Monday, 9 June 2025

A Land-mark Mile-stone...

Why it's a New Beginning?
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The last post is a land-mark in the sense that I see a common thread between the teachings of

Sri Ramana Maharshi -
श्री रमण महर्षि,

Sri J. Krishnamurti  -
श्री जे. कृष्णमूर्ति

and

Sri Nisargadatt Maharaj -
श्री निसर्गदत्त महाराज.

Moreover, I also see how the very same teaching is there also in the -

Srimadbhagvadgita /-
श्रीमद्भगवद्गीता.

In order to elaborate and elucidate this point, I wish to write a few more verses in continuation in the next posts.

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Friday, 6 June 2025

Another Beginning!!

भारद्वाजकृता

अष्टावक्रगीता

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज।

विषयान् परित्यक्त्वा विषयिनमपि त्यज।।1।।

(The first line of the verse here as such is borrowed from the first verse of the :

संस्कृत अष्टावक्र गीता,

While the second line has been composed by myself.)

विषय-विषयिनौ वृृत्तिः द्विधैव अवगम्येते।

अहंवृत्तिर्हि एका या स्फुरति स्फुटिता तथा।।2।।

का एषा अत्र अहंवृत्तिः वर्तते विलीयते इति।

विषयान् सहोद्भवति विषयान् सह प्रविलीयते।।3।।

यस्मिन् बोधमये भाने विषय-विषयिनौ वर्तेते।

स भानः नैव उद्भवति न याति विलयं तथा।।4।।

एतद् विमर्ष्य परिवीक्षेण अवधानं तथा व्रजेत्।

अवधानो स्वरूपः स्यात् अवधानः मुक्तिः अपि।।5।।

कर्ता, भोक्ता वा स्वामी को, कस्य स्विद्धनमिदम्।

इति दृष्ट्वा त्यजेत्सर्वं त्यक्तारमपि ततः त्यजेत्।।6।।

यतो हि -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।14।।

नादत्ते कस्यचित् पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।15।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।16।।

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इति श्रीमद्भगवद्गीतायां पञ्चमे अध्याये।।

अपि यावत्किञ्च संशोधनमपेक्ष्यते अत्र?

अवगन्तव्यम्।।

इति शं।।

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This may need further editing,

So please note!

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Saturday, 3 May 2025

The Itinerary

To be edited. 

मुकेशजी वत्स

एक रोचक  YouTube video. 

इस पर विस्तार से लिखने का मन है।

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Wednesday, 9 April 2025

The Evangelist.

समय, संबंध, संपत्ति और संकट

उनके संसार में, उनकी दृष्टि से, वे एक 'सफल' स्वनिर्मित (successful, self-made person) मनुष्य थे। 

उन्होंने और उनका परिवार जो पहले सनातन धर्म की परंपराओं का पालन करता था, सनातन धर्म की सभी परंपराओं और संस्कृति को पूरी तरह से त्याग दिया था। और तब से वे सनातन से भिन्न किसी अन्य परंपरा में मतान्तरित हो गए थे  क्योंकि यह सुविधाजनक भी था।

किसी भी मत या विश्वास में सिर्फ बाध्यता, प्रलोभन या भय से, सुरक्षित अनुभव करने से मतान्तरित हो जाना तात्कालिक रूप से यद्यपि लाभप्रद जान पड़ सकता है, किन्तु कभी न कभी इसके भयावह परिणामों का सामना भी अवश्य ही करना ही पड़ता है।

वे प्रायः अपनी ही पूर्व-संस्कृति, परंपराओं और मत का उपहास भी किया करते थे और मतान्तरण के शॉर्ट-कट से प्राप्त हुई सफलताओं पर उन्हें गर्व भी होता था। वैसे पहले वे शुद्ध शाकाहारी थे लेकिन मतान्तरित हो जाने के बाद उन्हें शाकाहार के दोष दिखाई देने लगे थे। 'अहिंसा' अब उनकी दृष्टि में डरपोक मानसिकता का ही लक्षण हो चुका था।

मैं उनके इस सब इतिहास से अनभिज्ञ था। उन्हें पता था कि मैं किन परंपराओं और संस्कृति को महत्व देता था। वे मुझे एक औसत 'बुद्धिजीवी' ही मानते थे, इसलिए भी उन्हें लगता था कि मुझसे मेल-जोल रखने पर भविष्य में मुझे भी उनके अपने उस विश्वास में वैसे ही मतान्तरित कर सकेंगे, जैसे कि अभी तक बहुत से लोगों को करते आए थे।

वे कभी कभी और प्रायः ही कहा करते थे -

हर व्यक्ति की एक 'फिलॉसाफी' होती है। उनका मतलब यह था कि हर व्यक्ति जन्म या संस्कार से, या सामाजिक परिस्थितियों के कारण, सोच-विचार के किसी तय साँचे में किसी 'विश्वास' से बँधा होता है। और हर कोई ही ऐसे ही किसी 'विश्वास' में संसार में, और अपनी मृत्यु के बाद भी स्थायी, अन्तहीन सुरक्षा और अनन्त सुख-भोगों को भी प्राप्त कर सकता है। उनका 'विश्वास', मत या मतलब या फिलॉसाफी यही थी। उनका मतलब, फिलॉसाफी या 'विश्वास' भी केवल उनकी 'स्मृति' पर आधारित उनकी एक मनोदशा भर ही थी, इस ओर उनका ध्यान न तो जा सका था, न ही वे इस बारे में जानने या समझने के लिए उत्सुक ही थे।

समय, संबंध, और संपत्ति इसी प्रकार से, हर मनुष्य की ही बुद्धि को मोहित कर लेते हैं कि वह किसी न किसी 'विश्वास' से ग्रस्त हो जाता है। यह 'विश्वास' किसी 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व के आग्रह का रूप भी ले सकता है जो कट्टरता की हद तक जा सकता है, जिसके लिए आप न केवल अपने बल्कि दूसरों के प्राण भी ले सकते हैं, और इससे भी बढ़कर दूसरों को अपने 'विश्वास' में मतान्तरित करने को एक ऐसा पुण्य-कार्य भी मान सकते हैं जिससे वह 'दिव्य' सत्ता आप पर प्रसन्न हो सकती है। आप उन सभी के प्राण लेने को भी अपना महानतम पावन कर्तव्य भी मान और समझ सकते हैं जो आपकी उस इष्ट 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व पर संशय करते हैं, संक्षेप में, वे सभी, जो 'नास्तिक' हैं, या जो आपके 'विश्वास' से भिन्न किसी अन्य मत को मानते हैं।

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Monday, 24 March 2025

What is (in) the Name?!

My Thoughts!

मेरे विचार!

किसी से भी परिचय और बातचीत प्रारंभ करने के लिए कोई न कोई बहाना होता है, और न हो तो बना भी लिया जा सकता है।

ऐसे ही आज एक नए, अब तक अपरिचित एक व्यक्ति ने मिलने का अनुरोध करने के लिए फोन किया।

नाम सुनकर क्षण भर को लगा कि यह या तो कोई बहुत विख्यात व्यक्ति है या इस नाम से जाना जानेवाला दूसरा कोई और है।

किसी परिचित मित्र का उल्लेख करते हुए उसने मुझसे कुछ प्रारंभिक बातचीत करने के बाद कहा -

"आपके विचारों के बारे में उनसे सुना। उम्मीद है आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।"

"मेरे विचार?"

"जी"

फिर एक-दो दूसरी बातों के बाद तय हुआ कि एक या दो दिन में वे मुझसे मिलने आ रहे हैं।

उनके नाम से यह भी प्रतीत हुआ कि शायद इस नाम से पहले उनका कोई और नाम रहा होगा और जैसे बहुत से लोग किसी समय अपने माता पिता द्वारा प्राप्त हुए नाम को बदलकर किसी कारण या उद्देश्य से दूसरा कोई नाम अपनी नई एक और पहचान बनाने के लिए रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने यह नाम रख लिया होगा। 

क्या नाम और पहचान वास्तविक हो सकते हैं! क्या नाम और पहचान एक अस्थायी और सुविधाजनक स्मृति ही नहीं होती जो बहुत अधिक समय बीतने के बाद स्वयं ही मिट जाती है!

और विचार?

जैसे किसी का नाम एक कामचलाऊ और तात्कालिक पहचान और स्मृति भर होती है, न कि ऐसी कोई वस्तु जो वह स्वयं हो, वैसे ही क्या यह संभव है कि "विचार" भी किसी के "अपने" होते हों! और यद्यपि कोई दावा भी करे कि ये विचार उसके नितान्त निजि हैं उसके अपने ही और "स्वतंत्र" भी हैं, तो भी क्या उन्हें वह अक्षरशः उन्हीं शब्दों में हमेशा याद भी रख सकता है? क्या वह वैसे भी किसी भी क्षण उसकी इच्छा के अनुसार उन्हें बदल या त्याग नहीं सकता है? और अधिक संभव तो यही है कि जाने अनजाने या और भी किन्हीं कारणों तथा परिस्थिति में वह ऐसा करने के लिए बाध्य भी हो सकता है।

विडम्बना यह है कि किसी की औरों से भिन्न अपनी कोई विशेष पहचान होती ही नहीं है, न हो ही सकती है। और जो भी होती है वह केवल कामचलाऊ, तात्कालिक और क्षणिक होती है। और इस सरल तथ्य को समझ न पाने और स्वीकार न कर पाने से हर कोई अपनी कोई स्थायी, ठोस ऐसी पहचान बनाने या स्थापित करने के प्रयास में संलग्न हो जाता है जो मन में गढ़ी या रची गई हो, और जो उसे अत्यन्त प्रिय हो। यह कोई नाम हो सकता है या कोई सिद्धान्त, शब्द जो कि किसी आदर्श का द्योतक भी हो सकता है। क्या मन इस प्रकार स्वयं ही अपने ही द्वारा सृजित किए गए एक दुष्चक्र में नहीं फँस जाता?

जब किसी का नाम भी केवल एक औपचारिकता और उपयोगिता से अधिक कुछ नहीं हो सकता तो "उसके" उन "विचारों" के बारे में क्या कहा जाए जो दिन प्रतिदिन और समय समय पर नए नए रूपाकारों में बदलते और ढलते रहते हैं?

याद आया --

"नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...

मेरी आवाज ही पहचान है,  गर याद रहे!"

मनुष्य की आवाज़ जरूर ऐसी अपेक्षाकृत स्थिर पहचान होती है जिसे न तो कोई बदल सकता है, न भूल सकता है, भले नाम और चेहरा भूल जाए।

और अपना कोई नाम और चेहरा कहीं होता ही कहाँ है! 

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Tuesday, 18 March 2025

A Short Story.

अन्तर्दर्शन

आज सुबह एक पोस्ट लिखा था जिसमें कल के प्रसंग का उल्लेख भर किया था -

बहुत समय से यह होता रहा है कि स्वप्न जैसी किसी अवस्था में किसी दूसरे लोक से संपर्क स्थापित हो जाता है। लगभग पूरी एक कहानी मैं पढ़ रहा होता हूँ या किसी से बात कर रहा होता हूँ। सामान्य जैसे कुछ लोग मुझसे जुड़े होते हैं। कभी कभी मुझे स्मरण रहता है कि यह जो मैं देख रहा हूँ वह स्वप्न है जबकि वस्तुतः मैं कहीं सोया हुआ होता हूँ और जाहिर है कि स्वप्न की उस अवस्था में मैं यह नहीं जान सकता हूँ कि मेरा शरीर जो सोया हुआ है वह इस समय कहाँ होगा। और यह भी लगता है कि मैं फिर भी स्वप्न से बाहर नहीं जा सकता। स्वप्न प्रिय हो या अप्रिय, रोचक हो या उबाऊ, भयानक हो या मनोरंजक, पूरा होने तक चलता रहता है। कभी कभी बीच में ही टूट भी जाता है और मुझे समझ में आ जाता है कि यह अब टूटने ही वाला है, और मैं जागने ही वाला हूँ। उसी समय मन में यह खयाल भी आता है कि इस स्वप्न को भूलना नहीं है। फिर भी बहुत बार यह भी होता है कि जाग जाने पर मैं उसे चाहकर भी याद नहीं कर पाता हूँ। अचानक मानो एक पर्दा बीच में आता है और उस स्वप्न की स्मृति पर पड़ जाता है। कभी कभी कुछ याद भी रह जाता है और मैं उसे लिख रखने के बारे में सोचने लगता हूँ। कभी कभी लिख भी लेता हूँ। कभी कभी लिख पाना नहीं भी हो पाता है। लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि उस स्वप्न में भविष्य में होनेवाली घटनाओं के संकेत भी दिखलाई देते हैं। कभी कभी कुछ ऐसा भी कि वह मेरे लिए किसी नए पोस्ट को लिखने की प्रेरणा बन जाता है। 

जैसे कि बहुत दिनों पहले ऐसे ही एक स्वप्न में मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा था :

"प्रभु" और "विभु" के बीच क्या अंतर है?

तब उत्तर में मैंने उसे गीता के अध्याय १० का यह श्लोक सुनाया था --

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

और फिर तत्काल ही अध्याय ५ के यह श्लोक भी -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

फिर मैंने उसे बतलाया कि प्रभु वह विश्वचैतन्य है जो कि विभूति की तरह प्रत्येक जड चेतन में बाह्यतः अभिव्यक्त होता है जबकि उस रूप में वह जड या चेतन भूत विभु वह जन्तु विशेष है जिस पर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और व्यष्टि-स्मृति रूपी अज्ञान आवरित हो जाता है।

कोई व्यक्ति कभी कभी प्रारब्धवश उस समष्टि स्मृति से संपर्क में होता है जहाँ पर भूत, वर्तमान और भविष्य की स्मृति उसके सम्मुख होती है। तब उसे अनायास ही जिस भविष्य का दर्शन होता है वह वैश्विक समष्टि स्मृति से ही उसे दिखाई देता है। नॉस्ट्रेडेमस, बाबा वैंगा या ऐडवर्ड कैसी जैसे भविष्यदर्शी और दूसरे भविष्यवक्ता इसी तरह से भविष्यवाणियाँ करते हैं। उनके पास स्वेच्छया प्राप्त की जा सकनेवाली वह सिद्धि नहीं होती जो कि ऋषियों को योग साधना से प्राप्त होती है। और इसलिए कोई भी व्यक्ति कभी कभी तो अनायास ही भविष्य में होनेवाली किसी घटना को स्वप्न में या स्वप्न जैसी अवस्था में देख लिया करता है।

प्रभु के लिए सब कुछ अवतार रूप में उसके माध्यम से हो रही "लीला" भर होता है, जबकि विभु के लिए यही उसका प्रारब्ध होता है।

स्वप्न टूटने के बाद कुछ समय मैं इस अनुभव पर विस्मय में डूबा रहा कि इस स्वप्न ने किस प्रकार आकर मेरे मन को भावविभोर कर दिया।

यह भी थोड़ा विचित्र ही है कि इस पोस्ट में कल के जिस स्वप्न का उल्लेख मैं करना चाहता था वह नहीं कर पाया। शायद फिर कभी! 

समष्टि स्मृति या आकाशीय स्मृति

Cosmic Memory. 

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Monday, 17 March 2025

The Tradition.

शिक्षा भाषा और परंपरा

संस्कृत शास् - शासयति धातु से व्युत्पन्न शिक्षा शब्द का प्रयोग शासन करने और पर्याय से किसी और को उचित  आचरण करने के लिए मार्गदर्शन देने के अर्थ में होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् का प्रारंभ ही शीक्षा वल्ली से होता है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी और समूचा भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित "शाह" उपनाम इस "शास्" का ही अपभ्रंश है जो फ़ारसी और संभवतः अरबी भाषा में "शाह" में परिणत हो गया। यह इसलिए भी हो सकता है कि इससे जुड़ा एक और शब्द "पाद" भी "पद" के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इन दोनों पदों के समास से बना शब्द "पादशास्" का प्रयोग उस पुरातन समय से प्रचलित है,  जब भगवान् श्रीराम के भाई भरत और शत्रुघ्न को मामा के घर से अयोध्या लौटने पर पता चला कि माता कैकेयी को महाराज दशरथ के द्वारा दिए गए दो वचनों को पूरा करने के लिए श्रीराम को चौदह वर्ष के लिए वनवास में भेज दिया गया है और माता सीता तथा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ वन को चले गए हैं।

अनुनय विनय और आग्रह ने के बाद भी भगवान् श्रीराम ने जब अयोध्या लौटना अस्वीकार कर दिया तो भरत ने उनसे उनकी पादुकाएँ माँगी ताकि श्रीराम के वनवास की अवधि में उन्हें ही अयोध्या के राजसिंहासन पर रखकर अयोध्या पर शासन करने के श्रीराम के राज्याधिकार के दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह भरत कर सकें।

पुनः चौदह(सौ) वर्षों के वनवास के बाद भगवान् श्रीराम अयोध्या में विराजमान हो चुके हैं, और अब आर्यावर्त के विद्वज्जन पुनः "सतयुग" के आगमन की चर्चा करने लगे है। यह कहाँ तक और कितना सत्य है यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।

(कल ही सुबह अपने अन्तर्दर्शन में देखा था। कोई कुछ कह रहा था। उसे अगले पोस्ट में लिखने का विचार है।)

"पादशास्" शब्द का पुनः प्रयोग महाराज शिवाजी द्वारा उनके गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज के खड़ाऊँ राज्य के राजसिंहासन पर रखकर उसी तरह शिवाजी ने किया। शिवाजी ने उसी परंपरा का अनुसरण किया जिसे भरत द्वारा स्थापित किया गया था। 

इसी "पादशास्" शब्द का फ़ारसी अपभ्रंश "बादशाह" हो गया क्योंकि अरबी भाषा के फ़ारसी भाषा में लिप्यन्तरण करने पर "प" के लिए "ब" का प्रयोग किया गया और जैसा कि हम जानते ही हैं कि किस प्रकार संस्कृत "स" वर्ण फ़ारसी / अरबी भाषा में "ह" हो गया और यही "स" लैटिन / अंग्रेजी में "s" हो गया होगा। लिपिसाम्य का यह भी एक उदाहरण है।

फ़ारसी का "बादशाह" फिर मुगलों के काल में राजा के अर्थ में प्रचलित हुआ।

महाराज शिवाजी के समय में उनकी परंपरा में भी इस शब्द के प्रयोग से इसकी ही पुष्टि होती है।

दूसरी ओर, "परंपरा" शब्द का अर्थ है पर से भी पर और इससे ही व्युत्पन्न "परंपरा" का अर्थ प्रकारान्तर से "रुढ़ि" भी हो गया।

मनुष्य चूँकि एक सामाजिक और विकासशील प्राणी है, इसलिए शासन और शिक्षा दोनों परंपरा और अनुशासन दोनों रूपों में ऐतिहासिक यथार्थ हैं। शिक्षा से परंपरा का और परंपरा से शिक्षा का विकास और विस्तार होता है। फिर विभिन्न समूहों में परस्पर संबंध और स्पर्धा होती है

पुनः अपनी जड़ों की तलाश शुरू होती है।

शाक्यमुनि गौतम, वाजश्रवा, भार्गव भृगु ऋषि की परंपरा के थे जिनका उल्लेख कठोपनिषद् में पाया जाता है। ये सभी ऋषि मूलतः वे सात ऋषि हैं जिन्हें हम उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की परिक्रमा करते हुए देखते हैं। पूरे संवत्सर में वे आकाश में दक्षिणावर्त (clockwise) स्वस्तिक के रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे घड़ी के काँटे जिस दिशा में गति करते हैं, उसी प्रकार से।

वैदिक परंपरा की ही तरह बौद्ध, जैन आदि अवैदिक परंपराओं ने भी स्वस्तिक को यह स्थान दिया और इस प्रकार धर्म को वैदिक या अवैदिक दोनों रूपों में सनातन के ही अर्थ में मान्य किया गया।

बुद्धावतार के बाद तुर्कों और मंगोलों (मुगलों) के द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद भगवान् श्रीराम को पुनः चौदह (सौ) वर्षों के लिए वनवास में रहना पड़ा। यह सब केवल संयोग ही है या विधि का विधान है, इसे कौन जान सकता है? इजिप्ट / अवज्ञप्ति, जिसे मिस्र भी कहा जाता है और जो मिशनरी परंपरा का प्रारंभिक रूप था, उससे उस कबीले के निष्कासन के बाद वह कबीला  मरुस्थल में भटकते रहा जहाँ अंगिरा (मुण्डकोपनिषद्)  ने शौनक को उस सत्य का उपदेश किया जिसे "अब्रह्म" या अब्राहम / इब्राहिम नामक प्रथम संदेशवाहक के नाम पर अब्राहमिक परंपरा कहा जाता है। "अंगिरा" का ही सजात / सज्ञात / cognate है - "Angel", और इसी परंपरा के  ऋषि जबाल / जाबाल ऋषि को ही, 

Abrahmic Tradition

में  Gabriel Angel  के रूप में ग्रहण किया गया। 

उल्लेखनीय है कि परशुराम भी इसी भृगु-वंश में उत्पन्न हुए थे जिनका साम्राज्य गोकर्ण (गोआ) से पार्श्व दिशा में फारस तक था ।

शाक्यमुनि स्पष्टतः शक परंपरा में उत्पन्न शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ थे।

सिद्धार्थ को निरञ्जना नामक नदी के तट पर सुजाता नामक वनदेवी ने पीने के लिए दूध अर्पित किया था। यह भी शायद संयोग है कि सिद्धार्थ ही पूर्वजन्म में अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड / कहोल / कहोळ थे जिन्हें वरुण ने अपहृत कर लिया था ताकि वह किसी यज्ञ में पुरोहित का कार्य कर सकें। वरुण पश्चिम दिशा के ही "वसु" हैं। इन सभी सन्दर्भों का उल्लेख मैंने अपने कुछ ब्लॉग्स में किया है,  लेकिन सब बिन्दुओं को जोड़ पाना मेरे लिए थोड़ा श्रमसाध्य तो है ही। हाँ, जिन्हें उत्सुकता हो शायद वे धैर्यपूर्वक इस सबका अध्ययन कर सकते हैं।

यहाँ यह सब केवल स्मृति-सूत्र (record) के रूप में संजो रखने के लिए है।

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