Thursday, 18 February 2016

Attraction of the porn

Attraction of the porn
--
Attraction of the porn is an indication of the suicidal instinct. 
One hates oneself so utterly, extremely that wants to kill oneself though at the same time also wants to see and enjoy this fact that he / she has succeeded in killing oneself.
Logically, and by common sense also, that is quite impossible, A contradiction in itself.
And though one is exhausted and in exhaustion finds a temporary respite from / for oneself, relief from agony, mistakes the same as a joy, this is but a state of unconsciousness where sensitivity is at its lowest, so the agony seems to have gone. 
The chimera goes to slumber for the time being, has a lease of another life, returns soon with a vengeance and embarks upon the same foolhardy adventure again and again.
This vicious cycle continues till one is finally, really dead in the clinical terms.
Like a log of wood turned into a corpse, and cremation is the only the best and the most respectable way of disposing off the mortal remains.
Understanding the futility of this whole activity / phenomenon is the only possible release from and ending of this enigma.
This understanding is not achievement of a newer skill on the part of the mind, rather than that, is the result of keen observation of the whole fact. This is prompted by realizing the urgency of the moment. Facing, accepting and responding the challenge of the moment. Returning to the pristine and pure innocence of the mind, of which one was aware of, before one was caught into this trap because of unawareness / inattention / ignorance / negligence. 
This needs tremendous energy, great insight, intelligence and will that is there by realizing the movement of the moment.
No-one dies twice, though could have a new birth every moment.
--
The Hindi Translation of the above post is here :   
पोर्न के प्रति प्रबल आकर्षण आत्महत्या करने की प्रवृत्ति का द्योतक भी हो सकता है । ऐसी प्रवृत्ति किसी भी कारण से मन में पनप गई हो, यह प्रवृत्ति रखनेवाला स्वयं से इतनी अधिक तीव्र घृणा करता है कि वह समाप्त हो जाना चाहता है । क्योंकि वह स्वयं की ही दृष्टि में अत्यन्त निन्दित होता है अपराध-बोध से ग्रस्त होता है, और इस अन्तर्द्वन्द्व से सामञ्जस्य न कर पाने से यही एकमात्र रास्ता उसके पास शेष रह जाता है । एक ओर तो वह खुद को मिटा डलना चाहता है, दूसरी ओर यह देखने की खुशी भी महसूस करना चाहता है कि आखिर उसने अपने को खत्म कर ही दिया । स्पष्ट ही है कि तर्क की दृष्टि से और व्यावहारिक रूप से यह नितांत असंभव है । और यदि वह आत्महत्या कर भी ले तो भी इसका कोई प्रमाण किसी के पास क्या हो सकता है कि मरने के बाद उसकी क्या स्थिति हुई होगी ?  यद्यपि अपने इस शौक / व्यसन के माध्यम से वह अत्यंत थककर, क्लांत होकर निढाल भी हो जाता है, उस समय उसके मन की संवेदन-क्षमता अपने न्यूनतम स्तर तक पहुँच चुकी होने से वह अचेतप्राय हो चुका होता है, जहाँ न सुख का पता चलता है न दुःख का, किन्तु दुःख का पता न चलने से दुःख मिट तो नहीं जाता । शायद उसके लिए पोर्न एक निश्चेतक (Anasthesia) की तरह काम करता होगा । किन्तु सुख-दुःख के बोध और संवेदन के अभाव की इस स्थिति को वह भूल या भ्रम से ’सुख’ समझ बैठता है । यह थकान बलपूर्वक उसे क्षणिक विश्राम और कृत्रिम शांति में धकेल भी देती है किन्तु यह विश्राम बदले में उसकी जीवन-ऊर्जा का बड़ा अंश चुरा लेता है और वैसा विश्राम कदापि नहीं होता जैसा मनुष्य को स्वाभाविक नींद सोकर उठने के बाद महसूस होता है । स्वाभाविक नींद के दौरान तो मनुष्य तो और भी नई जीवन-ऊर्जा से भर उठता है । 
पोर्न का यह आकर्षण, यह शौक या व्यसन-रूपी पिशाच यद्यपि इसके प्रभाव में प्राप्त हुई अचेतावस्था के दौरान कुछ समय के लिए निष्क्रिय हुआ जान पड़ता है किन्तु थोड़ी ही देर बाद पहले से भी अधिक ताकत के साथ प्रतिशोध की क्रूर भावना लेकर पुनः आक्रमण करता है ।  पुनः उसी स्वविनाशकारी मूर्खतापूर्ण दुस्साहस में जुट जाता है । यह दुष्चक्र तब तक चलता है जब तक कि उसका शिकार वास्तव में चिकित्सकीय अर्थों में मर नहीं जाता । और ऐसी मृत्यु आत्महत्या के स्वैच्छिक या अनैच्छिक प्रयास के रूप में, हत्या के शिकार होकर या दुर्घटना, बीमारी, अनियंत्रित विक्षिप्तता आदि से,  किसी भी बहाने से हो सकती है ।
तब मनुष्य शव होकर रह जाता है, लकड़ी के लट्ठे की तरह जिसे अग्नि में समर्पित कर देना ही उसके प्रति सर्वाधिक उत्तम, सम्मानपूर्ण व्यवहार हो सकता है ।
इस पूरी गतिविधि को ठीक से समझ लेना ही इस विवंचना की समाप्ति और समाधान है । इस प्रकार की समझ मन की कोई विशेष दक्षता, बौद्धिक कौशल नहीं बल्कि पुनः मन की उस निर्दोष शुद्ध, पवित्र स्थिति की ओर लौट जाने से होती है जिसमें इस शौक / व्यसन के शिकार होने से पहले मन अनायास ही था, किन्तु अनवधान, लापरवाही, प्रमाद और मूढतावश इसमें फँस गया । इसके लिए निश्चित रूप से प्रखर अन्तर्दृष्टि, गहरी इच्छाशक्ति, संकल्प और अदम्य ऊर्जा भी अत्यन्त आवश्यक होते हैं । और यह सब कोई अवश्य ही अपने सच्चे हितैषियों से, शुभचिन्तकों से भी प्राप्त कर सकता है, और उन्हें दे भी सकता है, या यूँ ही जीता हुआ खुद भी विनष्ट हो सकता है और दूसरों को भी विनष्ट कर सकता है ।
--    
   



No comments:

Post a Comment