एकदा नैमिष्यारण्ये
एक बार किसी समय नैमिष्यारण्य (राजा निमि, जिन्होंने ऋषि वसिष्ठ को दिए गए अपने वचन का पालन न करते हुए ऋषि वसिष्ठ से अपने यज्ञ को पूर्ण करने का अनुरोध किया और जब ऋषि वसिष्ठ अन्यत्र पूर्व-निर्धारित यज्ञ का पौरोहित्य पूर्ण कर लेने के पश्चात् राजा निमि के यज्ञ को पूर्ण करने के लिए राजा निमि के पास आए और जब उन्हें पता चला कि ऋषि विश्वामित्र यज्ञ को पूर्ण कर चुके हैं तो वे रोष से भर गए। तब ऋषि वसिष्ठ और निमि भी मृत्यु को प्राप्त हुए। तब राजा नामि को उनके द्वारा पूर्ण किए गए यज्ञ के पुण्य के फलस्वरूप मनुष्य के नेत्रों की पलकें के मध्य अविनाशी स्थान की प्राप्ति हुई, जिससे निमिषमात्र समय के व्यक्त और अव्यक्त रूपों का उन्मेष हुआ। "निद्रा" भी "द्रा" धातु से निष्पन्न पद है जो नेत्रों के निमीलन और उन्मीलन के अनुसार काल का निमिषमात्र व्यक्त प्रकार है। इस कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में विस्तार से है। ऋषि वसिष्ठ ने भी पुनः कुम्भज ऋषि के रूप में जन्म लिया। और इसी प्रकार से (संभवतः) ऋषि अगस्त्य ने भी ऋषि वसिष्ठ की ही तरह दूसरे किसी कुम्भ से।)
एक बार वनस्थली में 88000 (2 x 2 x 2 x 10 x 10 x 10 x 11) ऋषिगण :
स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः
के निमित्त एकत्रित हुए और उस पवित्र सरयू (सरि + उ) के तट पर आचार्य के सम्मुख उनसे उपदेश-प्राप्ति की अभिलाषा से प्रस्तुत हुए।
तब आचार्य ने ऋषिगणों पूछा कि उनके वहाँ उपस्थित होने का क्या उद्देश्य है?
वहाँ विद्यमान समस्त ऋषियों ने आचार्य को प्रणिपात-पूर्वक निवेदन किया :
हे प्रभो!
द्वापर युग और इसके साथ ही महाभारत युद्ध भी समाप्त हो चुका है और पृथ्वी पर कलियुग का अवतरण हो चुका है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह आदि भी मनुष्यमात्र को विस्मृतप्राय हो गए हैं। ऐसे समय, जब हर मनुष्य का आचरण कलि के प्रभाव से अनायास ही हिंसा, असत्य, स्तेय, स्वार्थ और परिग्रह से ही कलंकित, दूषित और प्रेरित हो रहा है, और कलह ही सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, तब मनुष्य किस प्रकार से उस धर्म के स्वरूप को जानकर उसका पालन करें जिससे कि उसका और उसके संसार का भी वास्तविक कल्याण हो?
तब आचार्य ने किञ्चित् स्मितपूर्वक कहा :
ऋषियों! तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है।
किन्तु इसका उत्तर सुनने से पहले तुम इस पर ध्यान दो कि महाभारत युद्ध क्यों हुआ? किसी का जन्म किसी विशेष योनि में और किन्हीं माता पिता से ही क्यों होता है? शारीरिक दृष्टि से तो सभी का जन्म अवश्य ही किन्हीं माता पिता से होता है, किन्तु क्या प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपने पूर्व-जन्म के संस्कारों से ही प्रेरित या बाध्य होकर उन अपने माता पिता से जन्म लेने का एकमात्र प्रमुख और वास्तविक कारण नहीं होता? महाभारत की कथा को रूपक की तरह देखें तो क्या पाँच प्रकार की वृत्तियाँ ही पाँच पाण्डव और भिन्न भिन्न प्रतीत होनेवाले संस्कार ही एक सौ तरह के कौरव नहीं हैं? क्या धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर एक ही पिता की संतान नहीं हैं?
इसलिए सभी मनुष्य शरीरधारी भिन्न भिन्न स्वभाव और प्रकृति के होते हैं और उन्हीं अपनी अपनी प्रवृत्तियों से प्रेरित होकर कार्य करते हैं।
प्रत्येक मनुष्य को उसके पूर्वसंस्कारों के अनुसार ही नए शरीर की प्राप्ति होती है और उसके शारीरिक माता पिता तो इसके केवल भौतिक माध्यम और निमित्त होते हैं। संस्कारों के रूप में मनुष्य के गुणों और कर्मों के अनुसार समय समय पर उसके चित्त में उपरोक्त पाँचों प्रकार की वृत्तियाँ क्रम से उठती और विलीन होती रहती हैं। कर्म के रूप में तमोगुणी कौरवों और रजोगुणी पिण्डों के बीच होनेवाला उनके व्यवहार या युद्ध को ही क्रमशः कुरूक्षेत्र तथा धर्मक्षेत्र में होनेवाला महाभारत कहा जाता है।
तमोगुणी स्थूल इन्द्रियाँ और रजोगुणी ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही प्रकृति के क्रियाकलाप के साधनमात्र हैं। सतोगुण मन ही उनके मध्य कभी रजोगुण और कभी तमोगुण से आवृत्त होने से मन में द्वन्द्व के उत्पन्न होने का एकमात्र कारण है।
ऋषियों इस भवसागर से तरने के लिए केवल दो ही मार्ग साधन या उपाय क्रमशः योग और ज्ञान ही हैं।
मैंने तुम्हें उपदेश तो प्रदान कर दिया, किन्तु यह तुम्हारी जिज्ञासा, उत्कंठा, लगन और धैर्य ही हैं जो कि तुम्हारे लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
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इसी ब्लॉग में निम्न पोस्ट भी दृष्टव्य है, यद्यपि उसमें कुछ त्रुटियाँ व्याकरण की हैं, जिनका शोधन सुधी पाठक स्वयं ही कर लेंगे यह आशा है।
अस्तु !
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Saturday 6 May 2023
हरो यद्युपदेष्टा ते
अष्टावक्र गीता
अध्याय १६
श्लोक ११
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते।।११।।
(हरः यदि उपदेष्टा ते हरिः अपि कमलात्मजः। तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्व-विस्मरणात् ऋते।।)
अर्थ : यदि स्वयं भगवान् शङ्कर, भगवान् विष्णु या ब्रह्मा ही तुम्हें उपदेश क्यों न दें, तो भी जब तक तुम, सब कुछ (बौद्धिक ज्ञान) पूरी तरह से विस्मृत नहीं कर देते, तब तक अपने स्वयं के नितान्त विशुद्ध और निज आत्म-स्वरूप में कभी स्थित नहीं हो सकोगे।
।।इति षोडषाध्यायः।।
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ಅಷ್ಟಾವಕ್ರ ಗೀತಾ
ಅಧ್ಯಾಯ ೧೬
ಶ್ಲೋಕ ೧೧
ಹರೋ ಯದ್ಯುಪದೇಷ್ಟಾ ತೇ ಹರಿಃ ಕಮಲಜೋಪಿ ವಾ||
ತಥಾಪಿ ನ ತಮ ಸ್ಮಾಸ್ಥ್ಯಂ ಸರ್ಮಮಿಸ್ಮರಣಾದೃತೇ||೧೧||
||ಇತಿ ಷೋಡಷೋಧ್ಯಾಯಃ||
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Ashtavakra Gita
Chapter 16
Stanza 11
Let even the Lord Hara (Shankara), Lord Hari (Vishnu) or the lotus-born Lied BrahmA be your instructor, but unless you forget all, you cannot be established in the Self.
Thus concludes chapter 16 of the text :
Ashtavakra Gita.
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