अभिमान और त्याग
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।।
(गीता अध्याय ९)
निवृत्तिनाथ, सोपान, ज्ञानदेव और मुक्ता ये चारों थे तीन भाई और उनकी एक बहन। सबसे ज्येष्ठ थे निवृत्तिनाथ, उनसे छोटे सोपान, सोपान से छोटे ज्ञानदेव और तीनों से छोटी थी मुक्ता।
वे चारों ही अपने पूर्वजन्म में ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ ज्ञानी की स्थिति प्राप्त कर चुके थे। संसार से उनके पिता का घोर वैराग्य होने पर भी प्रारब्ध से उनके माता पिता ने उनका विवाह कर दिया था और फिर शीघ्र ही वे घर से चले गये। घूमते हुए वे काशी पहुँचे और किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ तत्वज्ञानी संन्यासी से संन्यास दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हें दीक्षा प्रदान करनेवाले गुरु से दीक्षा प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक साधना में संलग्न हो गए। उनकी धर्मपत्नी को जब पता चला कि वे काशी में हैं और उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया है, तो अपने पति की खोज करते हुए वे काशी जा पहुँची। अपने पति के संन्यास दीक्षा देनेवाले उस गुरु से वे मिली और उन्हें यह जानकारी दी। तब उन दीक्षागुरु ने उनके पति से कहा कि उनकी संन्यास दीक्षा में विधि का उल्लंघन हुआ है इसलिए वे इसके अधिकारी नहीं हैं। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि पहले वह गृहस्थ आश्रम में लौट जाए और फिर उपयुक्त समय आने पर ही उन्हें संन्यास दीक्षा दी जा सकेगी। वे लौट आए और बहुत समय तक जैसे तैसे गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का निर्वाह करने लगे। इस बीच उनके गाँव और समाज के लोग संन्यास ले लेने के बाद गृहस्थ आश्रम में लौट आने से उन्हें ताने देने और अपमानित करने लगे। इस तरह से जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें ये चार संतानें प्राप्त हुईं। ये चारों अभी बच्चे ही थे कि उनके माता पिता ने गाँव और समाज में निरंतर हो रहे अपने अपमान से क्षुब्ध होकर जीते जी चिता प्रज्वलित कर आत्मदाह कर लिया।
उनकी इन चारों संतानों का जन्म और जीवन उनके लिए यद्यपि एक नाटक या लीला ही था क्योंकि वे पूर्वजन्म से ही ब्रह्मनिष्ठ और आत्मनिष्ठ होते हुए और अनन्य भाव से परमात्मा का चिन्तन करते हुए अनायास परमात्मा की अनन्य भक्ति में संलग्न थे।
चित्त में यह भक्ति जागृत होने के लिए यह आवश्यक है कि अभिमान का पूर्ण और स्वाभाविक रूप से त्याग हो चुका है। यह त्याग कौन करता है? त्याग स्वाभाविक न होने पर अभिमानपूर्वक किया जाता है और यह वस्तुतः त्याग नहीं होता। अभिमान शब्द अभि उपसर्ग से युक्त मान का द्योतक है। अभि उपसर्ग का प्रयोग अभिनव, अभिराम, अभियोग, अभियुक्त, अभिषेक, अभिधा आदि समासों में देखा जा सकता है। ऊपर दिए गए श्लोक में भी इस उपसर्ग का प्रयोग "नित्याभियुक्तानां" पद में इसी अर्थ में है। यहाँ अभियोग का अर्थ आरोपी से भिन्न और यह है कि जो नित्य परमात्मा का अनन्य भाव से चिन्तन करता है और इस अर्थ में परमात्मा से अपनी अभिन्नता जानते हुए अपने आपके उससे भिन्न होने का अभिमान नहीं करता ऐसी भक्ति करनेवाला कोई भक्त। परमात्मा के प्रति ऐसी भक्ति उत्पन्न होने का कारण क्या हो सकता है यह तो नहीं कहा जा सकता है, किन्तु यह तो अवश्य सत्य है कि इससे पहले चित्त में अभिमान का पूर्ण नाश हो जाना चाहिए। यह नाश बाह्यतः तो आत्मानुसंधान से और प्रकारान्तर से संसार की अनित्यता का भान होने पर ही संभव होता है। इसे ही अनन्य निष्ठा भी कहा जा सकता है जिसे ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण होने का फल भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह कि ऐसी निष्ठा जिसे ज्ञान और योग के दो भिन्न प्रतीत होनेवाले रूपों में एक ही फल प्रदान करनेवाला कहा जाता है।
प्रायः हर मनुष्य के मन में केवल दो ही कारणों से
"ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?"
यह प्रश्न ही उठा करता है।
पहला कारण है केवल किसी से सुनकर विचार के रूप में जगत को बनानेवाले ऐसे किसी व्यक्ति, दिव्य शक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर लेने पर, या दूसरा कारण होता है जीवन में दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से अत्यन्त त्रस्त और व्याकुल हो जाने पर इनसे अपना उद्धार करनेवाले किसी उद्धारकर्ता की कल्पना से। इन दोनों ही कारणों से ईश्वर के अस्तित्व को माननेवाले या अस्वीकार करनेवाले में अपने व्यक्ति विशेष होने का भाव विद्यमान होता है। यही अभिमान है।
क्या यह अभिमान स्वयं को मिटा सकता है? क्या ऐसा कोई और उपाय हो सकता है जिससे इस अभिमान का निवारण संभव हो?
ऐसे दो ही उपाय उस पात्र और अधिकारी मनुष्य के लिए हो सकते हैं जिसमें सीधे ही आत्मा के स्वरूप को जानने की उत्सुकता या गहरी उत्कंठा हो या जो अभ्यास करता हुआ अभ्यास योग का आश्रय लेकर सतत परमात्मा का स्मरण करता है। और किस कारण से वह परमात्मा का स्मरण करता है वह कारण नहीं, बल्कि महत्व इसका है कि चित्त या मन में वह उस किसी परमात्मा का निरंतर स्मरण करता है जो उसके कष्टों को सदा के लिए समाप्त कर सकता है। और उसके मन में शायद
"ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?"
यह प्रश्न भी कभी न उठा हो।
क्योंकि जीवन में दुःख, पीड़ाएँ और कष्ट तो निरंतर और नित्य अनुभव हो रहा तथा सत्य प्रतीत होनेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर किसी को कभी सन्देह हो ही नहीं सकता। और तब वह उन दुःखों, पीड़ाओं और कष्टों से मुक्ति पाना चाहता है। कभी कभी और प्रायः हमेशा ही वह यह तक नहीं देख पाता है कि वस्तुतः ये दुःख, कष्ट और पीड़ाएँ कम या अधिक भी होते हैं तो भी मृत्यु आने तक बने ही रहते हैं और मृत्यु की विचार तो दूर, कल्पना तक कोई नहीं करना चाहता है।
जीवन और संसार को केवल क्लेश ही समझ पाने पर जो त्याग मन में उत्पन्न होता है फिर उस त्याग का भी अभिमान हो सकता और होता ही है और तब यह एक और भी अधिक कठिन प्रश्न या समस्या हो जाता है।
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