्व न तो स्मृति का विषय है, न स्मृति तक उसे सीमित किया जा सकता है । किन्तु प्रायः हर मनुष्य इस सरल से तथ्य से अनभिज्ञ होता है, इसलिए स्मृति का आधार लेकर वह अपना एक काल्पनिक अस्तित्व, रच लेता है जिसे वह ’संसार और मैं’ कहता है । इस संसार में वह अपने मन, शरीर में घटनेवाली घटनाओं में से कुछ के लिए अपने को उनका करनेवाला अर्थात् कर्ता मान बैठता है । यह ’मान बैठना’ एक स्थायी विचार के रूप में उसकी शेष सारी गतिविधियों की स्थिर प्रतीत होनेवाली नींव बन जाता है । इसकी औपचारिक (Formal) और व्यावहारिक उपयोगिता (practical utility ) से इनकार नहीं किया जा सकता जबकि इसकी सत्यता और स्वतंत्र अस्तित्व नहीं पाया जा सकता । और इसके इस आश्चर्यजनक यथार्थ को समझ लेने पर मन इसकी यातना से छूट जाता है । तब, जैसे मृग-मरीचिका (Mirage) को देख लेने और यह जान लेने के बाद भी कि वह प्रकाश के ’पूर्ण आंतरिक परावर्तन की घटना’ (Total internal reflection as in Optics) के कारण दिखलाई देता है, वहाँ पर दिखलाई देनेवाला जल यथावत् दिखलाई देता रहता है, वैसे ही ’संसार और मैं’ ’घटना’, ’कर्म’, ’मैं’ , ’कर्ता’ ये सभी ’विचार-रूप’ में यद्यपि औपचारिक (Formal) और उपयोगिता (utilitarian) की दृष्टि से दिखलाई देते रहते हैं, किन्तु उन्हें विचार-मात्र (thought-form) जानने पर उनका दंश मिट जाता है । तब ’कर्म’ और ’कर्ता’ को अस्तित्व की अभिव्यक्ति (Manifestation) के असंख्य प्रकार मानकर उनकी क्रीडा का बस केवल दर्शन भर करते हुए रोमांचित हुआ जा सकता है
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