Monday, 29 September 2025

The Seed

जिज्ञासा : बीजमंत्र क्या होता है, कभी समय मिले तो इस विषय पर अपने ब्लॉग में प्रकाश डालिएगा।

उत्तर : संस्कृत भाषा में निम्नलिखित ३३ बीजाक्षर अर्थात् मूल वर्ण होते है -

क ख ग घ ङ

च छ ज झ ञ

ट ठ ड ढ ण

त थ द ध न

प फ ब भ म

य र ल व श

ष स ह

इनके साथ कोई लघुप्राण या महाप्राण स्वर लगाने पर बीजमंत्र बनता है।

ये ३३ वर्णाक्षर ही ३३ कोटि के देवता हैं। स्वर ही प्राण हैं।  प्राण (शक्ति) और चेतना (ज्ञान) मिलने पर ही देवता तत्व सक्रिय हो सकता है। एक विशेष वर्ण ॐ है जिसमें केवल स्वर होते हैं।

इस प्रकार कोई बीजाक्षर या बीजमंत्र उस विशिष्ट देवता का मंत्रात्मक स्वरूप होता है, जिसके और भी नाम हो सकते हैं जैसे

ॐ गं गणपतये नमः।। 

इस मंत्र में ॐ व्याहृति है, गं बीजाक्षर या बीजमंत्र है जिसका देवता गणपति है।

इस प्रकार कोटि कोटि मंत्र हैं।

यदि संस्कृत के मूल वर्णों के स्थान पर लौकिक वर्णों का प्रयोग किया जाए तो ऐसे भी बहुत मंत्र हर भाषा में पाए जाते हैं। उनके देवता भी आधिभौतिक होते हैं न कि आधिदैविक जो कि ३३ कोटि के होते हैं। इन्हें डाबर, शाबर, डाकिनी, शाकिनी कहा जाता है। इनकी संख्या अनगिनत है।

सवाल यह है,

आप इस जानकारी का क्या उपयोग करेंगे?

संस्कृत भाषा  में "सीद्" धातु का प्रयोग "बैठने" के अर्थ में होता है जैसे गीता अध्याय १ में दृष्टव्य है -

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यते।

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।२९।।

अंग्रेजी के  sit, sedan, sedantery,  इसी के सज्ञात / सजात,  अपभ्रंश  cognate  हैं। 

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Saturday, 27 September 2025

Name and Form

नाम-रूपात्मकमिदं

नाम-रूपात्मकमिदं यच्च श्रूयते दृश्यते वा सर्वम्।

जागृतिस्वप्नसुषुप्त्यां वृत्तिरूपात्मके जगति।।१

नाम श्रूयते ध्वनिभिः रूपं दृश्यते आकृतिभिः।

द्वयोर्संघातं प्राणश्चेतनाद्वयी गमयति अत्र तत्र।।२।।

रंध्रमये अस्मिञ्जगति विचरत्यसौ कालस्थाने।

देहे नाडीभिर्मनसि वृत्तिभिः आत्मभिश्च हृदये।।३।।

अतो हि लोके लोके मनसि नामरूपौ वर्तेते।

यथा हि सर्पिणी संचरति विचरति बिलसहस्रे।।४।।

एवं नाड्यां नाड्यां सहस्र्यां सञ्चरति यत्र तत्र

तथा हि जीवो अनुसरति संचरति जगति रंध्रे।।५।।

एको हि रंध्रं व्याप्तं अपि सहस्रेषु रंध्रेषु तेषु।

ब्रह्मरंध्रमुच्यते इति नाम्ना ज्ञायते कथ्यतेऽपि।।६।।

व्यष्टिः पिण्डे पिण्डं ब्रह्माण्डे, ब्रह्माण्डं ब्रह्मणि।

जन्मनि जन्मनि गच्छति विरति सञ्चरति।।७।।

क्लेशं भजत्यनुभूयते अनुभवत्यपि सर्वत्र।

वा अपि ब्राह्ममुहूर्ते लब्ध्वा व्यावृत्तं ब्रह्मरंध्रम्।।८।।

प्रविशत्यनवधाने तत्र यदा सुषुप्तिमपि कदापि। 

अथ वा अवधानं भजत्वा यदा ब्रह्मरंध्रे तदापि।।९।।

न पुनरावर्तति अस्मिञ्जगति मनसि वा पिण्डे।

प्रलीयते तस्मिन् ब्रह्मणि एवं तथा ब्रह्मभूत्वा।।१०।।

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Friday, 26 September 2025

The Desires

इच्छा की उम्र 
गीता अध्याय ७
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -

हे अर्जुन! सभी भूत प्राणी उनके अपने संसार में इच्छा और द्वेष से ही प्रेरित / बाध्य होकर किसी  व्यक्ति-विशेष के रूप में जन्म लेते हैं। अर्थात् हर कोई इस प्रकार उसके अपने जन्म से ही किसी न किसी इच्छा को साथ लेकर ही जन्म लेता है और जीवन में किसी समय पर उसे और अधिक जीते रहने की इच्छा नहीं रह जाती है। तात्पर्य यह कि यद्यपि वह मर जाना तो नहीं चाहता पर उसकी कोई ऐसी इच्छा फिर भी शेष रह जाती है जो अपूर्ण रह गई होती है। उसकी जो भी ऐसी इच्छाएं अपूर्ण रह जाती हैं, वे सभी मृत्यु आने पर मर जाती हैं, या उनमें से कुछ या कम से कम एक यह इच्छा तो रह ही जाती है कि मुझे पुनः जन्म लेना है। इसी प्रकार जिन किन्हीं वस्तुओं और स्थितियों से वह असंतुष्ट होता है, उनसे उसे फिर सामना न करना पड़े, उसकी यह इच्छा भी शेष रह जाती है, क्योंकि इन इच्छाओं की उम्र उसकी उम्र से अधिक होती है। यदि मृत्यु होने के समय उसकी सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हों, तो फिर उसके पुनः जन्म लेने की संभावना भी समाप्त हो जाती है। तब वह परमात्मा में विलीन हो जाता होगा और उस व्यक्ति की तरह शेष नहीं रह जाता होगा जिसका पुनः जन्म (और मृत्यु) हो सके। शायद इसे ही मुक्ति या मोक्ष कह सकते हैं।
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Thursday, 25 September 2025

~~ UNTITLED ~~

Caption this!


यहाँ की आग तुम तक भी तो पहुँचेगी जरूर, 

जलाओ इससे अपना घर, या तुम अपना दिया!!

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Saturday, 20 September 2025

WORD IS THE WORLD.

P O E T R Y

--

There Is The Void,

The Great Endless and,

The Beginningless Vast,

Where There Is, 

Neither The World,

Nor The Word,

And The Attention Only, 

Reins Supreme.

Neither Lonely, Nor Alone,

For It Knows Nothing, 

Apart From Itself.

But Then In An awkward Moment,

Appears The Twin, 

The Word And The World,

Entwined Together, 

So Close, So Distant, 

From One-Another,

Like A Twin-star In The Dark Sky. 

And One Tends To Believe, 

The Two Are But One And The Same.

As The One Appears, 

The Another is List Of Sight, 

And One Just Forgets, 

The Two Are But One! 

Just Like You,

I Too Have Heard,

In The Beginning,

There Was But God (Alone?),

I Just Wander,

If God (Alone?) Was There,

Wasn't There The Other, 

The So-called Past!,

Beside The God? 

So I Think,

There Is Nver, 

Either A Past, 

Or A Future,

That Was Or Will Be Ever! 

And The God Utters A Word, 

In His Extreme Utter Solitude, 

And The Word Appears,

And At Once Becomes The World. 

And Though,

The Word Replicates Itself, 

In Infinitely, A Myriad Forms,

It's None Other Indeed, 

The God (Alone?).

Replicating Himself

Time And Again, 

Moment To Moment. 

The Moment, The Word, 

And The World Too, 

Appear And Disappear,

And The God Too Apoears

And Disappears With Them!

It's The One-Man Show, 

That Appears To Go on, 

Endless And Beginningless.

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। 

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्तत्वदर्शिभिः।।१६।।

(गीता अध्याय २)

सर्वमिदं अतो हि वासुदेव यत्किञ्च जगत्यां जगत्।। 

(UN-EDITED)

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Friday, 19 September 2025

ANAMETACATA.

Jungle House Scrolls

This is perhaps the third and the last Jungle House in my life. 

They visit me, and I really don't know exactly Who brought me here for what purpose.

When they visit me there may be reason for them, but I just meet them with no objections any. I'm neither disturbed nor bothered. Occasionally someone puts a question about why I'm here, what is my purpose behind coming and staying here. I smile but say nothing. Thinking about me they too just keep silent.

I try not to interfere in their activities. Still they keep asking me, and I tell them whatever I feel like telling.

This midnight I coined a new word :

ANAMETACATA

It's perhaps an acronym, made up of three prefixes.

Ana is about analogy, analysis,

Meta is about Meta, Metal,

Cata is about Catalysis.

Here my role consists in helping them perform their work in as much in good way as they can.

Whenever and if they ask, I do tell them what I feel like telling.

So I play the role of an analyst.

Then I try to understand what help they may expect from me and I suggest them whatever I think is proper, and should be done at the material, Metaphysical, Meta - elemental Metal level.

Then though I may look participating in their activities, I am quite unconcerned and unattached.

My role is perhaps that of a Catalyst - a substance that helps in furthering and happening of a chemical process but it is not sure if it is really involved in; takes part in it.

I assembled these three words in a single word  - ANAMETACATA.

I AM ALIVE.

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Tuesday, 16 September 2025

MahAlaya

श्राद्धपक्ष

महालय श्राद्धपक्ष की अंतिम तिथि होती है। इसे ही सर्वपितृ अमावस्या भी कहा जाता है। अमा का अर्थ है :

अमाप immeasurable / अंतरहित अंधकार, अरि का अर्थ है : शत्रु।

सूर्य अर्थात् आदित्य के बारह रूपों में से अंतिम है : अमा-अरि अर्थात् अरि-अमा, अर्थात् अर्यमा।

अर्यमा सूर्य का वह रूप है जो पितृलोक अर्थात् पितरं का लोक है जहाँ मृत्युलोक में मृत्यु को प्राप्त आत्माएँ पुनः मृत्युलोक में पृथ्वी पर नया शरीर प्राप्त करने तक प्रतीक्षारत रहती हैं। पृथ्वी पर वर्षा ऋतु के विदा होने पर और शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होने पर वे पुनः पितृलोक में लौट जाती हैं और फिर वहां नियत समय व्यतीत करने के बाद पृथ्वी पर मनुष्य या किसी अन्य प्राणी के रूप में जन्म लेती हैं। पितृलोक में रहते हुए भी उन्हें मानसिक / आधिदैविक चेतना के sub-conscious रूप में अपने पूर्व जीवन की स्मृतियों से सुखों-दुखों की प्रतीति होती रहती है और नियत काल के उपरांत उन्हीं लोगों के बीच मनुष्य या किसी और योनि में वे जन्म लेती हैं जहाँ पूर्व जन्म से संबंधित अपने लोगों से पुनः संपर्क कर सकें। इसकी विवेचना और वर्णन वेद, उपनिषद्, पुराणों और इतिहास के ग्रन्थों अर्थात् रामायण और महाभारत में भी भिन्न भिन्न रीतियों और प्रयोजन के अनुसार भिन्न भिन्न शैली में किया गया है।

संक्षेप में, सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन होने और चंद्रमा के शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष में गति करते हुए बीतनेवाले समय का प्रभाव भिन्न भिन्न आत्माओं पर भिन्न भिन्न होता है। और इसलिए पितृलोक में आत्माओं को शांति प्राप्त हो इस उद्देश्य से इस लोक में परिजनों के द्वारा कुछ अनुष्ठान, जैसे उनके लिए तर्पण और पिंडदान आदि किए जाने का निर्देश शास्त्रों में दिया जाता है। इस समस्त कर्मकाण्ड का प्रयोजन, औचित्य हर मनुष्य की अपनी श्रद्धा के अनुसार सुनिश्चित होता है। इसलिए इसे श्राद्धपक्ष कहा जाता है क्योंकि इसी पक्ष में इन अनुष्ठानों को पूर्ण किया जाता है। यदि कोई अपने आपको एक देह-विशेष तक सीमित व्यक्ति मानता है तो मृत्यु-भय तो उसे होगा ही। फिर यह भी सत्य है कि यह भय शरीर को नहीं, मन को ही होता है, जबकि मन की मृत्यु होती है या नहीं इसबारे में हर कोई ही नितान्त अनभिज्ञ है। इसलिए वह जो कि अपने-आपके व्यक्ति विशेष होने की मान्यता से बंधा है मृत्यु और मृत्यु होने के बाद की स्थिति के बारे में कल्पनाएँ करता है, उन मान्यताओं को स्वीकार कर उन पर विश्वास करने लगता है। और रोचक बात यह भी है कि उसकी कोई भी मान्यता और विश्वास भी किसी भी क्षण गलत सिद्ध हो सकते हैं, और होते ही रहते हैं। इस दृष्टि से श्राद्ध और इससे जुड़ी मान्यताएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं। वेदों और पुराणों में इसका वर्णन किया गया है, उपनिषद् विशेष कर कठोपनिषद् में और पुराणों में विशेष रूप से गरुड पुराण में। किन्तु जब किसी के साथ ऐसी घटनाएँ घटने लगें और जब उसके परिचित और दिवंगत संबंधी, परिजन या कोई दूसरे लोग उससे स्वप्नों के माध्यम से संपर्क करने लगें, या जब कोई नया जन्मा शिशु, दावा करने लगे कि वह पूर्व जन्म में उसका संबंधी था, तो मनुष्य के लिए इस सच्चाई को अस्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। तब परंपरागत रूप में उसके द्वारा स्वीकार किए गए विश्वासों पर चोट पड़ती है और वह संशय और दुविधा अनुभव करने लगता है। वेद, उपनिषद्, रामायण आदि  तथा शास्त्र ग्रन्थ मनुष्य की परिपक्वता के अनुसार उसे इस स्थिति को समझने में सहायता देते हैं। किन्तु एक कसौटी महर्षि कपिल का सांख्य दर्शन भी है।

यह तथ्य कि सिद्धार्थ नामक राजकुमार जो कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन का पुत्र था, जिसने कि जीवन, संसार, जन्म, मृत्यु तथा आत्मा आदि के संबंध में सत्य क्या है इसकी खोज की, केवल एक संयोग भर नहीं है। उसके अनुयायी ही उसे ईश्वर या भगवान  कहने लगे, तो इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। जबकि संबुद्ध हो जाने अर्थात् निर्वाण की प्राप्ति हो जाने पर भी उसने "ईश्वर" नामक किसी ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व के विषय में कभी कुछ नहीं कहा। बुद्ध या सांख्य दर्शन भी ऐसे किसी "ईश्वर" के होने या न होने के बारे में, उस ईश्वर के अस्तित्व के बारे में निश्चयात्मक कुछ नहीं कहता। शायद इसीलिए इन्हें नास्तिक दर्शन भी कहा या समझा जाता है, किन्तु उल्लेखनीय है कि दोनों ही दर्शन तथा जिन / जैन दर्शन भी "आत्मा" को जानने और उसे बंधन से मुक्त करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। एक ओर सांख्य दर्शन  यद्यपि इस वर्तमान जन्म की अवधारणा तक पर संदेह करता हुआ प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर जैन और बौद्ध दर्शन अनेक जन्मों की शृँखला पर बल देते हैं। इसलिए यद्यपि अपने पूर्वजों और पितरों को हम जन्म जन्म के बंधनों से मुक्त न भी करा सकें तो भी उनकी आत्मा के पितृलोक के कष्टों को दूर करने के लिए शायद कुछ कर सकते हैं। सनातन धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी परंपरा में न तो पुनर्जन्म की और न ही जन्मों जन्मों की शृँखला से मुक्ति होने की भी कोई धारणा या मान्यता है। इसलिए उन परंपराओं में जन्म लिया हुआ कोई व्यक्ति जब ऐसे अनुभवों से गुजरता है जिनके बारे में उसे कुछ पता ही नहीं होता तो वह उद्विग्न, व्याकुल और संशयग्रस्त होने लगता है। तब न तो उसकी परंपरा में उसे इसका कोई समाधान मिलता है और न ही वह अपनी उस परंपरा के धार्मिक शिक्षकों से ही इस बारे में कोई विचार विमर्श ही कर सकता है। दूसरी ओर, सनातन धर्म भी इस विषय में उसकी कोई सहायता नहीं करता क्योंकि सनातन धर्म प्रत्येक व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का पूर्ण सम्मान करता है। गीता के इस श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है -

श्रेयान्सस्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

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