Monday, 24 March 2025

What is (in) the Name?!

My Thoughts!

मेरे विचार!

किसी से भी परिचय और बातचीत प्रारंभ करने के लिए कोई न कोई बहाना होता है, और न हो तो बना भी लिया जा सकता है।

ऐसे ही आज एक नए, अब तक अपरिचित एक व्यक्ति ने मिलने का अनुरोध करने के लिए फोन किया।

नाम सुनकर क्षण भर को लगा कि यह या तो कोई बहुत विख्यात व्यक्ति है या इस नाम से जाना जानेवाला दूसरा कोई और है।

किसी परिचित मित्र का उल्लेख करते हुए उसने मुझसे कुछ प्रारंभिक बातचीत करने के बाद कहा -

"आपके विचारों के बारे में उनसे सुना। उम्मीद है आपसे कुछ सीखने को मिलेगा।"

"मेरे विचार?"

"जी"

फिर एक-दो दूसरी बातों के बाद तय हुआ कि एक या दो दिन में वे मुझसे मिलने आ रहे हैं।

उनके नाम से यह भी प्रतीत हुआ कि शायद इस नाम से पहले उनका कोई और नाम रहा होगा और जैसे बहुत से लोग किसी समय अपने माता पिता द्वारा प्राप्त हुए नाम को बदलकर किसी कारण या उद्देश्य से दूसरा कोई नाम अपनी नई एक और पहचान बनाने के लिए रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने यह नाम रख लिया होगा। 

क्या नाम और पहचान वास्तविक हो सकते हैं! क्या नाम और पहचान एक अस्थायी और सुविधाजनक स्मृति ही नहीं होती जो बहुत अधिक समय बीतने के बाद स्वयं ही मिट जाती है!

और विचार?

जैसे किसी का नाम एक कामचलाऊ और तात्कालिक पहचान और स्मृति भर होती है, न कि ऐसी कोई वस्तु जो वह स्वयं हो, वैसे ही क्या यह संभव है कि "विचार" भी किसी के "अपने" होते हों! और यद्यपि कोई दावा भी करे कि ये विचार उसके नितान्त निजि हैं उसके अपने ही और "स्वतंत्र" भी हैं, तो भी क्या उन्हें वह अक्षरशः उन्हीं शब्दों में हमेशा याद भी रख सकता है? क्या वह वैसे भी किसी भी क्षण उसकी इच्छा के अनुसार उन्हें बदल या त्याग नहीं सकता है? और अधिक संभव तो यही है कि जाने अनजाने या और भी किन्हीं कारणों तथा परिस्थिति में वह ऐसा करने के लिए बाध्य भी हो सकता है।

विडम्बना यह है कि किसी की औरों से भिन्न अपनी कोई विशेष पहचान होती ही नहीं है, न हो ही सकती है। और जो भी होती है वह केवल कामचलाऊ, तात्कालिक और क्षणिक होती है। और इस सरल तथ्य को समझ न पाने और स्वीकार न कर पाने से हर कोई अपनी कोई स्थायी, ठोस ऐसी पहचान बनाने या स्थापित करने के प्रयास में संलग्न हो जाता है जो मन में गढ़ी या रची गई हो, और जो उसे अत्यन्त प्रिय हो। यह कोई नाम हो सकता है या कोई सिद्धान्त, शब्द जो कि किसी आदर्श का द्योतक भी हो सकता है। क्या मन इस प्रकार स्वयं ही अपने ही द्वारा सृजित किए गए एक दुष्चक्र में नहीं फँस जाता?

जब किसी का नाम भी केवल एक औपचारिकता और उपयोगिता से अधिक कुछ नहीं हो सकता तो "उसके" उन "विचारों" के बारे में क्या कहा जाए जो दिन प्रतिदिन और समय समय पर नए नए रूपाकारों में बदलते और ढलते रहते हैं?

याद आया --

"नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा...

मेरी आवाज ही पहचान है,  गर याद रहे!"

मनुष्य की आवाज़ जरूर ऐसी अपेक्षाकृत स्थिर पहचान होती है जिसे न तो कोई बदल सकता है, न भूल सकता है, भले नाम और चेहरा भूल जाए।

और अपना कोई नाम और चेहरा कहीं होता ही कहाँ है! 

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Tuesday, 18 March 2025

A Short Story.

अन्तर्दर्शन

आज सुबह एक पोस्ट लिखा था जिसमें कल के प्रसंग का उल्लेख भर किया था -

बहुत समय से यह होता रहा है कि स्वप्न जैसी किसी अवस्था में किसी दूसरे लोक से संपर्क स्थापित हो जाता है। लगभग पूरी एक कहानी मैं पढ़ रहा होता हूँ या किसी से बात कर रहा होता हूँ। सामान्य जैसे कुछ लोग मुझसे जुड़े होते हैं। कभी कभी मुझे स्मरण रहता है कि यह जो मैं देख रहा हूँ वह स्वप्न है जबकि वस्तुतः मैं कहीं सोया हुआ होता हूँ और जाहिर है कि स्वप्न की उस अवस्था में मैं यह नहीं जान सकता हूँ कि मेरा शरीर जो सोया हुआ है वह इस समय कहाँ होगा। और यह भी लगता है कि मैं फिर भी स्वप्न से बाहर नहीं जा सकता। स्वप्न प्रिय हो या अप्रिय, रोचक हो या उबाऊ, भयानक हो या मनोरंजक, पूरा होने तक चलता रहता है। कभी कभी बीच में ही टूट भी जाता है और मुझे समझ में आ जाता है कि यह अब टूटने ही वाला है, और मैं जागने ही वाला हूँ। उसी समय मन में यह खयाल भी आता है कि इस स्वप्न को भूलना नहीं है। फिर भी बहुत बार यह भी होता है कि जाग जाने पर मैं उसे चाहकर भी याद नहीं कर पाता हूँ। अचानक मानो एक पर्दा बीच में आता है और उस स्वप्न की स्मृति पर पड़ जाता है। कभी कभी कुछ याद भी रह जाता है और मैं उसे लिख रखने के बारे में सोचने लगता हूँ। कभी कभी लिख भी लेता हूँ। कभी कभी लिख पाना नहीं भी हो पाता है। लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि उस स्वप्न में भविष्य में होनेवाली घटनाओं के संकेत भी दिखलाई देते हैं। कभी कभी कुछ ऐसा भी कि वह मेरे लिए किसी नए पोस्ट को लिखने की प्रेरणा बन जाता है। 

जैसे कि बहुत दिनों पहले ऐसे ही एक स्वप्न में मुझसे एक व्यक्ति ने पूछा था :

"प्रभु" और "विभु" के बीच क्या अंतर है?

तब उत्तर में मैंने उसे गीता के अध्याय १० का यह श्लोक सुनाया था --

यद्यद्विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।४१।।

और फिर तत्काल ही अध्याय ५ के यह श्लोक भी -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।।१६।।

फिर मैंने उसे बतलाया कि प्रभु वह विश्वचैतन्य है जो कि विभूति की तरह प्रत्येक जड चेतन में बाह्यतः अभिव्यक्त होता है जबकि उस रूप में वह जड या चेतन भूत विभु वह जन्तु विशेष है जिस पर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व और व्यष्टि-स्मृति रूपी अज्ञान आवरित हो जाता है।

कोई व्यक्ति कभी कभी प्रारब्धवश उस समष्टि स्मृति से संपर्क में होता है जहाँ पर भूत, वर्तमान और भविष्य की स्मृति उसके सम्मुख होती है। तब उसे अनायास ही जिस भविष्य का दर्शन होता है वह वैश्विक समष्टि स्मृति से ही उसे दिखाई देता है। नॉस्ट्रेडेमस, बाबा वैंगा या ऐडवर्ड कैसी जैसे भविष्यदर्शी और दूसरे भविष्यवक्ता इसी तरह से भविष्यवाणियाँ करते हैं। उनके पास स्वेच्छया प्राप्त की जा सकनेवाली वह सिद्धि नहीं होती जो कि ऋषियों को योग साधना से प्राप्त होती है। और इसलिए कोई भी व्यक्ति कभी कभी तो अनायास ही भविष्य में होनेवाली किसी घटना को स्वप्न में या स्वप्न जैसी अवस्था में देख लिया करता है।

प्रभु के लिए सब कुछ अवतार रूप में उसके माध्यम से हो रही "लीला" भर होता है, जबकि विभु के लिए यही उसका प्रारब्ध होता है।

स्वप्न टूटने के बाद कुछ समय मैं इस अनुभव पर विस्मय में डूबा रहा कि इस स्वप्न ने किस प्रकार आकर मेरे मन को भावविभोर कर दिया।

यह भी थोड़ा विचित्र ही है कि इस पोस्ट में कल के जिस स्वप्न का उल्लेख मैं करना चाहता था वह नहीं कर पाया। शायद फिर कभी! 

समष्टि स्मृति या आकाशीय स्मृति

Cosmic Memory. 

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Monday, 17 March 2025

The Tradition.

शिक्षा भाषा और परंपरा

संस्कृत शास् - शासयति धातु से व्युत्पन्न शिक्षा शब्द का प्रयोग शासन करने और पर्याय से किसी और को उचित  आचरण करने के लिए मार्गदर्शन देने के अर्थ में होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् का प्रारंभ ही शीक्षा वल्ली से होता है। यह जानना रोचक होगा कि हिन्दी और समूचा भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित "शाह" उपनाम इस "शास्" का ही अपभ्रंश है जो फ़ारसी और संभवतः अरबी भाषा में "शाह" में परिणत हो गया। यह इसलिए भी हो सकता है कि इससे जुड़ा एक और शब्द "पाद" भी "पद" के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इन दोनों पदों के समास से बना शब्द "पादशास्" का प्रयोग उस पुरातन समय से प्रचलित है,  जब भगवान् श्रीराम के भाई भरत और शत्रुघ्न को मामा के घर से अयोध्या लौटने पर पता चला कि माता कैकेयी को महाराज दशरथ के द्वारा दिए गए दो वचनों को पूरा करने के लिए श्रीराम को चौदह वर्ष के लिए वनवास में भेज दिया गया है और माता सीता तथा भाई लक्ष्मण भी उनके साथ वन को चले गए हैं।

अनुनय विनय और आग्रह ने के बाद भी भगवान् श्रीराम ने जब अयोध्या लौटना अस्वीकार कर दिया तो भरत ने उनसे उनकी पादुकाएँ माँगी ताकि श्रीराम के वनवास की अवधि में उन्हें ही अयोध्या के राजसिंहासन पर रखकर अयोध्या पर शासन करने के श्रीराम के राज्याधिकार के दायित्व और कर्तव्य का निर्वाह भरत कर सकें।

पुनः चौदह(सौ) वर्षों के वनवास के बाद भगवान् श्रीराम अयोध्या में विराजमान हो चुके हैं, और अब आर्यावर्त के विद्वज्जन पुनः "सतयुग" के आगमन की चर्चा करने लगे है। यह कहाँ तक और कितना सत्य है यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।

(कल ही सुबह अपने अन्तर्दर्शन में देखा था। कोई कुछ कह रहा था। उसे अगले पोस्ट में लिखने का विचार है।)

"पादशास्" शब्द का पुनः प्रयोग महाराज शिवाजी द्वारा उनके गुरु समर्थ श्री रामदास महाराज के खड़ाऊँ राज्य के राजसिंहासन पर रखकर उसी तरह शिवाजी ने किया। शिवाजी ने उसी परंपरा का अनुसरण किया जिसे भरत द्वारा स्थापित किया गया था। 

इसी "पादशास्" शब्द का फ़ारसी अपभ्रंश "बादशाह" हो गया क्योंकि अरबी भाषा के फ़ारसी भाषा में लिप्यन्तरण करने पर "प" के लिए "ब" का प्रयोग किया गया और जैसा कि हम जानते ही हैं कि किस प्रकार संस्कृत "स" वर्ण फ़ारसी / अरबी भाषा में "ह" हो गया और यही "स" लैटिन / अंग्रेजी में "s" हो गया होगा। लिपिसाम्य का यह भी एक उदाहरण है।

फ़ारसी का "बादशाह" फिर मुगलों के काल में राजा के अर्थ में प्रचलित हुआ।

महाराज शिवाजी के समय में उनकी परंपरा में भी इस शब्द के प्रयोग से इसकी ही पुष्टि होती है।

दूसरी ओर, "परंपरा" शब्द का अर्थ है पर से भी पर और इससे ही व्युत्पन्न "परंपरा" का अर्थ प्रकारान्तर से "रुढ़ि" भी हो गया।

मनुष्य चूँकि एक सामाजिक और विकासशील प्राणी है, इसलिए शासन और शिक्षा दोनों परंपरा और अनुशासन दोनों रूपों में ऐतिहासिक यथार्थ हैं। शिक्षा से परंपरा का और परंपरा से शिक्षा का विकास और विस्तार होता है। फिर विभिन्न समूहों में परस्पर संबंध और स्पर्धा होती है

पुनः अपनी जड़ों की तलाश शुरू होती है।

शाक्यमुनि गौतम, वाजश्रवा, भार्गव भृगु ऋषि की परंपरा के थे जिनका उल्लेख कठोपनिषद् में पाया जाता है। ये सभी ऋषि मूलतः वे सात ऋषि हैं जिन्हें हम उत्तर दिशा में ध्रुव तारे की परिक्रमा करते हुए देखते हैं। पूरे संवत्सर में वे आकाश में दक्षिणावर्त (clockwise) स्वस्तिक के रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे घड़ी के काँटे जिस दिशा में गति करते हैं, उसी प्रकार से।

वैदिक परंपरा की ही तरह बौद्ध, जैन आदि अवैदिक परंपराओं ने भी स्वस्तिक को यह स्थान दिया और इस प्रकार धर्म को वैदिक या अवैदिक दोनों रूपों में सनातन के ही अर्थ में मान्य किया गया।

बुद्धावतार के बाद तुर्कों और मंगोलों (मुगलों) के द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के बाद भगवान् श्रीराम को पुनः चौदह (सौ) वर्षों के लिए वनवास में रहना पड़ा। यह सब केवल संयोग ही है या विधि का विधान है, इसे कौन जान सकता है? इजिप्ट / अवज्ञप्ति, जिसे मिस्र भी कहा जाता है और जो मिशनरी परंपरा का प्रारंभिक रूप था, उससे उस कबीले के निष्कासन के बाद वह कबीला  मरुस्थल में भटकते रहा जहाँ अंगिरा (मुण्डकोपनिषद्)  ने शौनक को उस सत्य का उपदेश किया जिसे "अब्रह्म" या अब्राहम / इब्राहिम नामक प्रथम संदेशवाहक के नाम पर अब्राहमिक परंपरा कहा जाता है। "अंगिरा" का ही सजात / सज्ञात / cognate है - "Angel", और इसी परंपरा के  ऋषि जबाल / जाबाल ऋषि को ही, 

Abrahmic Tradition

में  Gabriel Angel  के रूप में ग्रहण किया गया। 

उल्लेखनीय है कि परशुराम भी इसी भृगु-वंश में उत्पन्न हुए थे जिनका साम्राज्य गोकर्ण (गोआ) से पार्श्व दिशा में फारस तक था ।

शाक्यमुनि स्पष्टतः शक परंपरा में उत्पन्न शुद्धोधन के पुत्र राजकुमार सिद्धार्थ थे।

सिद्धार्थ को निरञ्जना नामक नदी के तट पर सुजाता नामक वनदेवी ने पीने के लिए दूध अर्पित किया था। यह भी शायद संयोग है कि सिद्धार्थ ही पूर्वजन्म में अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोड / कहोल / कहोळ थे जिन्हें वरुण ने अपहृत कर लिया था ताकि वह किसी यज्ञ में पुरोहित का कार्य कर सकें। वरुण पश्चिम दिशा के ही "वसु" हैं। इन सभी सन्दर्भों का उल्लेख मैंने अपने कुछ ब्लॉग्स में किया है,  लेकिन सब बिन्दुओं को जोड़ पाना मेरे लिए थोड़ा श्रमसाध्य तो है ही। हाँ, जिन्हें उत्सुकता हो शायद वे धैर्यपूर्वक इस सबका अध्ययन कर सकते हैं।

यहाँ यह सब केवल स्मृति-सूत्र (record) के रूप में संजो रखने के लिए है।

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Saturday, 15 March 2025

Quantum Fields are Conscious.

Thus said a Physicist.

This much I read today in the morning.

Now they are talking! 

Way back in 1976-77 when I was doing my Post-graduation in Mathematics I already knew how a "Space" differs from a "Field".

So this makes sense to me.

I can see they would sure "discover" -

There are 33 Quantum Conscious Fields in all, and there are 7 Quantum Spaces.

A Space and a Field are independent, disjoint and "Conscious" manifestations too,  yet they share the one and the same charecristics of being Conscious.

Reverse Engineering.

I was going through some videos about the classical scriptures.

Going through the scriptures involves the risk of misinterpretation and even the  sincere scholars most often get trapped into conflict and confusion.

The story was of Shrikrishna, Devaki Mata, Nanda Baba Yashoda Vasudeva and Kansa.

Most of the Hindu / SanAtana Dharma people know this scripture / story either in the form of KathA as narrated in the purANa of the various names that look quite different in their style and Time.

All the different purANa belong to the  different Times  / Era / Year / of the kind of Space and Time.

The 33 conscious Quantum Fields could be compared to the devatA Principle in the purANa and the Veda. 

There are Vedika devatA that find place in the four Veda(s) and in the purANa.

The Vedika devatA are the 33 Fields / Realms, while the pauraNika are of the manifest form.

For example when we talk about devatA - gaNapati, This could be either as in the Rgveda maNDala 2 : 21,22, 23,24 or as is in the gaNapati atharvasheerSha.

Or, maybe as is depicted in the gaNesha purANa, shiva purANa, agni purANa, devI PurANa and so on so forth.

Likewise are the rudra / रुद्र, skanda / स्कन्द, agni/ अग्नि , vAyu / वायु, Indra / इन्द्र, Surya / सूर्य, Soma / सोम, varuNa / वरुण , devI / देवी 

These Divine Entities are the examples of the Abstract Conscious Fields, but their depiction as is narrated in the purANa are their manifest forms.

Back to :

Krishna, DevakI, Vasudeva, Yashoda,  Nanda and Kansa.

All they are The Supreme Divine Reality that is the Unique Principle :

KrishNa / श्रीकृष्ण 

Either as in the potential unmanifest or as in the manifest one.

KrishNa is the sat / सत्  the Supreme and the absolute Reality, while cit / चित् / चिति  / DevakI, the Divine consciousness aspect of the same.

Vasudeva / वसुदेव  is the Divine Father Principle, and KrishNa as The son of DevakI and Vasudeva / वसुदेव  is Ishwara / व्यक्त ईश्वर - The same Supreme Reality as KrishNa as he manifest Principle, having a name and a form too.

DevakI / देवकी  and Vasudeva / वसुदेव  are thus the material aspect / Prakriti  and the consciousness together.

The Ishwara / ईश्वर  thus took the human form through the two - namely Devaki and Vasudeva.

Thereafter comes the parents - Nanda bAbA and YashodA.

Nanda means play, joy  while the word YashodA means the fame / glory.

Then comes Kansa  - a fictitious name and form who is brother of DevakI. The maternal Uncle of Ishwara / ईश्वर  as the sin of manifest Nanda and YashodA, who adopt Ishwara as their second son. They have already another named balarAma / बलराम .

बलराम - बल राम  is the power inherent and latent.

Kansa / कंसः 

is the fictitious human being the brother of DevakI,

The word "Uncle" comes from and us a cognate of  the Sanskrit word अंश / अंशलः which we again see in the "ounce"...

This Uncle is the ignorance of the Real Divine Who is KrishNa Himself. 

purANa is / are a literary epic and poetic narrative of :

the Creation / सृष्टि,

the Sustainance  / preservation / रक्षण 

and the consequent Dissolution  /  संहरण 

Existence as such is therefore really a cycle of :

Creation - Preservation - Dissolution. 

Time  काल  has also a Divine role to play either as a Reality in the form of the seed and also as the manifest existence which the individual calls one's own world.

There are as many innumerable worlds and each one is independent of all the other such words.

The Universe as such is the material manifest  व्यक्त प्रकृति,  while the  Ishwara / ईश्वर  is the son of the :

Divine Supreme : अध्यात्म 

In between is the :

Divine Nature / दैवी प्रकृति  - Dharma,  and in contrast and comparison there is the Evil  / आसुरी प्रकृति  - कं सः? 

Who  is the one this evil? 

He is appropriately pointed out as :

Kansa .

This is an example of :

Reverse Engineering.

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Monday, 10 March 2025

Mind Is The Matter.

The Exploration.

पहले अंडा या पहले मुर्गी?

विज्ञान के लिए यह प्रश्न एक पहेली हो सकता है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रश्न का जन्म बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है। जबकि बुद्धि का स्वामित्व और साक्षित्व बुद्धि का विषय नहीं है।

पहले आचरण / उपयोग करें, फिर विश्वास करें!

धर्म पर चलने या धर्म का आचरण करने के लिए उसे न तो जानने और न ही मानने का प्रश्न होता है, क्योंकि धर्म तो प्रकृति के द्वारा पहले से सुनिश्चित वस्तु-स्वभाव होता है, जिसका बुद्धि से संबंध नहीं हो सकता। दूसरी ओर, बुद्धि स्वयं प्रकृति ही है जबकि बुद्धि का स्वामी होने का दावा करनेवाला अहंकार है, जो कि यद्यपि क्षण क्षण प्रकट और विलीन होता रहता है, यह आभासी क्रम ही कल्पित निरन्तरता / सातत्य है, न कि वास्तविकता / सत्यता।

यह क्रम अनित्य होने से निजता से भिन्न, आभास मात्र है, जो क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होता रहता है, जबकि वास्तविक न तो प्रकट होता है न अप्रकट ही होता है।

बुद्धि को वास्तविक और अवास्तविक के बीच की क्षणिक सीमा-रेखा की तरह देखा जा सकता है।

यह "देखा जाना" ही साक्षित्व है जो दृश्य और देखनेवाले से न तो प्रभावित होता है, न उन्हें प्रभावित ही करता है।

पुनः अहंकार भी इसी साक्षित्व में विद्यमान निजता का प्रतिबिम्ब होता है जो कल्पित दृश्य और उसे देखनेवाले के बीच के सेतु का कार्य करता है और क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त / अप्रकट होता रहता है और साक्षित्व पर ही अवलंबित, आश्रित और निर्भर होता है।

इसलिए साक्षित्व स्वतंत्र वास्तविकता और निजता का सार है, जबकि अहंकार केवल इस निजता के प्रकाश में बनते मिटते रहने वाला छाया-अस्तित्व। 

मुर्गी और अंडे में से पहले कौन की तरह ही अहंकार और संसार का परस्पर संबंध है। वैज्ञानिक संभवतः मुर्गी पहले या अंडा पहले का कोई सैद्धान्तिक उत्तर खोज लें, लेकिन यह जानना कि अहंकार या संसार में से पहले कौन, इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कभी कोई पा सकेगा!

"पहले ईश्वर या संसार?"

यह प्रश्न इसी प्रकार का एक प्रश्न है और  इस दृष्टि से यह भी पूछा जा सकता है कि संसार तो प्रत्यक्षतः अनुभव की जानेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती, जबकि ऐसा ईश्वर, जिसने इस संसार को बनाया होगा, जब उसे अनुभव कर पाना ही बहुत दूर की बात है, तो उसे इस्तेमाल कर पाना कल्पनातीत ही होगा।

सनातन धर्म वैदिक हो या वेदविरोधी या उससे भिन्न आस्तिक हो, ईश्वर की मान्यता का आग्रह नहीं करता और उसके अस्तित्व पर प्रश्न भी नहीं करता जबकि अब्राहमिक परंपरा में ईश्वर के बारे में -

"पहले विश्वास करें फिर इस्तेमाल करें!"

का आग्रह किया जाता है। ऐसे किसी ईश्वर के "एक" होने (की मान्यता) को अकाट्य और तर्कसंगत सत्य माने जाने का आग्रह भी किया जाता है। सांख्यनिष्ठा या बौद्ध / जैन मत में, यहाँ तक कि अद्वैत मत में भी, ईश्वर के "एक" होने या एक न होने के प्रश्न को गौण समझा जाता है क्योंकि "एक" और अनेक पुनः अस्तित्व या प्रकृति का "गुण" होता है न कि स्वरूप। एक टोकरी में तीन आम और चार संतरे रखे हों तो संख्या की दृष्टि से यद्यपि वे सात फल होते हैं, किन्तु फल की दृष्टि से दो ही होते हैं।  इसे और सरल तरीके से समझने के लिए उदाहरण कुरूप में यह भी कह सकते हैं कि तीन आम (या चार संतरे) भी फल की दृष्टि से "एक" किन्तु "संख्या" की दृष्टि से "अनेक" होते हैं। इसलिए जैसे अस्तित्व "एक" होते हुए भी उसे विविध प्रकार और रूपों में देखा जाता है "ईश्वर" भी "एक" होते हुए भी अनेक की तरह अभिव्यक्त  है और इससे उसके "एक" होने की सत्यता पर आँच नहीं आती। इसीलिए अद्वैत मत का प्रतिपादन करनेवाले दृश्य और दृष्टा के भेद को मिथ्या कहते हैं क्योंकि न तो दृश्य और न ही व्यक्ति के रूप में किसी पृथक्  दृष्टा का ईश्वर / अस्तित्व से अलग, स्वतंत्र कोई अस्तित्व हो सकता है।

यही व्यक्ति जब अपने आपको "साक्षी" मानता है तो अस्तित्व / ईश्वर का ही दृष्टा और दृश्य के रूप में काल्पनिक विभाजन कर लेता है। कल्पना क्षण क्षण आती और जाती रहती है अर्थात् "नित्य" नहीं, बल्कि आभास मात्र होती है, जबकि भान / बोध कल्पना पर आश्रित या उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके विपरीत, भान या बोध ही वह अधिष्ठान है जो स्वप्रमाणित निजता और नित्य सत्य ही है। वह "एक" है, ऐसा कहना अनुचित न होगा किन्तु उसे "एक" कहते ही केवल प्रमादवश, अपने आपसे भिन्न की तरह भी मान लिया जाता है। फिर उसे "ईश्वर" कहें या "परमात्मा", वही एकमात्र "पूज्य" हो जाता है। "पूज्य" होने के लिए "स्मरणीय" होना भी अपरिहार्यतः आवश्यक होता ही है। तब उसे "नाम" भी देना होता है, और तब एक नया ही दुष्चक्र पैदा हो जाता है जिसे मस्तिष्क का विकार भी कह सकते हैं।

यही मन है!

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Thursday, 6 March 2025

The Undercurrent.

यहाँ से जाना है कहीं!

जब मैं लगभग सात आठ वर्ष का था, तब से मन में यह विचार अकसर उठता रहता था कि

"यहाँ से जाना है।"

तब एक दिन घर से निकलकर एक रोड पर सड़क पर चलता हुआ दूर तक चला गया था और सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर लिखा देखा था -

विश्रामगृह!

तब मुझे आश्चर्य हुआ था कि यहाँ इस पत्थर पर यह क्या और क्यों लिखा है, किसके लिए, क्या जरूरत थी!

यह स्मृति अब तक वैसे ही तरोताजा है! 

इसका गूढ अभिप्राय क्या था इस ओर यद्यपि उस समय तो मेरा ध्यान बिलकुल नहीं जाता था, बस यह विचार यूँ ही मन में कभी कभी आता रहता था। उस समय में भी मैं अपने आपको अकसर वैसा ही निपट अकेला अनुभव किया करता था जैसा कि अब भी किया करता हूँ। बीते हुए इन पैंसठ वर्षों में यह विचार / अनुभव मेरे मन की गहराई में नींव की तरह स्थिर है। बीच के समय में मैं एक हद तक दुनिया में और भारत में काफी भ्रमण कर चुका हूँ। एक बार घर से चल पड़ने के बाद ही तात्कालिक रूप से यह तो पता होता था कि मुझे कहाँ जाना है, लेकिन वापस घर आने के बाद फिर वह विचार कि 

"यहाँ से जाना है।"

मन में आग्रहपूर्वक उठने लगता था।

शिक्षा काल में यह विचार तात्कालिक प्राथमिकताओं के नीचे दबकर विलुप्त सा हो गया, लेकिन फिर जॉब करते समय बार बार ध्यान खींचता रहता था और अन्ततः जब तक जॉब छोड़ ही नहीं दिया, तब तक बना ही रहा था।

जॉब छोड़ते समय मन भविष्य की चिन्ता से किसी हद तक मुक्त तो हो गया था क्योंकि अब मैं स्वतन्त्र रूप से यह सोच सकता था कि मुझे कैसे जीना है, आगे क्या करना है। जिस जीवन स्तर को मैं जी रहा था उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट था और जॉब करते समय लोग मुझे जिस दृष्टि से देखते थे वह भी अब मेरे लिए समस्या न रहा। विवाह न करने का निश्चय तो बचपन से ही मन में था क्योंकि मुझे स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों का तब न तो ज्ञान था और न इस बारे में मैं कोई अनुमान ही कर सकता था। स्कूल की शिक्षा पूरी होते होते और कॉलेज जॉइन कर लेने के बाद मन में साथ पढ़नेवाली हम-उम्र लड़कियों के प्रति आकर्षण पैदा हुआ और कॉलेज के सहपाठियों की कुसंगति में उम्र की स्वाभाविक उत्सुकता के साथ साथ मन उलझता चला गया। लेकिन यह स्पष्ट था कि पहले तो अपने पाँवों पर खड़ा होना आवश्यक है और बाद में ही प्रेम वगैरह के बारे में सोचा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से न तो मैं न तो स्मार्ट था, न ही मेरे पास पैसे थे। और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी स्कूल की शिक्षा छोटे से गाँव में हुई थी जहाँ मुझे मेरी परिचित कोई एक भी लड़की ऐसी न मिली जिससे मैं मिल जुल सकता था। 

और वहाँ से सीधे अपेक्षाकृत कुछ बड़े शहर में पहुँचने के बाद अचानक नए लोगों के बीच यही विचार मन में पुनः उठता था कि

"यहाँ से जाना है।"

जैसे तैसे कॉलेज की मेरी शिक्षा पूरी हुई और एक बेहतर जॉब मिलते ही घर पर मेरे माता पिता के पास हर रोज कोई ऐसा प्रस्ताव किसी कन्या के अभिभावकों की तरफ से आता जिसमें मेरे बारे में पूछताछ की जाती थी। मेरे मन में कुछ आक्रोश था तो इसलिए क्योंकि मैं महसूस करता था कि मैं नहीं मेरा जॉब ही वस्तुतः मूल्यवान था और जब तक मैं बेरोजगार था तब तक तो किसी लड़की या उसके अभिभावकों ने कभी मुझे घास तक नहीं डाली और अब वे यह उम्मीद करते हैं कि मैं उनकी लड़की से शादी कर लूँ। मैं न तो उन पर और न ऐसी किसी लड़की पर ही भरोसा कर सकता था।

और सामाजिक नैतिकता के प्रचलित तथाकथित मूल्यों के आधार पर भी मैं किसी लड़की से दोस्ती या प्रेम नहीं कर सकता था।

हाँ जिस बैंक में मैं कार्य करता था वहाँ कार्य करनेवाले मेरे सभी साथी वैसे ही दोहरे मापदण्डों को निर्लज्जता और ढीठता से जी रहे थे और मेरे बारे में ठीक से कुछ समझ पाना उनके बस से बाहर की बात थी।

उस जॉब में काम करते समय भी यही विचार बार बार मन में उठा करता था -

"मुझे यहाँ से जाना है।"

जब भी मैं किसी के सामने अपना यह विचार रखता, तो वह यही पूछता -

"तुम्हें कहाँ जाना है?"

क्योंकि वे इसी भाषा में सोचने के आदी थे।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह था कि यहाँ से जाना अधिक महत्वपूर्ण है, कहीं किसी और जगह नहीं जो कि इतनी महत्वपूर्ण हो कि मैं वहाँ जाने के लिए यहाँ से जाने के बारे में सोच रहा हूँ।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह भी नहीं था कि मुझे दुनिया या जीवन से बहुत दूर मरकर कहीं जाना है।

और शायद इसी मेरे जीवन में सबसे सुखद क्षण वे होते थे जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ "यहाँ से कहीं जाने" के इस विचार से बहुत उल्लसित हो जाया करता था और प्रसन्न अनुभव किया करता था। लगता था बस ट्रेन में ही बैठा रहूँ और यात्रा का कभी अन्त ही न हो। ट्रेन की भीड़ से बचने के लिए मैं प्रायः पहले ही से रिजर्वेशन करा लिया करता था। और कभी कभी बस से भी सफर कर लिया करता था।

फिर कहीं लॉज में एक दो दिन रात गुजारकर कहीं दूसरी दिशा में जाने के बारे में सोचता। तब भी मेरे लिए कोई न कोई तात्कालिक लक्ष्य होते थे किन्तु वे गौण लक्ष्य होते थे,  प्रमुख लक्ष्य तो यही होता था -

"यहाँ से जाना है।"

यह विचार दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में अदृश्य ही छिपा होता था।

अब उम्र के इस पड़ाव पर

"यहाँ से कहीं जाने"

का विचार धीरे धीरे क्षीण और विलुप्तप्राय होता जा रहा है। अब तो बस नींद, भूख, थकान और दुर्बलता ही मन पर हावी रहते हैं। नींद टूटते ही बाकी तीन, भूख शान्त होते ही बाकी तीन, थकान मिटते ही बाकी तीन और दुर्बलता कुछ कम होते ही बाकी तीन मुझ पर हावी होने लगते हैं।

हाँ, मुझे यहाँ से जाना अवश्य है, जल्दी से जल्दी, शीघ्र से शीघ्र, किन्तु "कहाँ जाना है?" यह सोच पाना भी मेरे लिए असंभव सा हो चला है। और उस लक्ष्य का कोई मानसिक चित्र बना पाना भी मुझे बहुत श्रमपूर्ण महसूस होने लगा है। किन्तु फिर यह भी सत्य है कि यहाँ से कहीं जाना तो अवश्य ही है !!

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Monday, 3 March 2025

Indo-Specific

ऐन्दव-आख्यान 

क्या हिन्दू धर्म है?

अंग्रेजों के जमाने से ही यह भ्रान्त अवधारणा प्रस्तुत और स्थापित की गई है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति मूलतः 'सिन्धु' शब्द के अपभ्रंश के रूप में हुई है।

'सिन्धु' शब्द का प्रयोग और उल्लेख वेदों में दो अर्थों में पाया जाता है पहला सिन्धु अर्थात् समुद्र के रूप में और दूसरा समुद्र जैसी विशालाकार नदी की तरह। 

किन्तु मेरा विचार / मत यह है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति

इन्दु 

अर्थात् उस शब्द से हुई है जो चन्द्रमा का पर्याय है।

और हिन्दू या इन्दु धर्म केवल भारत-भूमि पर ही नहीं, इन्दोनेशिया / इन्डोनेशिया तक प्रचलित था / है।

इसे तो मैं नहीं जानता कि 

ऐन्दव आख्यान

का वर्णन किस ग्रन्थ में है, क्योंकि मुझे बस यही स्मरण है कि इसका उल्लेख किसी न किसी प्राचीन ग्रन्थ में है, जिसके बारे में मैंने किसी समय पढ़ा है।

इस विषय में गहराई से शोध किया जाए तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि ऐन्दव शब्द संस्कृत इन्दु से अर्थात् 'चन्द्रमा' से व्युत्पन्न है।

और सूर्य तथा चन्द्रमा तो वैदिक ज्यौतिष् का आधार हैं। सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही वैदिक पञ्चाङ्ग में कालगणना के नियामक हैं।

इस प्रकार हिन्दु / हिन्दू, उसी धर्म की प्राचीन संज्ञा है जिसे सनातन या सनातन धर्म भी कहा जाता है।

एक प्रख्यात फ्रैन्च भविष्यवेत्ता नॉस्ट्रेडेमस की किसी भविष्यवाणी में भारतवर्ष का उल्लेख 

धर्म के नाम वाले समुद्र के देश

के रूप में किया गया है जिसका अभ्युत्थान इक्कीसवीं शताब्दी में होगा। 

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Sunday, 2 March 2025

प्रद्युम्न, संकर्षण और अनिरुद्ध

भगवान् विष्णु

के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के तीन पुत्रों के उपरोक्त तीन नामों का संभावित रहस्य क्या यह हो सकता है? :

प्रद्युम्न का अर्थ है : द्युति -

Illumination,

जड पदार्थ पिण्ड में चित्त की स्फूर्ति का जागृत होना,

संकर्षण का अर्थ है : परस्पर आकर्षण -

Attraction,

गुरुत्वाकर्षण, विपरीत चुम्बकीय या विद्युत् आवेशयुक्त कणों का एक दूसरे के प्रति होनेवाला आकर्षण, 

और अनिरुद्ध का अर्थ है : अबाध गतिशीलता -

Unchecked Unobstructed Flow.

ब्रह्माण्ड का दूर से दूर होता रहनेवाला सतत विस्तार। 

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4/40 -Applied Gita.

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

उपरोक्त श्लोक के सन्दर्भ में -

कत्रिम ज्ञान (Artificial Intelligence) और यंत्र(णा)-शिक्षा (Machine Learning) के बारे में विचार करें, तो यह कहा जा सकता है कि समस्त "विज्ञान" / Science अज्ञान का ही, अज्ञान में ही,  और अज्ञान की सीमा के भीतर ही होनेवाला उसका विकास, विकार और विस्तारमात्र होता है।

प्रारंभ में मनुष्य को पता नहीं होता कि उसे पता नहीं है। अर्थात् मनुष्य पशु की तरह ही प्रिय या अप्रिय विषयों से आकर्षित या विकर्षित होकर उन विषयों के अनुभवरूपी ज्ञान को स्मृति में एकत्रित करता है और उस अनुभव के रूप में संचित स्मृति के आधार पर "समय" या "काल" की अस्पष्ट मान्यता निर्मित कर लेता है जिसके आधार पर स्मृति में संचित अनुभवों के जोड़ को अतीत का तथा किसी भी नए अनुभव को वर्तमान का नाम देता है। इसी आधार पर वह काल्पनिक "समय" को भविष्य का नाम देकर उस भविष्य की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए भी उसका आकलन और अनुमान करने की चेष्टा करता है। यद्यपि शुद्ध भौतिक विषयों और वस्तुओं के बारे में तो यह आकलन और अनुमान लगभग 100% तक भी सत्य प्रतीत हो सकता है और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी समस्त भौतिक घटनाओं के बारे में यह आकलन और अनुमान संदेहास्पद भी हो सकता है। क्योंकि "घटना" का अर्थ है काल / समय नामक उस वस्तु का व्यवधान, जो केवल मस्तिष्क की गतिविधि का ही कल्पित क्रम है।

काल / समय के चरित्र को ठीक ठीक समझने के लिए पातञ्जल योगसूत्र के इन तीन सूत्रों का आधार लिया जा सकता है -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

इनमें से प्रत्यक्ष तो स्पष्ट ही इन्द्रियज्ञान पर आधारित वह अनुभव है जो अवश्य ही जागृत दशा में तात्कालिक रूप से होता है, और जो पुनः अनुमानपरक या निष्कर्षात्मक हो सकता है। जब एक ही विषय का अनुभवरूपी ज्ञान, ज्ञान की एक ही इन्द्रिय-विशेष के माध्यम से प्राप्त किया जाता है तो वह उससे भिन्न प्रकार का होता है जिसे एक साथ एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। जैसे नमक के टुकड़े को देखने पर उसका रंग रूप शक्कर या फिटकरी के टुकड़े जैसा प्रतीत होता है किन्तु उसे चखने पर उस टुकड़े के बारे में यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नमक है, शक्कर है या फिटकरी है। यह समस्त ज्ञान अनुभव की स्मृति के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाता है और ऐसी अनेक स्मृतियों का समूह ऐसे एक स्वतंत्र और इन्द्रियगम्य संसार के अस्तित्व में होने का आभास पैदा करता है। और फिर भी निस्सन्देह प्रत्येक मनुष्य का अपना संसार किसी भी दूसरे मनुष्य के द्वारा अनुभव किए जानेवाले और उसे प्रतीत होनेवाले संसार से पूरी तरह अलग होता है। क्या भौतिक जगत् सभी के लिए पदार्थ या द्रव्य से बनी एक वस्तु ही नहीं है?

इस प्रकार से, जिसे कि "वैज्ञानिक प्रमाण" कहा जाता है वह इन्द्रियज्ञान पर आधारित अनुभवों की स्मृतियों का संग्रहमात्र होता है और इस रूप में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा उनसे प्राप्त किसी निष्कर्ष से अधिक कुछ नहीं होता। भ्रान्तियुक्त और त्रुटियुक्त होता है और सन्देहास्पद भी। विषयों का ज्ञान जिसे होता है, क्या यह संभव है कि उस ज्ञाता को विषय के रूप में जाना जा सके? और क्या वह ज्ञाता विषय की तरह ज्ञेय हो सके? स्पष्ट है कि संपूर्ण तकनीकी और बौद्धिक ज्ञान (machine learning and Artificial Intelligence) इसी तरह इन्द्रियानुभूति तथा उन अनुभवों की स्मृतियों पर आधारित विविध जानकारियों का प्रणालीबद्ध एक समूह भर होता है।

इसलिए समस्त वैज्ञानिक प्रमाण

(Scientific Evidence)

अज्ञान का ही प्रकार होता है जो कि सदैव, अधूरा और संदेहास्पद होता है और उस ज्ञाता को जानने में कभी सहायक नहीं हो सकता जो कि सदैव अखंडित, परिपूर्ण और अकाट्यतः आधारभूत स्वयंसिद्ध है।

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Saturday, 1 March 2025

Fate and Destiny.

Nought/ Naught

शून्य 

Destiny or Fate is, 

The Consequential, 

That is perceived in the mind, 

As a form of the "known",

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen,

In the sphere of "Time", 

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen, as 

An event that takes place or appears to take place simultaneously with  assumed "Time".

The two are inter-dependent and none of the two could take place in the absence of the other.

Obviously,  there is the "observer" who claims to observe this happening.

The event or this "happening" is neither real or unreal, but is the undisputed and undeniable evidence of the reality of the "observer".

The event is in Time, and Time is in the event, though the "observer" is never a part or subject of Time.

All happening could be attributed to the another that is supposed to have taken place in the assumed "past".

So the supposed "past" generates in the thought a "present" one.

And the "present" one gives rise to yet one, that could be thought of in the form of a happening in the assumed "future".

This "past", "future" and the "present" that is the the "now", independent of the two, is again (wrongly) thought of as the assumed movement of "Time", though in reality, they are not!

What about the "observer"?

Is the "observer" subject to this assumed "past","future" or the "present"?

Does this movement of "Time" affect the "observer" or, 

Does this "observer" affect the " Time"?

Does this "observer" affect The "past", "the "future" or the assumed "present", - the totality of the "observed" in any way?

Obviously the movement of the "Time" has nothing to do with the status of the "observer".

What again then could be referred to as the "Destiny" or the "Fate"?

The "observer" is in no way related to the "Time", to Destiny or to Fate. 

What about the sense of "I"; that appears and disappears repeatedly again and again in a body-mind existence?

Isn't this sense of "I" a conjured up vain  idea only and has no valid and legitimate evidence any, either to substantiate or to prove it's reality?

As such this idea itself is the "observed" on one hand and the wrongly identified - the "observer" also, on the other hand.

Unless and until - the validity of this idea of "oneself" as a person is not examined, doubted, and enquired into, it covers up the field of attention and one is caught in the trap of ignorance about the Reality / true nature of the "observer" who is ever so free from all dualities like "Time and Space", the "Thinker" and the "Thought", the "Experiencer" and the "Experienced".

So, let's ask again :

What is Destiny or Fate, and exactly who is a victim of this concept of the Destiny and Fate? 

Of course, the body and mind could go through all their respective functions so long as they are alive, but the "person" who appeares and disappears during and through this happening, - what is otherwise referred to as the Destiny  or the Fate, has no existence whatsoever in Reality.

Being keenly aware of this whole drama is freedom from the Destiny or the Fate.

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