Thursday, 6 March 2025

The Undercurrent.

यहाँ से जाना है कहीं!

जब मैं लगभग सात आठ वर्ष का था, तब से मन में यह विचार अकसर उठता रहता था कि

"यहाँ से जाना है।"

तब एक दिन घर से निकलकर एक रोड पर सड़क पर चलता हुआ दूर तक चला गया था और सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर लिखा देखा था -

विश्रामगृह!

तब मुझे आश्चर्य हुआ था कि यहाँ इस पत्थर पर यह क्या और क्यों लिखा है, किसके लिए, क्या जरूरत थी!

यह स्मृति अब तक वैसे ही तरोताजा है! 

इसका गूढ अभिप्राय क्या था इस ओर यद्यपि उस समय तो मेरा ध्यान बिलकुल नहीं जाता था, बस यह विचार यूँ ही मन में कभी कभी आता रहता था। उस समय में भी मैं अपने आपको अकसर वैसा ही निपट अकेला अनुभव किया करता था जैसा कि अब भी किया करता हूँ। बीते हुए इन पैंसठ वर्षों में यह विचार / अनुभव मेरे मन की गहराई में नींव की तरह स्थिर है। बीच के समय में मैं एक हद तक दुनिया में और भारत में काफी भ्रमण कर चुका हूँ। एक बार घर से चल पड़ने के बाद ही तात्कालिक रूप से यह तो पता होता था कि मुझे कहाँ जाना है, लेकिन वापस घर आने के बाद फिर वह विचार कि 

"यहाँ से जाना है।"

मन में आग्रहपूर्वक उठने लगता था।

शिक्षा काल में यह विचार तात्कालिक प्राथमिकताओं के नीचे दबकर विलुप्त सा हो गया, लेकिन फिर जॉब करते समय बार बार ध्यान खींचता रहता था और अन्ततः जब तक जॉब छोड़ ही नहीं दिया, तब तक बना ही रहा था।

जॉब छोड़ते समय मन भविष्य की चिन्ता से किसी हद तक मुक्त तो हो गया था क्योंकि अब मैं स्वतन्त्र रूप से यह सोच सकता था कि मुझे कैसे जीना है, आगे क्या करना है। जिस जीवन स्तर को मैं जी रहा था उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट था और जॉब करते समय लोग मुझे जिस दृष्टि से देखते थे वह भी अब मेरे लिए समस्या न रहा। विवाह न करने का निश्चय तो बचपन से ही मन में था क्योंकि मुझे स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों का तब न तो ज्ञान था और न इस बारे में मैं कोई अनुमान ही कर सकता था। स्कूल की शिक्षा पूरी होते होते और कॉलेज जॉइन कर लेने के बाद मन में साथ पढ़नेवाली हम-उम्र लड़कियों के प्रति आकर्षण पैदा हुआ और कॉलेज के सहपाठियों की कुसंगति में उम्र की स्वाभाविक उत्सुकता के साथ साथ मन उलझता चला गया। लेकिन यह स्पष्ट था कि पहले तो अपने पाँवों पर खड़ा होना आवश्यक है और बाद में ही प्रेम वगैरह के बारे में सोचा जा सकता है। सौभाग्य या दुर्भाग्य से न तो मैं न तो स्मार्ट था, न ही मेरे पास पैसे थे। और सबसे बड़ी बात यह थी कि मेरी स्कूल की शिक्षा छोटे से गाँव में हुई थी जहाँ मुझे मेरी परिचित कोई एक भी लड़की ऐसी न मिली जिससे मैं मिल जुल सकता था। 

और वहाँ से सीधे अपेक्षाकृत कुछ बड़े शहर में पहुँचने के बाद अचानक नए लोगों के बीच यही विचार मन में पुनः उठता था कि

"यहाँ से जाना है।"

जैसे तैसे कॉलेज की मेरी शिक्षा पूरी हुई और एक बेहतर जॉब मिलते ही घर पर मेरे माता पिता के पास हर रोज कोई ऐसा प्रस्ताव किसी कन्या के अभिभावकों की तरफ से आता जिसमें मेरे बारे में पूछताछ की जाती थी। मेरे मन में कुछ आक्रोश था तो इसलिए क्योंकि मैं महसूस करता था कि मैं नहीं मेरा जॉब ही वस्तुतः मूल्यवान था और जब तक मैं बेरोजगार था तब तक तो किसी लड़की या उसके अभिभावकों ने कभी मुझे घास तक नहीं डाली और अब वे यह उम्मीद करते हैं कि मैं उनकी लड़की से शादी कर लूँ। मैं न तो उन पर और न ऐसी किसी लड़की पर ही भरोसा कर सकता था।

और सामाजिक नैतिकता के प्रचलित तथाकथित मूल्यों के आधार पर भी मैं किसी लड़की से दोस्ती या प्रेम नहीं कर सकता था।

हाँ जिस बैंक में मैं कार्य करता था वहाँ कार्य करनेवाले मेरे सभी साथी वैसे ही दोहरे मापदण्डों को निर्लज्जता और ढीठता से जी रहे थे और मेरे बारे में ठीक से कुछ समझ पाना उनके बस से बाहर की बात थी।

उस जॉब में काम करते समय भी यही विचार बार बार मन में उठा करता था -

"मुझे यहाँ से जाना है।"

जब भी मैं किसी के सामने अपना यह विचार रखता, तो वह यही पूछता -

"तुम्हें कहाँ जाना है?"

क्योंकि वे इसी भाषा में सोचने के आदी थे।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह था कि यहाँ से जाना अधिक महत्वपूर्ण है, कहीं किसी और जगह नहीं जो कि इतनी महत्वपूर्ण हो कि मैं वहाँ जाने के लिए यहाँ से जाने के बारे में सोच रहा हूँ।

"यहाँ से कहीं जाने" का मेरा मतलब यह भी नहीं था कि मुझे दुनिया या जीवन से बहुत दूर मरकर कहीं जाना है।

और शायद इसी मेरे जीवन में सबसे सुखद क्षण वे होते थे जब मैं ट्रेन में बैठा हुआ "यहाँ से कहीं जाने" के इस विचार से बहुत उल्लसित हो जाया करता था और प्रसन्न अनुभव किया करता था। लगता था बस ट्रेन में ही बैठा रहूँ और यात्रा का कभी अन्त ही न हो। ट्रेन की भीड़ से बचने के लिए मैं प्रायः पहले ही से रिजर्वेशन करा लिया करता था। और कभी कभी बस से भी सफर कर लिया करता था।

फिर कहीं लॉज में एक दो दिन रात गुजारकर कहीं दूसरी दिशा में जाने के बारे में सोचता। तब भी मेरे लिए कोई न कोई तात्कालिक लक्ष्य होते थे किन्तु वे गौण लक्ष्य होते थे,  प्रमुख लक्ष्य तो यही होता था -

"यहाँ से जाना है।"

यह विचार दूसरे सभी विचारों की पृष्ठभूमि में अदृश्य ही छिपा होता था।

अब उम्र के इस पड़ाव पर

"यहाँ से कहीं जाने"

का विचार धीरे धीरे क्षीण और विलुप्तप्राय होता जा रहा है। अब तो बस नींद, भूख, थकान और दुर्बलता ही मन पर हावी रहते हैं। नींद टूटते ही बाकी तीन, भूख शान्त होते ही बाकी तीन, थकान मिटते ही बाकी तीन और दुर्बलता कुछ कम होते ही बाकी तीन मुझ पर हावी होने लगते हैं।

हाँ, मुझे यहाँ से जाना अवश्य है, जल्दी से जल्दी, शीघ्र से शीघ्र, किन्तु "कहाँ जाना है?" यह सोच पाना भी मेरे लिए असंभव सा हो चला है। और उस लक्ष्य का कोई मानसिक चित्र बना पाना भी मुझे बहुत श्रमपूर्ण महसूस होने लगा है। किन्तु फिर यह भी सत्य है कि यहाँ से कहीं जाना तो अवश्य ही है !!

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Monday, 3 March 2025

Indo-Specific

ऐन्दव-आख्यान 

क्या हिन्दू धर्म है?

अंग्रेजों के जमाने से ही यह भ्रान्त अवधारणा प्रस्तुत और स्थापित की गई है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति मूलतः 'सिन्धु' शब्द के अपभ्रंश के रूप में हुई है।

'सिन्धु' शब्द का प्रयोग और उल्लेख वेदों में दो अर्थों में पाया जाता है पहला सिन्धु अर्थात् समुद्र के रूप में और दूसरा समुद्र जैसी विशालाकार नदी की तरह। 

किन्तु मेरा विचार / मत यह है कि

हिन्दू

शब्द की उत्पत्ति

इन्दु 

अर्थात् उस शब्द से हुई है जो चन्द्रमा का पर्याय है।

और हिन्दू या इन्दु धर्म केवल भारत-भूमि पर ही नहीं, इन्दोनेशिया / इन्डोनेशिया तक प्रचलित था / है।

इसे तो मैं नहीं जानता कि 

ऐन्दव आख्यान

का वर्णन किस ग्रन्थ में है, क्योंकि मुझे बस यही स्मरण है कि इसका उल्लेख किसी न किसी प्राचीन ग्रन्थ में है, जिसके बारे में मैंने किसी समय पढ़ा है।

इस विषय में गहराई से शोध किया जाए तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि ऐन्दव शब्द संस्कृत इन्दु से अर्थात् 'चन्द्रमा' से व्युत्पन्न है।

और सूर्य तथा चन्द्रमा तो वैदिक ज्यौतिष् का आधार हैं। सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही वैदिक पञ्चाङ्ग में कालगणना के नियामक हैं।

इस प्रकार हिन्दु / हिन्दू, उसी धर्म की प्राचीन संज्ञा है जिसे सनातन या सनातन धर्म भी कहा जाता है।

एक प्रख्यात फ्रैन्च भविष्यवेत्ता नॉस्ट्रेडेमस की किसी भविष्यवाणी में भारतवर्ष का उल्लेख 

धर्म के नाम वाले समुद्र के देश

के रूप में किया गया है जिसका अभ्युत्थान इक्कीसवीं शताब्दी में होगा। 

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Sunday, 2 March 2025

प्रद्युम्न, संकर्षण और अनिरुद्ध

भगवान् विष्णु

के आठवें अवतार श्रीकृष्ण के तीन पुत्रों के उपरोक्त तीन नामों का संभावित रहस्य क्या यह हो सकता है? :

प्रद्युम्न का अर्थ है : द्युति -

Illumination,

जड पदार्थ पिण्ड में चित्त की स्फूर्ति का जागृत होना,

संकर्षण का अर्थ है : परस्पर आकर्षण -

Attraction,

गुरुत्वाकर्षण, विपरीत चुम्बकीय या विद्युत् आवेशयुक्त कणों का एक दूसरे के प्रति होनेवाला आकर्षण, 

और अनिरुद्ध का अर्थ है : अबाध गतिशीलता -

Unchecked Unobstructed Flow.

ब्रह्माण्ड का दूर से दूर होता रहनेवाला सतत विस्तार। 

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4/40 -Applied Gita.

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

उपरोक्त श्लोक के सन्दर्भ में -

कत्रिम ज्ञान (Artificial Intelligence) और यंत्र(णा)-शिक्षा (Machine Learning) के बारे में विचार करें, तो यह कहा जा सकता है कि समस्त "विज्ञान" / Science अज्ञान का ही, अज्ञान में ही,  और अज्ञान की सीमा के भीतर ही होनेवाला उसका विकास, विकार और विस्तारमात्र होता है।

प्रारंभ में मनुष्य को पता नहीं होता कि उसे पता नहीं है। अर्थात् मनुष्य पशु की तरह ही प्रिय या अप्रिय विषयों से आकर्षित या विकर्षित होकर उन विषयों के अनुभवरूपी ज्ञान को स्मृति में एकत्रित करता है और उस अनुभव के रूप में संचित स्मृति के आधार पर "समय" या "काल" की अस्पष्ट मान्यता निर्मित कर लेता है जिसके आधार पर स्मृति में संचित अनुभवों के जोड़ को अतीत का तथा किसी भी नए अनुभव को वर्तमान का नाम देता है। इसी आधार पर वह काल्पनिक "समय" को भविष्य का नाम देकर उस भविष्य की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए भी उसका आकलन और अनुमान करने की चेष्टा करता है। यद्यपि शुद्ध भौतिक विषयों और वस्तुओं के बारे में तो यह आकलन और अनुमान लगभग 100% तक भी सत्य प्रतीत हो सकता है और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी समस्त भौतिक घटनाओं के बारे में यह आकलन और अनुमान संदेहास्पद भी हो सकता है। क्योंकि "घटना" का अर्थ है काल / समय नामक उस वस्तु का व्यवधान, जो केवल मस्तिष्क की गतिविधि का ही कल्पित क्रम है।

काल / समय के चरित्र को ठीक ठीक समझने के लिए पातञ्जल योगसूत्र के इन तीन सूत्रों का आधार लिया जा सकता है -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

इनमें से प्रत्यक्ष तो स्पष्ट ही इन्द्रियज्ञान पर आधारित वह अनुभव है जो अवश्य ही जागृत दशा में तात्कालिक रूप से होता है, और जो पुनः अनुमानपरक या निष्कर्षात्मक हो सकता है। जब एक ही विषय का अनुभवरूपी ज्ञान, ज्ञान की एक ही इन्द्रिय-विशेष के माध्यम से प्राप्त किया जाता है तो वह उससे भिन्न प्रकार का होता है जिसे एक साथ एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। जैसे नमक के टुकड़े को देखने पर उसका रंग रूप शक्कर या फिटकरी के टुकड़े जैसा प्रतीत होता है किन्तु उसे चखने पर उस टुकड़े के बारे में यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नमक है, शक्कर है या फिटकरी है। यह समस्त ज्ञान अनुभव की स्मृति के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाता है और ऐसी अनेक स्मृतियों का समूह ऐसे एक स्वतंत्र और इन्द्रियगम्य संसार के अस्तित्व में होने का आभास पैदा करता है। और फिर भी निस्सन्देह प्रत्येक मनुष्य का अपना संसार किसी भी दूसरे मनुष्य के द्वारा अनुभव किए जानेवाले और उसे प्रतीत होनेवाले संसार से पूरी तरह अलग होता है। क्या भौतिक जगत् सभी के लिए पदार्थ या द्रव्य से बनी एक वस्तु ही नहीं है?

इस प्रकार से, जिसे कि "वैज्ञानिक प्रमाण" कहा जाता है वह इन्द्रियज्ञान पर आधारित अनुभवों की स्मृतियों का संग्रहमात्र होता है और इस रूप में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा उनसे प्राप्त किसी निष्कर्ष से अधिक कुछ नहीं होता। भ्रान्तियुक्त और त्रुटियुक्त होता है और सन्देहास्पद भी। विषयों का ज्ञान जिसे होता है, क्या यह संभव है कि उस ज्ञाता को विषय के रूप में जाना जा सके? और क्या वह ज्ञाता विषय की तरह ज्ञेय हो सके? स्पष्ट है कि संपूर्ण तकनीकी और बौद्धिक ज्ञान (machine learning and Artificial Intelligence) इसी तरह इन्द्रियानुभूति तथा उन अनुभवों की स्मृतियों पर आधारित विविध जानकारियों का प्रणालीबद्ध एक समूह भर होता है।

इसलिए समस्त वैज्ञानिक प्रमाण

(Scientific Evidence)

अज्ञान का ही प्रकार होता है जो कि सदैव, अधूरा और संदेहास्पद होता है और उस ज्ञाता को जानने में कभी सहायक नहीं हो सकता जो कि सदैव अखंडित, परिपूर्ण और अकाट्यतः आधारभूत स्वयंसिद्ध है।

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Saturday, 1 March 2025

Fate and Destiny.

Nought/ Naught

शून्य 

Destiny or Fate is, 

The Consequential, 

That is perceived in the mind, 

As a form of the "known",

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen,

In the sphere of "Time", 

That happens or appears to happen,

That may happen or may appear to happen, as 

An event that takes place or appears to take place simultaneously with  assumed "Time".

The two are inter-dependent and none of the two could take place in the absence of the other.

Obviously,  there is the "observer" who claims to observe this happening.

The event or this "happening" is neither real or unreal, but is the undisputed and undeniable evidence of the reality of the "observer".

The event is in Time, and Time is in the event, though the "observer" is never a part or subject of Time.

All happening could be attributed to the another that is supposed to have taken place in the assumed "past".

So the supposed "past" generates in the thought a "present" one.

And the "present" one gives rise to yet one, that could be thought of in the form of a happening in the assumed "future".

This "past", "future" and the "present" that is the the "now", independent of the two, is again (wrongly) thought of as the assumed movement of "Time", though in reality, they are not!

What about the "observer"?

Is the "observer" subject to this assumed "past","future" or the "present"?

Does this movement of "Time" affect the "observer" or, 

Does this "observer" affect the " Time"?

Does this "observer" affect The "past", "the "future" or the assumed "present", - the totality of the "observed" in any way?

Obviously the movement of the "Time" has nothing to do with the status of the "observer".

What again then could be referred to as the "Destiny" or the "Fate"?

The "observer" is in no way related to the "Time", to Destiny or to Fate. 

What about the sense of "I"; that appears and disappears repeatedly again and again in a body-mind existence?

Isn't this sense of "I" a conjured up vain  idea only and has no valid and legitimate evidence any, either to substantiate or to prove it's reality?

As such this idea itself is the "observed" on one hand and the wrongly identified - the "observer" also, on the other hand.

Unless and until - the validity of this idea of "oneself" as a person is not examined, doubted, and enquired into, it covers up the field of attention and one is caught in the trap of ignorance about the Reality / true nature of the "observer" who is ever so free from all dualities like "Time and Space", the "Thinker" and the "Thought", the "Experiencer" and the "Experienced".

So, let's ask again :

What is Destiny or Fate, and exactly who is a victim of this concept of the Destiny and Fate? 

Of course, the body and mind could go through all their respective functions so long as they are alive, but the "person" who appeares and disappears during and through this happening, - what is otherwise referred to as the Destiny  or the Fate, has no existence whatsoever in Reality.

Being keenly aware of this whole drama is freedom from the Destiny or the Fate.

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