Sunday, 14 December 2025

OPEN AND CLOSE CONTOURS.

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४

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चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि-अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

कॉलेज में पोस्ट-ग्रेेजुुएशन M.Sc. Mathematics में गणित विषय का अध्ययन करते समय एक प्रोफेसर का मुझ पर विशेष ध्यान रहता था। और दूसरे प्रोफेसर मुझे झक्की, पागल या बेबकूफ समझते थे। फिर भी वे सभी मुझे talented तो मानते ही थे। इसका कारण यह भी था कि उनकी तुलना में मेरा संस्कृत भाषा का ज्ञान बहुत अधिक था और यद्यपि 1976-77 में उस समय वे सभी उच्च गणित में न सिर्फ Ph.D. D.Lit और, D.Sc. थे। किन्तु संस्कृत विषय का उनका ज्ञान नगण्यप्राय ही कहा जा सकता था और वे विनम्रतापूर्वक यह मानते भी थे। शायद यही कारण था कि कभी तो वे मुझे आदर देते थे, और कभी मेरा उपहास भी करते थे।

वे प्रोफेसर जिनकी मुझ पर विशेष कृपादृष्टि थी, हमें Complex Analysis पढ़ाया करते थे, जिसमें एक ऐसे Complex Plane के संदर्भ में उसके एक अक्ष पर real numbers और दूसरे पर imaginary numbers स्थापित किए जाते थे । संक्षेप में :

(X, iY) या (Y, iX).

और Co-ordinate Geometry के किसी गणितीय फलन (Mathematical function) के चरित्र का मूल्यांकन उस तरह से उस आधार पर किया जाता था।

उदाहरण के लिए परस्पर आश्रित दो राशियों के संबंध को व्यक्त करनेवाला कोई algebraic equation, जो Real Plane पर किसी बन्द (Closed) आकृति के रूप में व्यक्त होता था, वही Complex Plane पर खुले (Open) के रूप में हो सकता था। इसलिए इसे Closed and Open Contour कहा जाता है (ऐसा मैं कह सकता हूँ।)

इसी परिकल्पना (hypothesis) पर यदि 

TIME ASSUMED AS DURATION AND AS A MONENTARY EVENT

के मध्य किसी घटनाक्रम को चित्रित किया जाए, अर्थात् किसी CO-ORDINATE FUNCTION को PLOT किया जाए तो भौतिकीय राशि के जिस रूप में TIME का मूल्यांकन हो सकता है उसे ही क्रमशः 

अतीत,  वर्तमान और भविष्य 

की संज्ञा दी जाती है। पतञ्जलि मुनि के द्वारा इस संपूर्ण वैचारिक गतिविधि को विकल्प नामक वृत्ति कहा गया - शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।। (समाधिपाद) "फिर,

PHYSICS, CHEMISTRY MATHEMATICS 

को कैसे परिभाषित करोगे?" 

उन्होंने मुझसे पूछा। "

PHYSICS IS कर्म / ACTIVITY,

CHEMISTRY IS गुुण / QUALITY / 

MATHEMATICS IS मात्रा / QUANTITY,

AGAIN MATHEMATICS IS 

CONTEMPLATION.

Earlier when I had  recited the verse referred to as above in the beginning here, I had uttered it in other way like : 

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागयोः।।

So I had to correct myself, (though I was not wrong from the grammatical point of view), because in my view both the words convey the same sanse.

फिर अनेक वर्षों के बाद पुनः उनसे मिलना हुआ तो बोले -

"हम लोग तो D.Sc. थे, पर तुमने तो गीता पर

Post Doctoral Research 

कर ली!"

मैंने विनम्रता से उनके चरण छूकर कहा -

"यह सब आपका आशीर्वाद है गुरुवर!"

उपरोक्त श्लोक को स्मरण करते हुए प्रायः सोचता था कि क्या T GUANIN A और S नामक DNA के चार मूल जैव द्रव्य ही वे तत्व नहीं हैं जिन्हें यहाँ "चातुर्वर्ण्यं" कहा गया है!

इस पर फिर कभी!







 



Wednesday, 3 December 2025

GITA 5/1, 5/2

सांख्यनिष्ठा और कर्मनिष्ठा 

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संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ। 

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

Here Is The Lock Invisible.

संंन्यास अर्थात समस्त कर्मों का सम्यक न्यास कर देना उन्हें संपूर्णतः न तो सैद्धांतिक दृष्टि से और व्यावहारिक दृष्टि से भी संभव है क्योंकि कर्ममात्र प्रकृति के गुणों के माध्यम से घटित होते हैं-

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

(अध्याय ३)

प्रकृति का अर्थ है - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकारयुक्त अंत:करण और भौतिक प्राण, इंद्रियों और चेतनायुक्त शारीरिक जीवन। इसलिए अपने स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता ही वह दोषपूर्ण त्रुटि है जिसे अविद्या कहा जाता है। अविद्या अस्मिता राग-द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों में से सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रथम क्लेश है जो प्रकृति के गुणों के माध्यम से कार्यरूप ग्रहण करता है और घटित होता हुआ प्रतीत भी होता है। इस प्रकार का घटनाक्रम केवल प्रतीति ही होता है, वास्तविक नहीं होता। चेेतना में हो रही इसी प्रतीति को प्रत्यय, संवेदन या वृत्ति (mode of the mind) कहा जाता है। इसी वृृत्ति को मन, बुद्धि, चित्त अहंकार और इनके संयुक्त या पृथक् पृथक् दिखाई देनेवाले इंद्रिय बुद्धि और मनोगम्य विषयों से संबंधित गतिविधि के रूप में भी जाना जाता है। इससे ही मन में -

यह मैंने किया, मैंने नहीं किया, मैं कर रहा हूं, मैं नहीं कर रहा हूं, जैसी विभिन्न मान्यताएं अस्तित्व ग्रहण करती हुई प्रतीत होती हैं और जिनमें समान रूप से विद्यमान "मैं" नामक तत्व की सत्यता पर संदेह तक नहीं होता, क्योंकि ऐसा कोई संदेह करनेवाला कहीं होता ही नहीं। इसे ही प्रमाद (in-attention) कहा जाता है, जो प्रकृति के रजोगुण का प्रभाव होता है। चूंकि समस्त इंद्रियां स्वभाव से ही बहिर्मुख अर्थात् विषयाभिमुख होती हैं इसीलिए उनसे संलग्न मन भिन्न-भिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर चंचल रहता है, जो प्रकृति के रजोगुण का विक्षेप (distraction) नामक प्रभाव होता है।

केवल और शुद्ध भानमात्र ही वह प्रकाश (light) होता है जिसे सतोगुण कहा जाता है।

इस प्रकार - कर्म और कर्ता केवल मान्यता ही हो सकते हैं न कि वास्तविकता। इसी प्रकार की एक मान्यता अहं (आत्मा) के देह-मन-बुद्धि-चित्त में अस्मिता के रूप में व्यक्त होती है जो पुनः क्लेश ही है।

गीता अध्याय १८ में वर्णित निम्न श्लोक के अनुसार-

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुः त्यागं विचक्षणः।।२।।

दोनों ही स्थितियों में अस्मिता कर्तृत्वभाव के रूप में विद्यमान होती ही है जबकि अध्याय ५ के निम्नलिखित श्लोकोॅ में जो स्पष्ट किया गया है तदनुसार-

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित् पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

संक्षेप में -

आत्मानुसंधान / सांंख्य योग / ज्ञानयोग और कर्मयोग 

तपःस्वाध्यायेेश्वरप्रणिधानः क्रिययोगः।।

दो ही निष्ठाएं पात्रता के अनुसार आध्यात्मिक दृष्टि से समान रूप से श्रेयस्कर हैं।

*** 










Monday, 1 December 2025

THE PSYCHE.

भाव और भाव-व्याधि

भव से भाव का जन्म होता है,

और भाव से भावना का जन्म होता है।

भावना से ध्वनि का जन्म होता है, 

ध्वनि से भाषा और शब्द (word) का जन्म होता है।

भाषा से अर्थ  (sense) का जन्म होता है।

अर्थ से विचार (Thought) का जन्म होता है।

विचार से अर्थ और अर्थ से विचार के साहचर्य से कल्पना का जन्म होता है।

विपर्यय और विकल्प किसका?

प्रमाण-वृत्ति का।

विपर्यय से भ्रम का जन्म होता है,

जबकि विकल्प से विक्षेप का।

प्रमाणविकल्पविपर्ययनिद्रास्मृतयः।।६।।

इन्हें ही चित्त की वृत्ति कहा जाता है।

प्रत्यक्षप्रमाणागमाः प्रमाणानि।।७।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।१०।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः वृत्तिः स्मृतिः।।११।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।।६।।

...

ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

त्रयमेकत्रः संयमः।।४।।

तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।

प्रज्ञानं ब्रह्म।।

किमिति तद् ब्रह्य?

जडं, चेतनः, जीव-ईशौ, सर्वमिति।।

जडं वेदनीयं परेण। 

चेतनः - वेदनीयः स्वेन स्वया आत्मना आत्मना च आत्मन्यपि।। 

ईशः - ईश्वरः

सर्वम् खलु इदं ब्रह्म।।

सर्वभूतेषु येनैकं

भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु

तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।२०।।

(गीता, अध्याय १८)

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। 

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।६९।।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः

प्रविशन्ति यद्वत्।

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे

स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।७०।।

विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः। 

निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।७१।।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। 

स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।

यह है सांख्यज्ञान

--निरंतरम्--

***



  



Sunday, 30 November 2025

THE CHAIN.

भव-व्याधि

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जीवन शरीर को जन्म देता है,

शरीर चेतना को। 

चेतना अनुभव को जन्म देती है,

अनुभव अज्ञान को। 

अज्ञान अनुभवकर्ता को जन्म देता है, 

अनुभवकर्ता स्मृति को। 

स्मृति सातत्य को जन्म देती है, 

सातत्य समय को।

समय अतीत को जन्म देता है, 

अतीत भविष्य को। 

भविष्य लोभ को जन्म देता है, 

लोभ भय को। 

भय हिंसा को जन्म देता है,

हिंसा क्रोध को,

क्रोध ग्लानि को जन्म देता है, 

ग्लानि अवसाद को।

अवसाद विक्षेप को जन्म देता है, 

विक्षेप उन्माद को। 

उन्माद अंत है,

जो मृत्यु तक ले जाता है।

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Monday, 24 November 2025

MODES OF MIND.

02:43 a. m. 

महात्मा और महापुरुष 

इस पोस्ट को लिखने से अपने आपको बहुत रोका, फिर सोचा कि लिखकर कुछ समय बाद डिलीट कर दूँगा।

प्रायः रात्रि में तीन बजे नींद खुल जाती है। पता नहीं कि क्या इसका कोई विशेष कारण होता है या यह बस एक संयोग ही है। बरसों से ऐसा है इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। और इस पर भी कभी ध्यान नहीं दिया कि नींद से जागते ही लघुशंका के लिए जाना होता है। क्या मेरे साथ ही ऐसा है? या कि दूसरे सभी के साथ भी ऐसा होता है, इस पर भी कभी ध्यान नहीं गया।

वर्ष 1991 में जब नर्मदा किनारे रहता था और जब भी नहाने के लिए नदी में उतरता था तो भी यही होता था। अचानक लघुशंका का वेग जाग्रत हो उठता था। नदी या जलाशय में ऐसा करना शास्त्र के अनुसार भी निषिद्ध है यह भी बहुत पहले से पता था इसलिए मैंने नदी में स्नान करने ही बंद कर दिया। फिर सोचा पहले नदी से बाहर कुछ लोटा जल शरीर पर उँडेल कर नदी से कुछ दूर इस वेग से मुक्त होकर फिर नदी में प्रवेश किया जाए। किन्तु  यह भी कभी कभी इसलिए संभव न हो पाता था क्योंकि आसपास बहुत से दूसरे लोग हो सकते थे। तब से अब तक कभी नदी में स्नान ही नहीं किया। एक बार नदी से इस बारे में मन ही मन प्रश्न किया तो वह बोली - सभी प्राणी मेरे लिए वैसे ही हैं जैसे किसी माता का नवजात शिशु उसके लिए होता है। पर मैं इस तर्क को स्वीकार न कर पाया। अभी कुछ समय पहले एक स्थान पर किन्हीं  महात्मा जी के द्वारा इन स्थितियों का उल्लेख किए जाने पर मेरा ध्यान इस ओर गया। ऐसे ही एक और महापुरुष का स्मरण हुआ जो बचपन में कुएँ में उतरकर नहाते थे, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया था।

हो सकता है कि शरीर-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह घटना  किसी विशेष महत्वपूर्ण तथ्य की सूचक होती है। शायद इसलिए भी क्योंकि इस प्रकार से शीतल या उष्ण पानी से स्नान करते समय मन में न चाहते हुए भी अनायास ही एकत्र हुए अनेक दबावों और कुंठाओं से भी क्षण भर में ही मुक्ति हो जाने होने से मन एकाएक ही बहुत हल्का और प्रफुल्ल भी हो जाता है। और महात्मा जी ने इसका भी उल्लेख किया था।

किन्तु यह भी लगा कि सनातन धर्म में विभिन्न मुहूर्तों पर तीर्थों में स्नान को इतना महत्वपूर्ण क्यों कहा गया होगा। जिन देशों में नदियाँ और तालाब आदि नहीं हैं वहाँ पर भी समुद्रों के तट पर लोग प्रसन्न होकर जलक्रीड़ा करना चाहते हैं!

स्पष्ट है कि इस प्रकार से मन अनायास ही उस अवस्था में चला जाता है जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े योगी, तपस्वी जप तप, उपासना और व्रतों आदि अनेक कठिन तरीकों का प्रयोग करते हैं।

क्षण भर के लिए मन निर्भर हो जाता है और निर्विचार अवस्था में स्वभावस्थ हो जाता है। स्वभाव कोई वृत्ति न होकर वह अवस्था है जब अपने आपके दृष्टा-मात्र होने की वास्तविकता स्वयं पर अनायास प्रकट / उद्घाटित हो उठती है। 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।

फिर अचानक यह बोध भी उत्पन्न हुआ कि प्राणिमात्र में काम के प्रति इतना प्रबल और स्वाभाविक आकर्षण क्यों होता है?

काम-कृत्य की चरम पूर्णता में मुक्ति प्राप्त होने का जो परम आनन्द मन को क्षण भर के लिए अनुभव होता है, क्या उसकी ही स्थायी प्राप्ति के लिए मन हमेशा ही लालायित नहीं रहता?

क्या तुरंत ही कोई वृत्ति आकर उस अनुभव को आवरित नहीं कर लेती है?

संभोग से समाधि की ओर

के दर्शन को प्रस्तुत करनेवाले महापुरुष शायद इसी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे।

सिद्धान्ततः इससे इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु इस दर्शन की गहराई को समझनेवाले इने गिने लोग ही हो सकते हैं। और शायद इसीलिए किसी में इतना साहस नहीं हो सका कि सरलता से उन महापुरुष के दर्शन को खुले आम स्वीकार कर सकें। और यदि किसी में ऐसा साहस था भी तो वे कुछ भोगवादी पाश्चात्य विचार के समर्थक जिन्हें सतत और अंतहीन भोग में ही जीवन की चरम सार्थकता प्रतीत होती थी।   

***

 

Friday, 21 November 2025

FOMO, FOFO, ...

AND THE FEAR OF BEING LOST.

Mind or the Individual consciousness is a funny thing. 

There is this Fear of Missed Out,

Then,

There is this Fear of Finding Out -

Something which one doesn't want to see and come face to face with. 

For example when a suspicion raises its head.

Like if you've contracted Covid-19.

Then still there is yet another one :

The Fear of being found out by those who you don't want to see or talk to.

They have named These conditions : FOMO and FOFO.

Maybe the last one could be given the name :

Fear of Being coming Face to Face with the Reality, which one always tries to run away from.

And what about when you come across :

The Fear Of Being Lost?-

FOLO? 

I wonder if there is anyone on the earth who never had this fear.

In the first place, isn't this fear quite an irrational and illogical too?

How could one possibly be Lost?

Possibly Maybe for others but could one be Lost to oneself? 

One can say :

I was Lost in thoughts,

My mind was distracted.

This is really the beginning of the ignorance about the Reality of oneself. 

Still almost everyone becones a victim to this because of sheer In-attention only. 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोक २७;

Shrimadbhagvadgita,

chapter 7, verse 27;

Points out ;

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

The feeling : I'm Lost.

Is itself a self-contradictory idea.

No one can say this to one-self,

No-one, other than your-self could be an evidence to this and could point out this to you.

***  


 








Wednesday, 12 November 2025

The Funeral.

दोहराव 

कविता

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सबके ही हैं हाथ बन्धे,

अपने स्वार्थ में सब अन्धे,

सबकी अपनी शवयात्रा है,

खुद को ही सब देते कन्धे।

बाँया कभी, कभी दाहिना,

दोनों ही कन्धे दुखते हैं,

अदल बदल कर चलते हैं,

इसी बीच कुछ रुकते हैं, 

जब आ जाती है मंजिल,

कुछ इंतजार भी करते हैं,

फिर सब जल्दी से हो जाए, 

उम्मीद यही सब करते हैं।

घर पर लौट, स्नान विश्राम,

फिर उठकर बाकी के काम, 

फिर अगले दिन की तैयारी,

फिर अगले दिन भी यही काम!

यूँ ही तो हर दिन होता है,

इंसान सुबह को उठता है,

थककर रात, सो जाता है,

इंसान ही क्या, उसकी दुनिया,

दुनिया से यही तो नाता है!!

***








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