विदेहप्रकृतिलयानाम्
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पाञ्जल योगसूत्र १/१९
भाष्य -
विदेहानां = देवानां -- भवप्रत्ययः। ते हि स्वसंस्कार मात्रोपयोगेन चित्तेन कैवल्यपदमनुभवन्तः स्वसंस्कारविपाकं तथाजातीयकमतिवाहयन्ति। तथा प्रकृतिलयाः साधिकारे चेतसा प्रकृतिलीने कैवल्यपदमनुभवन्ति यावान्न पुनरावर्ततेऽधिकारवशाच्चित्तमिति।।
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वैदिक देवताओं या श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १० में जिन विभूतियों का उल्लेख किया गया है वे प्रकृतिलय चित्त हैं जो कि अपने अपने संस्कारम2त्र का उपयोग करते हुए उस चित्त से कैवल्य में स्थित रहते हुए भी सापेक्ष दृष्टि से उन उन संस्कारों के परिपाक होने तक उनका अतिक्रमण हो जाने तक उसका निर्वाह करते हैं। अर्थात् इस प्रकार से वे देवता स्वर्लोक में प्रारब्ध होने तक वास करने के बाद पुनः मृत्युलोक में देहधारी होकर जनाम लेते हैं या नित्यमुक्ति में प्रतिष्ठित हो रहते हैं। क्योंकि उन देवताओं ने उस उपाधि की प्राप्ति कामना से की हुई होती है, और उनकी कामना पूर्ण होने पर और प्रारब्ध का क्षय हो जाने पर भी अन्य कामनाओं के पूर्ण होने तक उनका भोग भी उन्हें करना होता है।
कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तीन प्रकारों की अग्नियों में प्रथम तो स्थूल भौतिक और सूर्य आदि में प्रज्वलित हो रही अग्नि है, दूसरी आधिदैविक वह है जो कि नक्षत्रों में प्रकट और वेदविद्या के रूप में वैदिक देवताओं के रूप में प्रकृति में व्यक्त और अव्यक्त होते रहती है जिसकी उपासना से मनुष्य स्वर्ग आदि की प्राप्ति कर सकता है किन्तु अनित्य होने से स्वर्ग आदि के भोग भी काल के प्रभाव से समाप्त हो जाते हैं, जबकि अग्नि का तीसरा प्रकार अपनी आत्मा का आध्यात्मिक ज्ञान है जिसे प्राप्त कर या जिसे उद्घाटित कर लेने पर पुनः मनुष्य जन्म-मृत्यु के चक्र से अर्थात् "भव" से और "अप्यय" से रहित उस आत्मा में अवस्थित हो रहता है।
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उपरोक्त विवेचना करने का उद्देश्य यह जानना है कि वेदों में वर्णित देवताओं का स्वरूप कैसा है और यद्यपि सभी की उपासना से अंततः परमात्मा को भी जान लिया जा सकता है किन्तु वे सभी देवता भी प्रारब्ध से बँधे होते हैं, और इस दृष्टि से उनकी सीमित शक्ति और क्षमता होती है। दूसरी ओर पौराणिक देवता वे विभूतियाँ हैं जिनका उल्लेख श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १० में प्राप्त होता है। --
सिद्धानां कपिलो मुनिः
के उल्लेख से स्पष्ट है कि देवताओं की एक कोटि वह है जिसे "सिद्ध" कहा जाता है। चूँकि साँख्य सिद्धान्त के अनुसार चेतन पुरुष ही एकमात्र परम तत्व है और वह स्वयं प्रकृति में ही व्यक्त और अव्यक्त होते रहता है, अतः प्रकृति के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जो कि पुरुष पर ही आश्रित होती है। जिसे इस तत्व का दर्शन हो जाता है उसे "सिद्ध" कहा जाता है और वह भी नित्यमुक्त होने से विभूति और ईश्वरतुल्य ही होता है।
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