Sunday, 2 March 2025

4/40 -Applied Gita.

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

उपरोक्त श्लोक के सन्दर्भ में -

कत्रिम ज्ञान (Artificial Intelligence) और यंत्र(णा)-शिक्षा (Machine Learning) के बारे में विचार करें, तो यह कहा जा सकता है कि समस्त "विज्ञान" / Science अज्ञान का ही, अज्ञान में ही,  और अज्ञान की सीमा के भीतर ही होनेवाला उसका विकास, विकार और विस्तारमात्र होता है।

प्रारंभ में मनुष्य को पता नहीं होता कि उसे पता नहीं है। अर्थात् मनुष्य पशु की तरह ही प्रिय या अप्रिय विषयों से आकर्षित या विकर्षित होकर उन विषयों के अनुभवरूपी ज्ञान को स्मृति में एकत्रित करता है और उस अनुभव के रूप में संचित स्मृति के आधार पर "समय" या "काल" की अस्पष्ट मान्यता निर्मित कर लेता है जिसके आधार पर स्मृति में संचित अनुभवों के जोड़ को अतीत का तथा किसी भी नए अनुभव को वर्तमान का नाम देता है। इसी आधार पर वह काल्पनिक "समय" को भविष्य का नाम देकर उस भविष्य की वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए भी उसका आकलन और अनुमान करने की चेष्टा करता है। यद्यपि शुद्ध भौतिक विषयों और वस्तुओं के बारे में तो यह आकलन और अनुमान लगभग 100% तक भी सत्य प्रतीत हो सकता है और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं हो सकता, किन्तु दूसरी समस्त भौतिक घटनाओं के बारे में यह आकलन और अनुमान संदेहास्पद भी हो सकता है। क्योंकि "घटना" का अर्थ है काल / समय नामक उस वस्तु का व्यवधान, जो केवल मस्तिष्क की गतिविधि का ही कल्पित क्रम है।

काल / समय के चरित्र को ठीक ठीक समझने के लिए पातञ्जल योगसूत्र के इन तीन सूत्रों का आधार लिया जा सकता है -

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।। 

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

इनमें से प्रत्यक्ष तो स्पष्ट ही इन्द्रियज्ञान पर आधारित वह अनुभव है जो अवश्य ही जागृत दशा में तात्कालिक रूप से होता है, और जो पुनः अनुमानपरक या निष्कर्षात्मक हो सकता है। जब एक ही विषय का अनुभवरूपी ज्ञान, ज्ञान की एक ही इन्द्रिय-विशेष के माध्यम से प्राप्त किया जाता है तो वह उससे भिन्न प्रकार का होता है जिसे एक साथ एक से अधिक ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। जैसे नमक के टुकड़े को देखने पर उसका रंग रूप शक्कर या फिटकरी के टुकड़े जैसा प्रतीत होता है किन्तु उसे चखने पर उस टुकड़े के बारे में यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नमक है, शक्कर है या फिटकरी है। यह समस्त ज्ञान अनुभव की स्मृति के रूप में मस्तिष्क में संचित हो जाता है और ऐसी अनेक स्मृतियों का समूह ऐसे एक स्वतंत्र और इन्द्रियगम्य संसार के अस्तित्व में होने का आभास पैदा करता है। और फिर भी निस्सन्देह प्रत्येक मनुष्य का अपना संसार किसी भी दूसरे मनुष्य के द्वारा अनुभव किए जानेवाले और उसे प्रतीत होनेवाले संसार से पूरी तरह अलग होता है। क्या भौतिक जगत् सभी के लिए पदार्थ या द्रव्य से बनी एक वस्तु ही नहीं है?

इस प्रकार से, जिसे कि "वैज्ञानिक प्रमाण" कहा जाता है वह इन्द्रियज्ञान पर आधारित अनुभवों की स्मृतियों का संग्रहमात्र होता है और इस रूप में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा उनसे प्राप्त किसी निष्कर्ष से अधिक कुछ नहीं होता। भ्रान्तियुक्त और त्रुटियुक्त होता है और सन्देहास्पद भी। विषयों का ज्ञान जिसे होता है, क्या यह संभव है कि उस ज्ञाता को विषय के रूप में जाना जा सके? और क्या वह ज्ञाता विषय की तरह ज्ञेय हो सके? स्पष्ट है कि संपूर्ण तकनीकी और बौद्धिक ज्ञान (machine learning and Artificial Intelligence) इसी तरह इन्द्रियानुभूति तथा उन अनुभवों की स्मृतियों पर आधारित विविध जानकारियों का प्रणालीबद्ध एक समूह भर होता है।

इसलिए समस्त वैज्ञानिक प्रमाण

(Scientific Evidence)

अज्ञान का ही प्रकार होता है जो कि सदैव, अधूरा और संदेहास्पद होता है और उस ज्ञाता को जानने में कभी सहायक नहीं हो सकता जो कि सदैव अखंडित, परिपूर्ण और अकाट्यतः आधारभूत स्वयंसिद्ध है।

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