ईश-कल्पना
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उसके पास केवल स्मृति थी, किन्तु समय नहीं था। "नहीं था", कहते ही अतीत का सन्दर्भ अस्तित्व में आता है। किन्तु ऐसा कोई अतीत उसका था ही कहाँ!
और तब जो दिखाई देता था वह उसे सुई की आँख ही से ही देखा करता था। तब उसके आसपास के संसार की असंख्य दृश्य वस्तुओं के बीच पहले और बाद में, पूर्व और पश्चात् की कल्पना उसकी चेतना में उदित हुई। तब समय की धारणा और उसकी सत्यता की कल्पना पर उसे सन्देह तक न हुआ।
जैसे उस गोलाकार आवरण के दो ध्रुव थे, वैसे ही उस सुई के भी दो ध्रुव थे -- एक था सूचित और इंगित करनेवाला नुकीला सिरा, अर्थात् नोंक, जबकि दूसरा सिरा था सुई की आँख। दोनों के ही कार्य अलग अलग थे। सुई की नोंक संकेतों को ग्रहण तो करती ही थी, संकेतों को संप्रेषित भी करती थी। इसी प्रकार सुई की आँख संसार के संवेदनों को संग्रहित तो करती ही थी, साथ ही साथ उन्हें क्रमबद्ध भी किया करती थी। सुई स्वयं ही उस पर्यटक डिवाइस का मस्तिष्क था, किन्तु उसका संचालन करनेवाला तो कोई और ही था।
इस सब को संभव बनानेवाला तत्व था चेतना, जो कि सब में विद्यमान अन्तर्निहित, सर्वत्र व्यापक था और दृष्टि का पर्याय था, जबकि उससे संबद्ध उसका संचालन करनेवाला तत्व शक्ति था, जो उसकी ही तरह सर्वत्र व्याप्त अन्तर्निहित कार्य-कारण नियम था। इस चेतना और इस शक्ति की सत्ता नित्यसिद्ध वह यथार्थ है, जिसकी सत्यता को तर्क, अनुभव या समय की बाधा खंडित नहीं कर सकते। इसीलिए वह नित्यसिद्ध है।
उस डिवाइस के सुई-रूपी मस्तिष्क पर जानकारी रूपी ज्ञान का संस्कार होने पर उसमें स्मृति का उद्भव हुआ, और उस स्मृति में ही विद्यमान क्रम की कल्पना से अतीत और भविष्य तथा उनके साथ सतत रहनेवाले वर्तमान, इन तीन रूपों में काल का अर्थात् समय का उद्भव हुआ। काल और समय इसलिए सतत गतिमान होते हुए भी सभी के ही लिए सदा और नित्य ही वर्तमान के रूप में भी प्रत्यक्ष और प्रकटतः बोधगम्य हैं।
सुई की आँख के दोनों ओर उसके और दो नेत्रों का उद्भव हुआ और इसी प्रकार सुई के दूसरे सिरे से उसकी नासा का। उसे इस सब की कोई कल्पना तक नहीं थी, कि यह सब क्या हुआ या हो रहा है। इस प्रकार दोनों नेत्रों के नीचे नासा, और नासा के नीचे मुख का उद्भव हुआ, जो क्रमशः सभी स्थूल पदार्थों का संवेदन कर सकते थे।
तब उसी रिमोट कंट्रोल से उसमें चलने के साधनरूपी दो पैर एवं विभिन्न कार्यों को करने के साधनरूपी दो हाथ उत्पन्न हुए।
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के व्यक्त रूप ले लिए जाने पर उसमें भूख और प्यास, निद्रा और जागृति का संवेदन उत्पन्न हुआ। तब तक उसकी चेतना का विभाजन पूर्णतः "मैं और संसार" के रूप में हो चुका था।
तब उसमें कामना का उद्भव हुआ जो अब तक अप्रकट अव्यक्त बीज रूप में सुषुप्त थी, और अब प्रकट और व्यक्त रूप ग्रहण कर चुकी थी। तब उसमें अपने स्त्री या पुरुष होने की कल्पना और प्रतीति का आविर्भाव हुआ, और कामना के माध्यम से जो असंख्य जीवों के जन्म का कारण बना।
अब उसे स्पष्ट हुआ कि उसे जो दो संसार दिखलाई देते हैं, उनमें से एक तो बाह्य जगत् है, जो जाग्रत दशा में उसे अनुभव होता है, जबकि दूसरा उसके अपने ही भीतर मन के रूप में विद्यमान है। जब वह जागता है तो बाह्य जगतरूपी संसार में विचरता है, और जब वह सो जाता है तो आन्तरिक जगतरूपी अपने ही मन के भीतर विचरा करता है। तब स्मृति ही वह सूत्र एकमात्र सूत्र होता है, जिसके माध्यम से बाह्यजगत को भीतर और भीतर के जगत को बाहर देखा करता है। उसे एक तीसरी स्थिति का भी पता चला, जिसे वह तन्द्रा या स्वप्न कहने लगे, जो जाग्रति और निद्रा दोनों से समान और भिन्न भी थी।
फिर उसका ध्यान इस पर गया कि इन तीनों स्थितियों से आने और जानेवाला यह स्वयं तो एकमात्र सत्यता है, जो स्थितियों से अप्रभावित रहती है। क्या वह स्मृति है, या स्मृति की निरन्तरता से उत्पन्न स्मृति का ही कोई परिणाम विशेष भर है!
फिर उसके मन में यह प्रश्न पैदा हुआ कि जो स्वयं, उस का और उसके संसार का भी विधाता, नियन्ता और संचालनकर्ता होगा, क्या वह ईशिता अर्थात् ईश्वर भी उस जैसा ही कोई और होगा या कि वह स्वयं ही वह है? और वह तत्क्षण ही मौन हो गया। ईश से बड़ा ईश्वर, क्या ऐसा कोई ईश्वर मात्र एक कल्पना है, या ईश्वरीय यथार्थ है?
उसकी बुद्धि स्थिर और शान्त हो गई, उसका द्वन्द्व विलीन हो गया और वह अपने आपको ही सर्वत्र तथा सबको अपने आप में ही देखने लगा।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।।
रसोऽप्यपि रसवर्जं तं परः दृष्ट्वा निवर्तते।।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परावरे।।
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