Monday, 10 March 2025

Mind Is The Matter.

The Exploration.

पहले अंडा या पहले मुर्गी?

विज्ञान के लिए यह प्रश्न एक पहेली हो सकता है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रश्न का जन्म बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है। जबकि बुद्धि का स्वामित्व और साक्षित्व बुद्धि का विषय नहीं है।

पहले आचरण / उपयोग करें, फिर विश्वास करें!

धर्म पर चलने या धर्म का आचरण करने के लिए उसे न तो जानने और न ही मानने का प्रश्न होता है, क्योंकि धर्म तो प्रकृति के द्वारा पहले से सुनिश्चित वस्तु-स्वभाव होता है, जिसका बुद्धि से संबंध नहीं हो सकता। दूसरी ओर, बुद्धि स्वयं प्रकृति ही है जबकि बुद्धि का स्वामी होने का दावा करनेवाला अहंकार है, जो कि यद्यपि क्षण क्षण प्रकट और विलीन होता रहता है, यह आभासी क्रम ही कल्पित निरन्तरता / सातत्य है, न कि वास्तविकता / सत्यता।

यह क्रम अनित्य होने से निजता से भिन्न, आभास मात्र है, जो क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त होता रहता है, जबकि वास्तविक न तो प्रकट होता है न अप्रकट ही होता है।

बुद्धि को वास्तविक और अवास्तविक के बीच की क्षणिक सीमा-रेखा की तरह देखा जा सकता है।

यह "देखा जाना" ही साक्षित्व है जो दृश्य और देखनेवाले से न तो प्रभावित होता है, न उन्हें प्रभावित ही करता है।

पुनः अहंकार भी इसी साक्षित्व में विद्यमान निजता का प्रतिबिम्ब होता है जो कल्पित दृश्य और उसे देखनेवाले के बीच के सेतु का कार्य करता है और क्षण क्षण प्रकट और विलुप्त / अप्रकट होता रहता है और साक्षित्व पर ही अवलंबित, आश्रित और निर्भर होता है।

इसलिए साक्षित्व स्वतंत्र वास्तविकता और निजता का सार है, जबकि अहंकार केवल इस निजता के प्रकाश में बनते मिटते रहने वाला छाया-अस्तित्व। 

मुर्गी और अंडे में से पहले कौन की तरह ही अहंकार और संसार का परस्पर संबंध है। वैज्ञानिक संभवतः मुर्गी पहले या अंडा पहले का कोई सैद्धान्तिक उत्तर खोज लें, लेकिन यह जानना कि अहंकार या संसार में से पहले कौन, इस प्रश्न का उत्तर शायद ही कभी कोई पा सकेगा!

"पहले ईश्वर या संसार?"

यह प्रश्न इसी प्रकार का एक प्रश्न है और  इस दृष्टि से यह भी पूछा जा सकता है कि संसार तो प्रत्यक्षतः अनुभव की जानेवाली वस्तु है जिसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती, जबकि ऐसा ईश्वर, जिसने इस संसार को बनाया होगा, जब उसे अनुभव कर पाना ही बहुत दूर की बात है, तो उसे इस्तेमाल कर पाना कल्पनातीत ही होगा।

सनातन धर्म वैदिक हो या वेदविरोधी या उससे भिन्न आस्तिक हो, ईश्वर की मान्यता का आग्रह नहीं करता और उसके अस्तित्व पर प्रश्न भी नहीं करता जबकि अब्राहमिक परंपरा में ईश्वर के बारे में -

"पहले विश्वास करें फिर इस्तेमाल करें!"

का आग्रह किया जाता है। ऐसे किसी ईश्वर के "एक" होने (की मान्यता) को अकाट्य और तर्कसंगत सत्य माने जाने का आग्रह भी किया जाता है। सांख्यनिष्ठा या बौद्ध / जैन मत में, यहाँ तक कि अद्वैत मत में भी, ईश्वर के "एक" होने या एक न होने के प्रश्न को गौण समझा जाता है क्योंकि "एक" और अनेक पुनः अस्तित्व या प्रकृति का "गुण" होता है न कि स्वरूप। एक टोकरी में तीन आम और चार संतरे रखे हों तो संख्या की दृष्टि से यद्यपि वे सात फल होते हैं, किन्तु फल की दृष्टि से दो ही होते हैं।  इसे और सरल तरीके से समझने के लिए उदाहरण कुरूप में यह भी कह सकते हैं कि तीन आम (या चार संतरे) भी फल की दृष्टि से "एक" किन्तु "संख्या" की दृष्टि से "अनेक" होते हैं। इसलिए जैसे अस्तित्व "एक" होते हुए भी उसे विविध प्रकार और रूपों में देखा जाता है "ईश्वर" भी "एक" होते हुए भी अनेक की तरह अभिव्यक्त  है और इससे उसके "एक" होने की सत्यता पर आँच नहीं आती। इसीलिए अद्वैत मत का प्रतिपादन करनेवाले दृश्य और दृष्टा के भेद को मिथ्या कहते हैं क्योंकि न तो दृश्य और न ही व्यक्ति के रूप में किसी पृथक्  दृष्टा का ईश्वर / अस्तित्व से अलग, स्वतंत्र कोई अस्तित्व हो सकता है।

यही व्यक्ति जब अपने आपको "साक्षी" मानता है तो अस्तित्व / ईश्वर का ही दृष्टा और दृश्य के रूप में काल्पनिक विभाजन कर लेता है। कल्पना क्षण क्षण आती और जाती रहती है अर्थात् "नित्य" नहीं, बल्कि आभास मात्र होती है, जबकि भान / बोध कल्पना पर आश्रित या उससे उत्पन्न नहीं हो सकता। इसके विपरीत, भान या बोध ही वह अधिष्ठान है जो स्वप्रमाणित निजता और नित्य सत्य ही है। वह "एक" है, ऐसा कहना अनुचित न होगा किन्तु उसे "एक" कहते ही केवल प्रमादवश, अपने आपसे भिन्न की तरह भी मान लिया जाता है। फिर उसे "ईश्वर" कहें या "परमात्मा", वही एकमात्र "पूज्य" हो जाता है। "पूज्य" होने के लिए "स्मरणीय" होना भी अपरिहार्यतः आवश्यक होता ही है। तब उसे "नाम" भी देना होता है, और तब एक नया ही दुष्चक्र पैदा हो जाता है जिसे मस्तिष्क का विकार भी कह सकते हैं।

यही मन है!

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