तो, मैं क्या करूँ?
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सहिष्णुता का अर्थ है सभी का सम्मान, न कि दिखावटी तुष्टीकरण जो कि आगे जाकर न सिर्फ़ दूसरों के साथ बल्कि खुद के साथ भी धोखा सिद्ध होता है । और एक-दूसरे के प्रति यह ’सम्मान’ तभी ’स्वाभाविक’ रूप से हममें होगा जब हमारे हृदय में परस्पर अविश्वास का रंचमात्र भी न हो । अनेक कारणों से मानवता के रूप में हमारे सामूहिक ’अतीत’ ने हमें अनेक स्तरों पर अनेक वर्गों, समुदायों में बाँट दिया है, ’राष्ट्र’, ’धर्म’, ’नस्ल’, ’जाति’ ’संपत्ति के स्वामित्व’ और समाज, भाषाएँ, ’संस्कृति’ ’इतिहास’ और परंपरा, रूढ़ियों, संस्कारों ने हममें से प्रत्येक मनुष्य को भिन्न-भिन्न धरातलों पर एक दूसरे से असंबद्ध कर दिया है । इस प्रकार एक स्तर पर मैं हिन्दू होता हूँ, तो दूसरे स्तर पर गुजराती या तमिल, किसी दूसरे स्तर पर मैं होता हूँ, शाकाहारी या मांसाहारी, स्त्री या पुरुष, आस्तिक, नास्तिक, या अनीश्वरवादी, होता हूँ, शादीशुदा या अविवाहित, गरीब, अमीर या मध्यम-वर्ग का, पढ़ा-लिखा या अनपढ़, अपने आचार-विचार से मैं मेरे जैसे ही, फ़िर भी मुझसे बहुत भिन्न प्रकार के दूसरे अनेक लोगों के बीच रहता हूँ । एक ओर किसी समुदाय से अपने को जोड़ना मुझे जीवन जीने के लिए अपरिहार्यतः आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि तब मैं अपने जैसे दूसरे कुछ लोगों के साथ रहते हुए अपने-आपको अधिक ’सुरक्षित’ महसूस करता हूँ, वहीं इस तथ्य की ओर से मैं आँखें बंद कर लेता हूँ कि मेरे विशिष्ट ’समुदाय’ से विपरीत या भिन्न विश्वासों, आचार-विचारों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं को माननेवाले भी दूसरे अनेक ’समुदाय’ हैं जो मुझे नापसंद करते हैं, शायद घृणा भी करते हों, जो मुझ पर अविश्वास करते हैं और मुझसे भय भी अनुभव करते हैं । ’मुझसे’ अर्थात् ’मेरे समुदाय’ से । और जब तक इस प्रकार के बहुत से समुदाय हैं उनमें परस्पर विरोध, अविश्वास, सन्देह और शक की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता । और तब तक किसी ’समाज’ में व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों के बीच अन्तर्द्वन्द्व न हो यह कैसे संभव है? जैसे मैं ’अपने’ राष्ट्र, देश, जाति या धर्म के लिए प्राण तक न्यौछावर करने में गौरव अनुभव करता हूँ, क्या मेरे जैसे और भी अनेक नहीं हैं जो सहर्ष इसके लिए आगे आते हैं? क्या यह सब मनुष्यता के लिए अन्ततः आत्मघाती ही नहीं सिद्ध होता है? आप यह कह सकते हैं कि यदि हर कोई ऐसा ही सोचे तब तो अवश्य ही समग्र मानवता के लिए कुछ किया जा सकता है, किन्तु कुछ लोग ऐसे भी अवश्य हैं जो अपनी शिक्षा-दीक्षा, संस्कारों के दबाव, प्रभाव या उनसे अभिभूत होने के कारण आपकी बात सुनेंगे तक नहीं, वे तो मौका मिलते ही या जरूरी महसूस होते ही आपको भी आतंकवादी हमले का शिकार बना सकते हैं । और मुझे लगता है कि आपके इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता । किन्तु इसका अर्थ यह भी है कि हम सामूहिक आत्मघात की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं इसे भी नहीं झुठलाया जा सकता । और अगर यह सत्य है तो मुझे दुःख ही होगा, खुशी तो कम से कम हर्गिज़ नहीं होगी । किन्तु फिर भी इतनी तसल्ली तो रहेगी ही कि उस महाविनाश के लिए मैं उत्तरदायी नहीं था ।
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सहिष्णुता का अर्थ है सभी का सम्मान, न कि दिखावटी तुष्टीकरण जो कि आगे जाकर न सिर्फ़ दूसरों के साथ बल्कि खुद के साथ भी धोखा सिद्ध होता है । और एक-दूसरे के प्रति यह ’सम्मान’ तभी ’स्वाभाविक’ रूप से हममें होगा जब हमारे हृदय में परस्पर अविश्वास का रंचमात्र भी न हो । अनेक कारणों से मानवता के रूप में हमारे सामूहिक ’अतीत’ ने हमें अनेक स्तरों पर अनेक वर्गों, समुदायों में बाँट दिया है, ’राष्ट्र’, ’धर्म’, ’नस्ल’, ’जाति’ ’संपत्ति के स्वामित्व’ और समाज, भाषाएँ, ’संस्कृति’ ’इतिहास’ और परंपरा, रूढ़ियों, संस्कारों ने हममें से प्रत्येक मनुष्य को भिन्न-भिन्न धरातलों पर एक दूसरे से असंबद्ध कर दिया है । इस प्रकार एक स्तर पर मैं हिन्दू होता हूँ, तो दूसरे स्तर पर गुजराती या तमिल, किसी दूसरे स्तर पर मैं होता हूँ, शाकाहारी या मांसाहारी, स्त्री या पुरुष, आस्तिक, नास्तिक, या अनीश्वरवादी, होता हूँ, शादीशुदा या अविवाहित, गरीब, अमीर या मध्यम-वर्ग का, पढ़ा-लिखा या अनपढ़, अपने आचार-विचार से मैं मेरे जैसे ही, फ़िर भी मुझसे बहुत भिन्न प्रकार के दूसरे अनेक लोगों के बीच रहता हूँ । एक ओर किसी समुदाय से अपने को जोड़ना मुझे जीवन जीने के लिए अपरिहार्यतः आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि तब मैं अपने जैसे दूसरे कुछ लोगों के साथ रहते हुए अपने-आपको अधिक ’सुरक्षित’ महसूस करता हूँ, वहीं इस तथ्य की ओर से मैं आँखें बंद कर लेता हूँ कि मेरे विशिष्ट ’समुदाय’ से विपरीत या भिन्न विश्वासों, आचार-विचारों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं को माननेवाले भी दूसरे अनेक ’समुदाय’ हैं जो मुझे नापसंद करते हैं, शायद घृणा भी करते हों, जो मुझ पर अविश्वास करते हैं और मुझसे भय भी अनुभव करते हैं । ’मुझसे’ अर्थात् ’मेरे समुदाय’ से । और जब तक इस प्रकार के बहुत से समुदाय हैं उनमें परस्पर विरोध, अविश्वास, सन्देह और शक की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता । और तब तक किसी ’समाज’ में व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों के बीच अन्तर्द्वन्द्व न हो यह कैसे संभव है? जैसे मैं ’अपने’ राष्ट्र, देश, जाति या धर्म के लिए प्राण तक न्यौछावर करने में गौरव अनुभव करता हूँ, क्या मेरे जैसे और भी अनेक नहीं हैं जो सहर्ष इसके लिए आगे आते हैं? क्या यह सब मनुष्यता के लिए अन्ततः आत्मघाती ही नहीं सिद्ध होता है? आप यह कह सकते हैं कि यदि हर कोई ऐसा ही सोचे तब तो अवश्य ही समग्र मानवता के लिए कुछ किया जा सकता है, किन्तु कुछ लोग ऐसे भी अवश्य हैं जो अपनी शिक्षा-दीक्षा, संस्कारों के दबाव, प्रभाव या उनसे अभिभूत होने के कारण आपकी बात सुनेंगे तक नहीं, वे तो मौका मिलते ही या जरूरी महसूस होते ही आपको भी आतंकवादी हमले का शिकार बना सकते हैं । और मुझे लगता है कि आपके इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता । किन्तु इसका अर्थ यह भी है कि हम सामूहिक आत्मघात की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं इसे भी नहीं झुठलाया जा सकता । और अगर यह सत्य है तो मुझे दुःख ही होगा, खुशी तो कम से कम हर्गिज़ नहीं होगी । किन्तु फिर भी इतनी तसल्ली तो रहेगी ही कि उस महाविनाश के लिए मैं उत्तरदायी नहीं था ।
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