कविता : 23 06 2023
कल का सपना कुछ अजीब था,
न कोई दूर था, और न ही, क़रीब था!
एक माहौल वो, जिसमें कि मैं भी था,
मेरे जैसा ही उन सबका भी नसीब था।
वैसे हर कोई ही था ही बहुत दौलतमंद,
हर कोई ही, लेकिन बहुत गरीब था!
कोई नाकामयाब या फिर था कामयाब,
कोई शायर, कोई रिसाला-ए-अदीब था।
कोई नज़ूमी था तो और कोई था नद़ीम,
कोई किसी का दोस्त, कोई रक़ीब था।
सपना भी टूट गया, नींद भी टूट गई,
टूट गया वो भी, जो वक्त का ज़रीब था!
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