Monday, 17 February 2025

The Future.

प्रातिभ

प्रातिभाद्वा सर्वम्।।३३।। 

(विभूतिपाद)

उसकी स्मृति धीरे धीरे विकसित, परिवर्धित और स्थिर होने लगी थी। यद्यपि अब भी वह विभिन्न वस्तुओं और  घटनाओं की चित्रमय आकृति की ही तरह थी, जिनमें कि कोई विशिष्ट क्रम नहीं था और कब कौन सी स्मृति किस अन्य से जागृत हो उठती थी और कौन सी स्मृति विलुप्त हो जाती थी इस ओर उसका ध्यान नहीं जा पाता था। फिर भी जैसे विभिन्न वस्तुओं की किसी स्मृति के उठने पर उनसे जुड़ी घटना भी उसे याद आने लगती थी, वैसे ही एक वस्तु से दूसरी वस्तु, और दूसरी से किसी अन्य की तारतम्य-रहित स्मृतियों के उठने और विलुप्त होने के क्रम में उसमें उस गतिविधि की आभासी पहचान उभरने लगी जिसे हम "समय" का नाम देते हैं। संस्कृत भाषा में इसे ही "प्रत्यय" कहा जाता है -

व्याकरण के सन्दर्भ में -

प्रतीयते विधीयते वा ग्राह्यते च स्मृत्याम् इति प्रत्ययः।।

न नित्यो न अनित्यो न क्षणिको न स्थिरो इति प्रत्ययः।।

और योगदर्शन (साधनपाद) के सन्दर्भ में -

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि।।१९।।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

किन्तु अभी तो उसमें स्मृति नामक वृत्ति / प्रत्यय का प्रस्फुटन प्रारंभ ही हुआ था जो धीरे धीरे उसके हृदय,  मन और मस्तिष्क में बेतरतीब क्रम में एकत्रित हो चला था। उसके लिए यह सारी गतिविधि उत्सुकता का विषय था जो अनायास उसके मन में प्रकट और विलीन होता रहता था।

तब उसमें स्मृति ने ही "समय" की सृष्टि की।

"समय" स्मृति की ही स्मृति थी किन्तु उसकी कोई ऐसी आकृति नहीं थी, जिसे वह चित्रित कर पाती। एक अमूर्त (abstract notion) की तरह का प्रत्यय। वह वस्तुओं और घटनाओं को तो चित्रित कर सकती थी उदाहरण के लिए सूरज का उगना, पेड़ से पत्तियों का गिरना, चिड़ियों का उड़ना इत्यादि, किन्तु "समय" नामक जिस वस्तु से उसका परिचय अभी अभी हुआ था और जो उसके मन से ही प्रकट होकर अस्तित्व में आता हुआ और व्यतीत होता हुआ प्रतीत होने लगा था, उसके बिम्ब को ग्रहण करते ही उसे "भविष्य" नामक एक अद्भुत् संवेदन हुआ। "भविष्य" की अपरिहार्यता और फिर भी उसकी कोई "पहचान" न बन पाने से वह स्तब्ध रह गई।

ज्ञान के फल का आस्वाद लेते ही, अर्थात् विभिन्न वस्तुओं, स्थितियों और घटनाओं को सार्थक शब्द से संबद्ध करते ही उसमें यह उत्सुकता पैदा हुई कि "भविष्य" के लिए कौन सा शब्द प्रयुक्त किया जाए, कौन से शब्द को वह "समय" और "भविष्य" तथा इसी तरह से "वर्तमान" के रूप में जानी जाने वाली स्मृति के पर्याय की तरह प्रयुक्त कर सकतीथी? जैसे अतीत और वर्तमान को वह किसी विशेष घटनाक्रम की तरह जान रही थी, "भविष्य" को वह उस तरह से कहाँ जान पा रही थी?

तब देवताओं को उस पर तरस आया और वे उसे उनका परिचय भावनाओं और कल्पनाओं के रूप में देने लगे। तब उस आभासी "भविष्य" के अमूर्त और अज्ञात होते हुए भी इच्छा, लोभ, भय, राग, द्वेष, जुगुप्सा, घृणा, प्रेम, लालसा, कामना आदि उन भावनाएँ उसके हदय में जाग उठी जो "समय-समय" पर भिन्न भिन्न प्रकार की समय के अनुसार अलग अलग प्रतीत होती थीं। 

ज्ञान के फल की प्राप्ति के पश्चात् उन भावनाओं ने परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया करते हुए उसमें उस वस्तु को अस्तित्व प्रदान किया जिसे "अन्तःकरण" या "मन" कहा जाता है। अब उसका मन पूरी तरह से "ज्ञान" के वशीभूत था। ज्ञान के ही प्रभाव से वह अपने आपको व्यक्ति-विशेष मानने लगी थी। शायद यह एक नया "जन्म" था जब हर बार नींद से जागते ही उसका पुनः नया जन्म हो जाता था और नींद के आते ही वह उसे विस्मृत कर कहीं लौट जाया करती थी,  - किन्तु कहाँ, इस पर उसका ध्यान कभी न जा सका।

अपने अस्तित्व की स्मृति पर आधारित इस नित नये जन्म के क्रम को ही उसने अपने आपके परिचय के रूप में सच मान लिया।

भाषा के इस प्रकार के विकास और संस्कार के साथ साथ वह परिपक्व होती चली गई। और जैसे कोई सुकोमल लता समय के साथ साथ बढ़ती हुई क्रमशः दृढ़ और शक्तिशाली, कठोर और सुरक्षित हो जाती है और परिस्थितियों तथा वातावरण से अप्रभावित रहती है, वह भी जीवन के उल्लास से भरी भरी थी। 

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Dragon's Head

राहु

Someone has asked  :

राहु के क्या इम्पैक्ट होते हैं? 

So I'm prompted to write this post.

भगवान् आदि शंकराचार्य के द्वारा रचित :

श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् के निम्न श्लोक के अनुसार :

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादितः

व्यावृत्त्यानुवर्तमानमिति अन्तःस्फुरन्तं सदा।

यः साक्षात्करणात् भवेन्न पुनरावृत्तिः भवाम्भोनिधौ

तस्मिन्श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये।।

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जैसे माया के प्रभाव से सूर्य और चन्द्र आदि ग्रह राहु के द्वारा ग्रसित जान पड़ते हैं (जबकि वस्तुतः यह केवल दृष्टि के भ्रम से ही होता है और पृथ्वी के सूर्य और चन्द्र के मध्य आ जाने के परिणाम से चन्द्रग्रहण तथा चन्द्र के सूर्य और पृथ्वी के मध्य आ जाने से सूर्य-ग्रहण के रूप में यह भ्रम पैदा होता है) उसी प्रकार मनुष्य की अन्तरात्मा में अवस्थित परमात्मा (सूर्य) और देह (पृथ्वी) तथा मन (चन्द्र) के बीच सतत उत्पन्न होनेवाली असंख्य वृत्तियों के परिणामस्वरूप और मन के उनसे आच्छादित हो जाने से अपनी वास्तविक आत्मा के स्वरूप के अज्ञानरूपी भ्रम के रूप में मनुष्य में घटित होता है।

संस्कृत धातु √ रह् - जिसे कि 'रहने', 'रहस्य' के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, से बनी "राहु" संज्ञा छाया, अज्ञान, प्रमाद की द्योतक है।

गीता में इस धातु का प्रयोग 'रहसि स्थितः' के रूप में है कि योग साधना अत्यन्त एकान्त स्थान में रहते हुए ही जाती है।

इसी संस्कृत धातु / पद 'रहिं' का अरबी सजात सज्ञात अर्थात्  cognate रूप है रहिम या रहीम / رحیم. 

जिसे परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है, जो अत्यन्त गूढ है और गीता के अनुसार प्राणिमात्र के हृदय में ही वास करता है। 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। 

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

अध्याय १८

किस रूप में?

"भूतानामस्मि चेतना"

इसलिए नवग्रहों के रूप में सर्वत्र व्याप्त ईश्वर की पूजा आदि के लिए उन्हें शिवलिङ्ग के स्वरूप में स्थापित कर उपासना की जाती है।

संभवतः

ॐ रं राहवे नमः

इस मंत्र का १८००० जप करने से राहु के प्रभाव से उत्पन्न होनेवाली बाबाओं का शमन किया जाता है।

इसीलिए राहु ग्रह की विंशोत्तरी महादशा १८ वर्ष कही गई है।

यह हुआ राहु माहात्म्यम्।।

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Sunday, 16 February 2025

As on 18-05-2012

Edited and Re-written.

पुनश्च

Wrote this post on this date on my blog at

https://vinaykvaidya.blogspot.com

Rewritng here for those who are somehow unable to find the post written earlier.

कलनकलनाभ्याम् तु कालसर्पोऽभिबभूव।

कलकुलस् वा कलकुलः ततो एवाभिधा मतो।।१।।

सुधापाने समारम्भे असुरो कपट-प्रेरितो। 

धृत्वा वेषं छद्मं सुरपंक्तिं प्राविवेश।।२।।

दृष्टे शशिसूर्याभ्याम् अथ च इङ्गितेऽपि।

विष्णुना क्षिप्ते चक्रे तदाऽसौ खण्डितो बभूव।।३।।

परं पीत्वा सुधाबिन्दुं न तत्याजासुरोऽसून्।

अपि च अमरो भूत्वा राहुकेतुरूपिणो पुनः।।४।।

कालस्थानरूपेण व्याप्तो ताभ्याम् चराचरः। 

एवं शशिसूर्याभ्याम् गणनाऽधारो तयोः।।५।।

भवेताम् प्रत्यक्षाधारौ कुतो प्राक्सृष्टे तु तौ।

कालसर्पत्वे सरन्तौ द्वौ परमे ब्रह्मणि आत्मनि।।६।।

कस्मिन् काले च स्थाने अतिपृच्छा शङ्का चैति। 

कालस्थानौ हि सञ्जातौ आत्मनि परब्रह्मणि।।७।।

कालो तु सर्व भूताभ्याम् आद्यन्तवत् प्रतीयते। 

मर्यादितो तस्मिन्नेव परब्रह्मणि स्वात्मनि।।८।।

स्थानोऽपि भासते तद्वत् पृथक्त्वेन सर्वभूतेभ्यः।

सदात्मनि परब्रह्मणि कुतोऽवकाशो तयोर्द्वयोः।।९।।

राहू शीर्षो केतु पुच्छो कालसर्पो इति कथ्यते। 

तदन्तरे हि जीवेभ्यो भुक्तिर्मुक्तिर्द्वयी वसेत्।।१०।।

--

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने स्तोत्रमिदमद्भुतम्।

रचितवान् विनायकेन भारद्वाज-स्वामिना।।११।।

ये पठन्ति नरा भक्त्या स्तोत्रमिदमद्भुतम्।।

लभन्ति शान्तिं मुक्त्वा कालसर्पदोषेन ते।।१२।।

अद्य पुनरीक्षितं लिखितं च।।

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Wednesday, 12 February 2025

3-D Walks.

जागृतादित्रयोन्मुक्तं

The 'self' is a tiny point of :

consciousness / conscious attention

moving in its own:

Timeless and Spaceless dimension.

This is citta / चित्त, the individual 'self', while the Mind is the collectivity of all the possibilities that may happen to 'it'.

When this 'it' refers to the 'self', it's the individual's life as such, but when this 'it' refers to the collectivity of and as the Whole, it's the Ishwara-Principle.

The two relevant introductions of the two UpaniShad, namely the 

मुण्डकोपनिषद्  and the ईशावास्योपनिषद्   describe this aspect of The One, The Single and the Whole Reality through the following two verses respectively :

जागृतादित्रयोन्मुक्तं जागृतादिमयंस्तथा। 

ॐकारैकसुसंवेद्यं यत्पदं तन्नमाम्यहम्*।।

(*तत् प्रणमाम्यहम्।।)

And; 

ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयंस्तथा।

ईशावास्येन सम्बोध्यमीश्वरं तं प्रणमाम्यहम्*।।

(तन्नमाम्यहम्।।)

Another way of expressing the same Truth is through the words :

GodGuru and Self

ईश्वरोगुरुरात्मेति मूर्तिभेदाविभागिने।।

व्योमवद् व्याप्त देहाय दक्षिणामूर्तये नमः।।

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Tuesday, 11 February 2025

The Die-hard Enthusiast.

Just about nothing!

The most important truth is :

We hardly know what we really want.

Not only we don't know, we're even unaware that we never know.

We seek help from those who themselves are as much confused like us ourselves.

Maybe, in comparison to us ourselves, they have something to show off and boast about, of their achievements, success and status. But are they free of conflict, apprehension about the future?

Aren't they too, like us are vulnerable to the whims of uncertainty, of fate? 

We fail to see that those people are far more in trouble as we are ourselves in.

They may have name, fame, wealth, luxuries of life we couldn't even imagine in our wildest dreams, what to speak of enjoying them.

Everything has a price. They buy their status by paying through nose. And they are hardly aware of what they are paying to avail such luxuries!

Most of them you see in the News and in the headlines everyday.

You can't remember them all the time,  even if you wish to do so!! 

During the last 5 years I lost so many a people who I thought were very happy, successful, rich and reputed too in the society, if not in the world. 

Still all of them were inwardly insecure, quite unsure and skeptic about what the future might have in store for them.

The thing that is called the world,

Is a indeed a plaything of magic,

Looks trite, the moment it's achieved,

Looks gold, the moment it's lost!

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दुनिया जिसे कहते हैं

जादू का खिलौना है! 

मिल जाए तो मिट्टी है, 

खो जाए तो सोना है!!

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Duniya jise kehate hain,

Jaadoo ka khilauna hai,

mil jaaye to mittee hai,

kho jaaye to sonaa hai!

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Saturday, 8 February 2025

n-dimensional space.

An Introduction to :

The Yoga of Patanjali.

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The n-dimensional Patanjali-Space.

Mind is the individual's

Patanjali-Space,

Where the sense of one's being a self is an n-dimensional point with less than or same as n qualities at a certain moment in time, defined again  as the past, future or now.

So all the feelings, emotions, sentiments, are the n qualities, some of then always less than or equal to n in number are the dimensions of the Mind.

vRtti / वृत्ति  is a single word that could be given collectively to all them.

So at any certain moment in time, these all dimensions are at play in the Mind, though only one, two or more are the prominent and the others are beyond the point of attention. In mind, though those others could be inactive, can come up at any time on the 'surface', which is the 

Conscious Mind. 

of the individual.

However, those rest of the kinds that are hidden are collectively called :

The Subconscious Mind.

Again, the accumulated reservoir of all the vRtti / वृत्ति  is the 

The Unconscious (Mind)

The citta  

Is the point that at any moment, moves upon and along the path of only one of the five major vRtti(s) / वृत्ति  that are as :

PramANa viparyaya vikalpa nidrA smRti. / प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्मृति

 Though The Citta / चित्त

is the same pratyaya / प्रत्यय  AbhAsa / आभास that is also and often described variously as

the mana / मन, the buddhi / बुद्धि and the ahamkAra / अहंकार.

It's verily the individual sense of the

self or the ego.

As this sense of the self prevails over all other feelings, emotions and sentiments, and also in the assumed / the imagined future and in the remembered past in the form of the memory, it's always the same though keeps on also as if in movement, so as to say.

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 way 

Wednesday, 5 February 2025

Body, Memory and Recognition.

शरीर, स्मृति और पहचान

क्या शरीर में स्मृति बनती, मिटती और रहती है या स्मृति में ही शरीर का भान प्रकट और विलुप्त होता रहता है? और प्रश्न यह भी है कि शरीर की पहचान स्मृति से होती है या स्मृति की पहचान शरीर से? और यह भी कि क्या शरीर और संसार / जगत् / विश्व दोनों एक दूसरे से भिन्न, स्वतन्त्र और अलग अलग दो वस्तुएँ हैं? यह तो स्पष्ट ही है कि जिन मूल भौतिक द्रव्यों से दोनों की रचना होती है वे दोनों समान, अनन्य और उभयनिष्ठ हैं।

और पुनः जिसे कि शरीर, संसार, स्मृति और पहचान का 'आभास' होता है, क्या वह इनमें से या इन सबसे भिन्न कोई या कुछ और होता है?

इसे समझने के लिए 'अनुभव' और 'अनुभवकर्ता' के बारे में देखना होगा। आभास और अनुभव दोनों एक दूसरे से अलग अलग दो वस्तुएँ हैं। 'आभास' होने की घटना में 'वह' जिसे कि 'आभास' होता है और जिसका 'आभास' होता है, कोई तीसरी वस्तु अर्थात् कोई माध्यम बीच में नहीं होता। 'आभास' शुद्ध संवेदनमात्र (perception)  होता है, जबकि 'अनुभव', इन्द्रियों के माध्यम से होता है, इसलिए उस पर इन्द्रियों का रंग चढ़ा होता है। फिर यह "निजता" की प्रतीति, जो कि 'आभास' और "अनुभव" में समान और उभयनिष्ठ की तरह से पाई जाती है, क्या यह "निजता" -स्मृति, शरीर, संसार और अपने एक और व्यक्ति विशेष के रूप में होने की इन प्रतीतियों में से ही कोई एक या एक से अधिक का समूह होती है?

इसलिए ऐसा भी कहा जा सकता है कि 'आभास" और "अनुभव" के बीच जिस एक नई स्थिति का जन्म होता हो और जो कुछ नियत अति अल्प, अल्प या अपेक्षतया दीर्घ काल के बीत जाने के बाद विलीन हो जाती है, यही "अनुभवकर्ता" का वह सारतत्व है, जिसकी स्मृति "मैं" के रूप में मस्तिष्क में अंकित हो जाती है। और सतत ही बदलते हुए "अनुभवों" के क्रम में प्रत्येक "अनुभव" के साथ एक नये "अनुभवकर्ता" का जन्म होता है और उस "अनुभव" के बीतते ही यह "अनुभवकर्ता" भी विलीन हो जाता है। अर्थात् यह "अनुभवकर्ता" "अनुभव" नहीं, "आभास" मात्र होता है, जिसकी न तो स्मृति हो सकती है, न जो संवेदनगम्य (perceptible) ही हो सकता है।

समस्त "आभासों", "अनुभवों" और "अनुभवकर्ताओं" के आगमन और प्रस्थान के पहले, उस दौरान और उनके बाद जो आधारभूत पृष्ठभूमि इस सबसे अप्रभावित रह जाती है क्या उसे जाननेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा है सकता है? 

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