कविता : 01-08-2022
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यह जो है!!
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न तो यह कुछ भी है नया, न तो कुछ भी है पुराना,
न तो कुछ भी नया हुआ है, न तो कभी भी था पुराना,
तो आखिर ये सब क्या है, जो भी यह सब हो रहा है,
तो क्या ये है कोई सपना, या फिर सिर्फ, अफ़साना!!
ये जो है यह अपनी दुनिया, अपना ज़माना, जो भी है,
क्या है ये भी सिर्फ सपना, है अजब, ये सारा ही अफ़साना,
क्या यह सब वही नहीं है, जो कि यह सब कुछ हो रहा है,
किसको सही पता है आखिर, है इसको किसने जाना!!
ये जो कि खुद ही हूँ मैं, या जो कुछ भी मन है मेरा,
क्या खुद मैं भी हूँ इसका, क्या खुद या मन है ये मेरा,
आखिर मैं खुद ही मन हूँ, या क्या मन भी कोई मेरा,
किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!!
क्या दुनिया ही खुद है मैं, और दुनिया खुद ही है मन,
मन ही खुद है, ये सारा सब कुछ, क्या मैं ही दुनिया,
यहाँ जो कुछ भी हुआ है, या जो नज़र आ रहा है,
जो कुछ कभी भी होगा, या फिर जो कि हो रहा है!!
क्या सिर्फ मैं ही बदल रहा हूँ, या मन भी बदल रहा है,
या फिर यह बदल रही है, जो भी मेरी है, ये दुनिया।
कुछ भी जो है बदलता, क्या वह वक्त ही नहीं है,
लेकिन क्या वक्त भी यह, सचमुच कभी बदलता!
या ये भी बस भरम है कि सब कुछ बदल रहा है,
जिसको भी है भरम ये, क्या वो भी बदल रहा है!
ये बदलना, -न बदलना, ये भी तो है खयाल ही,
मजे की बात तो है कि, खयाल भी, बदल रहा है!
तो, क्या मैं ही बदल रहा हूँ, या मन भी बदल रहा है,
ये दुनिया बदल रही है, या फिर वक्त ही बदल रहा है,
किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!
जो कुछ भी हमने माना, वो सब तो बदल रहा है,
जो कुछ भी हमने जाना, वो सब तो बदल रहा है,
तो सवाल बस यही है, आखिर ये 'जानना' भी,
किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!
जरा गौर कीजिए भी, ये जानना भी क्या है,
क्या ये कभी बना है, क्या ये कभी मिटा है,
क्या ये बनकर है मिटता, या बनता है मिटकर,
क्या यह कभी पुराना, या फिर कभी नया है!
किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना,
क्या ये भी खयाल है कोई, जिसको है हमने माना,
यह सब में ही हुआ करता, है यह जो हमेशा ही,
यह जानने-वाला भी क्या हमेशा ही नहीं होता,
किसको पता है आखिर, है इसको किसने जाना!!
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