प्रातिभ
प्रातिभाद्वा सर्वम्।।३३।।
(विभूतिपाद)
उसकी स्मृति धीरे धीरे विकसित, परिवर्धित और स्थिर होने लगी थी। यद्यपि अब भी वह विभिन्न वस्तुओं और घटनाओं की चित्रमय आकृति की ही तरह थी, जिनमें कि कोई विशिष्ट क्रम नहीं था और कब कौन सी स्मृति किस अन्य से जागृत हो उठती थी और कौन सी स्मृति विलुप्त हो जाती थी इस ओर उसका ध्यान नहीं जा पाता था। फिर भी जैसे विभिन्न वस्तुओं की किसी स्मृति के उठने पर उनसे जुड़ी घटना भी उसे याद आने लगती थी, वैसे ही एक वस्तु से दूसरी वस्तु, और दूसरी से किसी अन्य की तारतम्य-रहित स्मृतियों के उठने और विलुप्त होने के क्रम में उसमें उस गतिविधि की आभासी पहचान उभरने लगी जिसे हम "समय" का नाम देते हैं। संस्कृत भाषा में इसे ही "प्रत्यय" कहा जाता है -
व्याकरण के सन्दर्भ में -
प्रतीयते विधीयते वा ग्राह्यते च स्मृत्याम् इति प्रत्ययः।।
न नित्यो न अनित्यो न क्षणिको न स्थिरो इति प्रत्ययः।।
और योगदर्शन (साधनपाद) के सन्दर्भ में -
विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि।।१९।।
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।
किन्तु अभी तो उसमें स्मृति नामक वृत्ति / प्रत्यय का प्रस्फुटन प्रारंभ ही हुआ था जो धीरे धीरे उसके हृदय, मन और मस्तिष्क में बेतरतीब क्रम में एकत्रित हो चला था। उसके लिए यह सारी गतिविधि उत्सुकता का विषय था जो अनायास उसके मन में प्रकट और विलीन होता रहता था।
तब उसमें स्मृति ने ही "समय" की सृष्टि की।
"समय" स्मृति की ही स्मृति थी किन्तु उसकी कोई ऐसी आकृति नहीं थी, जिसे वह चित्रित कर पाती। एक अमूर्त (abstract notion) की तरह का प्रत्यय। वह वस्तुओं और घटनाओं को तो चित्रित कर सकती थी उदाहरण के लिए सूरज का उगना, पेड़ से पत्तियों का गिरना, चिड़ियों का उड़ना इत्यादि, किन्तु "समय" नामक जिस वस्तु से उसका परिचय अभी अभी हुआ था और जो उसके मन से ही प्रकट होकर अस्तित्व में आता हुआ और व्यतीत होता हुआ प्रतीत होने लगा था, उसके बिम्ब को ग्रहण करते ही उसे "भविष्य" नामक एक अद्भुत् संवेदन हुआ। "भविष्य" की अपरिहार्यता और फिर भी उसकी कोई "पहचान" न बन पाने से वह स्तब्ध रह गई।
ज्ञान के फल का आस्वाद लेते ही, अर्थात् विभिन्न वस्तुओं, स्थितियों और घटनाओं को सार्थक शब्द से संबद्ध करते ही उसमें यह उत्सुकता पैदा हुई कि "भविष्य" के लिए कौन सा शब्द प्रयुक्त किया जाए, कौन से शब्द को वह "समय" और "भविष्य" तथा इसी तरह से "वर्तमान" के रूप में जानी जाने वाली स्मृति के पर्याय की तरह प्रयुक्त कर सकतीथी? जैसे अतीत और वर्तमान को वह किसी विशेष घटनाक्रम की तरह जान रही थी, "भविष्य" को वह उस तरह से कहाँ जान पा रही थी?
तब देवताओं को उस पर तरस आया और वे उसे उनका परिचय भावनाओं और कल्पनाओं के रूप में देने लगे। तब उस आभासी "भविष्य" के अमूर्त और अज्ञात होते हुए भी इच्छा, लोभ, भय, राग, द्वेष, जुगुप्सा, घृणा, प्रेम, लालसा, कामना आदि उन भावनाएँ उसके हदय में जाग उठी जो "समय-समय" पर भिन्न भिन्न प्रकार की समय के अनुसार अलग अलग प्रतीत होती थीं।
ज्ञान के फल की प्राप्ति के पश्चात् उन भावनाओं ने परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए उसमें उस वस्तु को अस्तित्व प्रदान किया जिसे "अन्तःकरण" या "मन" कहा जाता है। अब उसका मन पूरी तरह से "ज्ञान" के वशीभूत था। ज्ञान के ही प्रभाव से वह अपने आपको व्यक्ति-विशेष मानने लगी थी। शायद यह एक नया "जन्म" था जब हर बार नींद से जागते ही उसका पुनः नया जन्म हो जाता था और नींद के आते ही वह उसे विस्मृत कर कहीं लौट जाया करती थी, - किन्तु कहाँ, इस पर उसका ध्यान कभी न जा सका।
अपने अस्तित्व की स्मृति पर आधारित इस नित नये जन्म के क्रम को ही उसने अपने आपके परिचय के रूप में सच मान लिया।
भाषा के इस प्रकार के विकास और संस्कार के साथ साथ वह परिपक्व होती चली गई। और जैसे कोई सुकोमल लता समय के साथ साथ बढ़ती हुई क्रमशः दृढ़ और शक्तिशाली, कठोर और सुरक्षित हो जाती है और परिस्थितियों तथा वातावरण से अप्रभावित रहती है, वह भी जीवन के उल्लास से भरी भरी थी।
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