खूँटी की आत्मकथा
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उस जंगलनुमा वातावरण में जहाँ कभी कभी मैं इधर उधर यूँ ही घूमा करता था, एक वृद्ध संत या साधुनुमा व्यक्ति रहा करते थे। चूँकि यह कथा 30 वर्षों से भी पहले के समय की है इसलिए उनके बारे मेंं इतना भर कह सकता हूँ कि उनका नाम तो मुझे किसी ने कभी नहीं बतलाया, लेकिन उनका कुलनाम था - "पाठक"। नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर मन्दिर से चार सम्प्रदाय मठ की दिशा में और आगे गायत्री मन्दिर से आगे, नर्मदा-कावेरी के दूसरे संगम की तरफ जाते हुए जरा पहले बाईं तरफ उनकी कुटिया थी, जहाँ वे निवास करते थे। वे संभवतः किसी सम्प्रदाय-विशेष में दीक्षित नहीं थे और सरल भाव और शुद्ध हृदय से नर्मदा-तट पर निवास करनेमात्र को ही समर्पित और उसमें ही संतुष्ट प्रतीत होते थे।
जैसा कि प्रचलन था, वहाँ अनेक छोटे-बड़े महात्माओं ने अपने अपने आश्रम स्थापित कर रखे हैं जहाँ उनके भक्त उन आश्रमों में उनसे मिलने प्रायः आते रहते थे। किन्तु मुझे याद नहीं आता है कि पाठक जी से मिलने के लिए किसी को आते हुए मैंने शायद ही कभी देखा हो।
मैं जहाँ रहता था वह स्थान इंदौर के एक महात्माजी ने "माता आनन्दमयी तपोभूमि" के नाम से आश्रम के रूप में स्थापित किया था। आज उन महात्मा या उस स्थान के विषय में मैं अधिक कुछ नहीं जानता।
जब वर्ष 1991 की फरवरी 11 की शाम वहाँ पहुँचा था तो जल्दी ही रात्रि का भोजन कर सो गया था। दूसरे ही दिन महाशिवरात्रि होने से मान्धाता नामक उस पर्वत की परिक्रमा पर चला गया जिसके एक ओर से नर्मदा नदी तथा दूसरी ओर से कावेरी नदी आकर परस्पर मिलती हैं और उनका संगम जहाँ होता है, फिर पुनः पर्वत के दोनों ओर दो भागों में बँट जाती हैं, किन्तु आगे चलकर बाद में पुनः दूसरे संगम में आपस में मिल जाती हैं।
उस दूसरे संगम की दिशा में अकसर सुबह शाम घूमने या स्नान के लिए जाया करता था तो उनसे परिचय हो गया था। ऐसे ही एक दिन उन्होंने अपनी कुटिया पर बुलाया तो वहाँ चला गया। एक छोटा साफ सुथरा कमरा और उससे भी छोटा किचन। शौचालय कहीं नहीं। उन दिनों वहाँ किसी भी आश्रम में केवल वी.आई.पी. अतिथियों या महन्तों के लिए ही व्यक्तिगत शौचालय हुआ करते थे। मैंने उनसे पूछा :
"आपने अपने यहाँ शौचालय क्यों नहीं बनाया?"
तब उन्होंने मुझे यह कथा सुनाई :
ऐसे ही किसी स्थान पर एक महात्मा अपनी एक छोटी सी कुटिया बनाकर रहते थे और भजन करते थे। किन्तु उनके जिस निवास स्थान के दरवाजे पर ताला लगाया जाता था वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे चोर चुरा ले जा सकते थे। बहरहाल वहाँ दीवार पर एक खूँटी अवश्य थी जिस पर वे उनकी कुटिया के दरवाजे पर लगनेवाले ताले की चाबी टाँग दिया करते थे।
एक दिन उनसे मिलने के लिए कोई आगन्तुक जिज्ञासु जब आया तो कौतूहलवश उसने उनसे पूछा :
"बाबाजी, यह चाबी आपके किस काम आती है?"
महात्माजी बोले :
"ऐसा है इस उम्र में मेरी याददाश्त बहुत कमजोर होने लगी है और एक बार जब अपनी इस कुटिया से बाहर चला जाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि लौट कर कहाँ जाना है। इस चाबी से मुझे यह स्थान याद रहता है और इसका बस इतना ही काम है।"
"और अगर किसी वजह से चाबी खो जाए तो?"
"हाँ, यह भी हो सकता है, लेकिन इतने समय से यहाँ बार बार आते रहने से अब पैर भी बहुत अभ्यस्त हो गए हैं, और मैं कहीं भी चला जाऊँ मेरे पैर मुझे स्वयं ही यहाँ खींच ले आते हैं।"
"फिर खूँटी का क्या प्रयोजन है?"
"उसका प्रयोजन यह स्मरण कराना है कि शरीर स्वयं ही वह चाबी है जो कि मनरूपी खूँटी पर टँगी रहती है, और मनरूपी यह खूँटी स्वयं भी किसी ठोस दीवार पर न लगी हो तो शरीर और मन दोनों ही भटक जाते हैं।"
"और वह ठोस दीवार क्या है?"
जिज्ञासु ने प्रश्न किया।
"वह दीवार है नित्य रहनेवाला स्वाभाविक भान जिसे चेतना भी कहा जाता है।"
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