Story -8 / कथा -8,
संस्कृता / हिब्रू / saṃskṛtā / Hebrew
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शनिः निवसति यस्मिन् दिने स शनिवासरः
निवारयति च अन्यान् ग्रहान् ततो स शनिवारो ।
रविः सोमः मङ्गलो, बुधो, गुरू शुक्रादयाः
तथैव कुर्वन्तु निवारयन्ति सर्वानन्यानपि ।
तस्मात् सप्ताः आह, सप्तानि अहानि भवन्तु,
सप्ताह इति संस्कृते, शब्बाथ हिब्रूभाषायाम् ॥
संस्कृता चोक्ता, लिखिता शोधिताऽपि सम्यक्
दक्षिणे गतिशीला वामादसौ दक्षिणया वाक् ।
हिब्रू तु ब्रूयात् अनुलिखिता दक्षिणात्वामं
प्रथ्यते स्मृत्या भवति स्मृतिभ्रंशादपभ्रंशा ॥
जगति ग्रहाः देवाः देहे देवता तद्वत् ।
देहस्थिता देवा ते प्रेरयन्त्यस्मान् ॥
राहुरूपेण स्वस्थाने केतुरूपेण स्वकाले
परिभ्रमन्ति कक्षायां स्वे-स्वे अहर्निशायाम् ॥
देहस्थ देवतापि परिभ्रमन्ति आत्ममनसि ।
जीवजगतोः तथैव भ्रामयन् तौ तथा च ॥
अष्टका माया नागाः महो-अमरावज्ञिप्ताः ।
रक्षयक्षौ गन्धर्वा मनवः च वसवादित्याः ॥
पर्वतेषु उपत्यकासु, वनप्रान्तरे मरुभूम्याम् ।
पृथिव्यां बभूवुः सर्वे हि आदिसृष्ट्याम् ॥
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अर्थ :
जिस दिन और जिस स्थान पर, समय पर शनिग्रह का अधिकार / वास होता है, उसे शनिवार / शनिवासर कहा जाता है । अन्य ग्रहों के प्रभाव का निवारण / निराकरण करने से उन चौबीस घंटों तक शनि का आधिपत्य उस स्थान पर धरती पर होता है। इसी प्रकार क्रमशः सूर्य (रवि), सोम (चन्द्र ), मंगल, बुध, गुरु (बृहस्पति) तथा शुक्र बारे में भी है । संस्कृत में इन सात दिनों के समूह को सप्ताह कहा जाता है (सप्त =7, अहन् / अहः = दिन ) । हिब्रू भाषा में यही 'शब्बाथ' कहलाता है। हिब्रू वामावर्त लिखी जाती है जबकि संस्कृत दक्षिणावर्त लिखी जाती है। यहां बहुत संक्षेप से लिखा जा रहा है। क्योंकि यह इस लेख का मुख्य विषय नहीं है। वाम से दक्षिण लिखी जानेवाली भाषाएँ और दक्षिण से वाम लिखी जानेवाली भाषाएँ मनुष्य की चेतना में मौलिक भिन्नता पैदा करती हैं। इस विषय में अधिक जानने हेतु प्रख्यात वैज्ञानिक Dr . V.S.Ramachandran द्वारा की गयी खोजों के बारे में अध्ययन इस विषय को समझने में सहायक होगा।
हिब्रू से अ-ब्राह्मिक परम्परा का आरम्भ हुआ जो स्मृति के आधार पर स्थापित / प्रचलित रूढ़ियों का अव्यवस्थित क्रम है। 'स्मृति' स्वभाव से ही भ्रंश-दोष से दूषित होने से निरंतर ह्रासोन्मुख होती है। दूसरी ओर ब्राह्मिक / ब्रह्म / ब्राह्मण परम्परा दर्शन और सतत अनुसंधान पर आधारित होने से सदा शुद्ध रहती है।
स्थान और काल से जगत में ग्रहों का जन्म होता है इसी प्रकार काल-स्थान ग्रहों की उत्पत्ति हैं। सात उपरोक्त गृह तो भौतिक-पिण्डों के रूप में हमें ज्ञात हैं जबकि स्थान और काल भी भौतिक पिण्ड हैं इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। यह 'स्थान' ही व्यक्त रूप में 'राहु' तथा 'काल' ही व्यक्त रूप में 'केतु' हैं। ब्राह्मिक और अ-ब्राह्मिक के बीच इसलिए तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता। (कृपया इस पोस्ट के अंग्रेज़ी अनुवाद में संलग्न दो 'links' भी देखें). काल-स्थान इस प्रकार वह 'अक्ष' / धुरी है जिसके अंतर्गत विभिन्न भौतिक शक्तियाँ हमें व्यक्त इन्द्रियगम्य और बुद्धिगम्य रूप में रूप दिखाई देती हैं, किन्तु जिनका 'देवता-स्वरूप' हमारी इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि की पकड़ में नहीं आता। अब्राह्मिक / अब्राहमिक परम्पराएँ इस दृष्टि से नितांत त्रुटियुक्त हैं कि 'एकेश्वरवाद' के दुराग्रह से वे 'देवता'-रूपी उस परमेश्वर की अवहेलना कर देती हैं जो 'एक' तथा 'अनेक' के भेद से भी विलक्षण है. अ-ब्राह्मिक / अब्राहम / अब्राह्म का उल्लेख वेदों में भी पाया जाता है जिसे एक ओर जहाँ 'ब्रह्म' के ही अंतर्गत कहा गया है, वहीं लौकिक - दृष्टि से वास्तविक धर्म से विपरीत भी बताया गया है जो मनुष्य के वास्तविक कल्याण के लिए हानिकर ही है। जिन्हे प्रमाण चाहिए वे देवीअथर्व-शीर्ष देख सकते हैं।
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Story -8 / कथा -8,
संस्कृता / हिब्रू / saṃskṛtā / Hebrew
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śaniḥ nivasati yasmin dine sa śanivāsaraḥ
nivārayati ca anyān grahān tato sa śanivāro |
raviḥ somaḥ maṅgalo,budho, gurū śukrādayāḥ
tathaiva kurvantu nivārayanti sarvānanyānapi |
tasmāt saptāḥ āha, saptāni ahāni bhavantu,
saptāha iti saṃskṛte, śabbātha hibrūbhāṣāyām ||
saṃskṛtā choktā, likhitā śodhitā:'pi samyak
dakṣiṇe gatiśīlā vāmādasau dakṣiṇayā vāk |
hibrū tu brūyāt anulikhitā dakṣiṇātvāmaṃ
prathyate smṛtyā bhavati smṛtibhraṃśādapabhraṃśā ||
grahāḥ kālaṃ sṛjanti yathā kālo sasarja tān |
grahāḥ bāhyaṃ jagat kālo tu antargataṃ ||
jagati grahāḥ devāḥ dehe devatā tadvat |
dehasthitā devā te prerayantyasmān ||
rāhurūpeṇa svasthāne keturūpeṇa svakāle
paribhramanti kakṣāyāṃ sve-sve aharniśāyām ||
dehastha devatāpi paribhramanti ātmamanasi |
jīvajagatoḥ tathaiva bhrāmayan tau tathā cha ||
aṣṭakā māyā nāgāḥ maho-amarāvajñiptāḥ |
rakṣayakṣau gandharvā manavaḥ ca vasavādityāḥ ||
parvateṣu upatyakāsu, vanaprāntare marubhūmyām |
pṛthivyāṃ babhūvuḥ sarve hi ādisṛṣṭyām ||
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Meaning :
The Time when Saturn / śaniḥ has authority at a place for 24 consecutive hours is called Saturday (śanivāsaraḥ / śanivāraḥ), because this planet annihilates / lessens the effect of other 6 planets on us.
In the same way there are days, -each of 24 hours when the planets Sun, Moon, Mars, Mercury, Jupiter, and Venus enjoy their Lordship over us.In Saṃskṛta this heptarchy is called 'saptāh' > sapt =7 ahan / ahaH = day. These planets generate 'Time' and 'Space', and in turn 'Time' and 'Space' generate them. The planets revolve in their respective orbits while rāhu (dragon's head) which is 'Space' stays motionless, and ketu (Dragon's tail) which is 'Time' though eternal / stationary (from beyond to beyond) keeps moving all the time (from past to future) .
In Hebrew this becomes Sabbath. Hebrew is a language that is written Right to Left, where-as Saṃskṛta like other many languages Left to right. Here these points are written just to help other things that we shall come across, and so this part is only introductory so is dealt with in short. The research-work of the great neurology-scientist V.S.Ramachandran helps us how our consciousness is greatly affected by studying writing / reading in a L to R or a R to L language.
As this is directly associated to the complicated network of right and left brain, this makes us more or less 'rational' or orthodox in a way. Reasoning, Logic, association of mental perceptions and feelings, emotions and psychic structure has a greatly affected by the simple fact that we use L to R language or R to L. 'Hebrew' was the beginning of 'Abraham-ic' traditions, cultures and languages. And because this Language was based on the foundations of smṛti / memory, this was prone to the defects found in smṛti / memory and is likely to lose its clarity, purity and integrity as well as authenticity also. In comparison 'Brahm-ic' or 'Brahma-tradition' is supported and has foundation in veda (shruti, in contrast to smṛti) and shruti is eternally pure unalloyed and ever so chaste is directly grasped by one who is pure of heart and mind and has a keen approach to the understanding the 'Self' / 'Brahman'. There is no need to adhere to 'faith', but one has to clear only the doubts that obstruct in attaining the Reality of Self / Brahman. Even if one is a nāstika / atheist one is not denied this Reality Supreme, provided he is eager and aspires to investigate the nature of the Supreme Reality. So there is no question at all of comparison between the Abraham-ic and 'Brahma-ic' traditions and approaches. At this juncture, this may be interesting to note that 'Abraham' finds a reference in Veda. On one hand though 'Abraham' / 'Abrahma' / अ- ब्रह्म / abrahma in Saṃskṛta, is accepted as a 'manifestation' of 'Brahman', on the other this has been attributed to be very harmful to the spiritual growth of man also. While insisting upon mono-theism, the 'Abraham-ic'-traditions fail to see that the Supreme Reality which veda call 'Brahman' is beyond the distinction of 'one' or 'many', and so worship of, observing vedika-practices in 'devatā'-aspect of that Supreme Reality helps one immensely in attaining That. About the many things enumerated here one who is interested, may look at the evidence in 'devī-atharva-śīrṣa देवीअथर्व-शीर्ष . In this very scripture where we find many mantra from veda, we also find desription of various 'civilizations' like वसु (अष्टक) / Aztec, - नाग (पाताल) / nether -, महो-अमरीश (meso-america) अवज्ञप्ति (Egypt), राक्षस, असुर (Assyrian), यक्ष (माया maya) गन्धर्व (गांधार), मनुष्य / humans, किन्नर mermaids and fairies, of different clans of man-like specie, which we wrongly call monkey / Gorilla or Bear. These have been narrated in details in 'purāṇa', Mahā-bhārat and Rāmāyaṇa. These civilazations developed and prospered greatly in different parts of earth, in mountains, plains, along the river-banks and sea-shores, deserts woods and other terrains in their own way. We know something about अतलान्तिक / Atlantic /(पाताल), नाग (वितल / vital), अष्टक / Aztec माया / Maya, but we need to arrange that information in proper order and sequence and we shall know much more.
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Next part of this post could be seen in the next post : Story -9 / कथा -9 … !
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संस्कृता / हिब्रू / saṃskṛtā / Hebrew
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शनिः निवसति यस्मिन् दिने स शनिवासरः
निवारयति च अन्यान् ग्रहान् ततो स शनिवारो ।
रविः सोमः मङ्गलो, बुधो, गुरू शुक्रादयाः
तथैव कुर्वन्तु निवारयन्ति सर्वानन्यानपि ।
तस्मात् सप्ताः आह, सप्तानि अहानि भवन्तु,
सप्ताह इति संस्कृते, शब्बाथ हिब्रूभाषायाम् ॥
संस्कृता चोक्ता, लिखिता शोधिताऽपि सम्यक्
दक्षिणे गतिशीला वामादसौ दक्षिणया वाक् ।
हिब्रू तु ब्रूयात् अनुलिखिता दक्षिणात्वामं
प्रथ्यते स्मृत्या भवति स्मृतिभ्रंशादपभ्रंशा ॥
जगति ग्रहाः देवाः देहे देवता तद्वत् ।
देहस्थिता देवा ते प्रेरयन्त्यस्मान् ॥
राहुरूपेण स्वस्थाने केतुरूपेण स्वकाले
परिभ्रमन्ति कक्षायां स्वे-स्वे अहर्निशायाम् ॥
देहस्थ देवतापि परिभ्रमन्ति आत्ममनसि ।
जीवजगतोः तथैव भ्रामयन् तौ तथा च ॥
अष्टका माया नागाः महो-अमरावज्ञिप्ताः ।
रक्षयक्षौ गन्धर्वा मनवः च वसवादित्याः ॥
पर्वतेषु उपत्यकासु, वनप्रान्तरे मरुभूम्याम् ।
पृथिव्यां बभूवुः सर्वे हि आदिसृष्ट्याम् ॥
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अर्थ :
जिस दिन और जिस स्थान पर, समय पर शनिग्रह का अधिकार / वास होता है, उसे शनिवार / शनिवासर कहा जाता है । अन्य ग्रहों के प्रभाव का निवारण / निराकरण करने से उन चौबीस घंटों तक शनि का आधिपत्य उस स्थान पर धरती पर होता है। इसी प्रकार क्रमशः सूर्य (रवि), सोम (चन्द्र ), मंगल, बुध, गुरु (बृहस्पति) तथा शुक्र बारे में भी है । संस्कृत में इन सात दिनों के समूह को सप्ताह कहा जाता है (सप्त =7, अहन् / अहः = दिन ) । हिब्रू भाषा में यही 'शब्बाथ' कहलाता है। हिब्रू वामावर्त लिखी जाती है जबकि संस्कृत दक्षिणावर्त लिखी जाती है। यहां बहुत संक्षेप से लिखा जा रहा है। क्योंकि यह इस लेख का मुख्य विषय नहीं है। वाम से दक्षिण लिखी जानेवाली भाषाएँ और दक्षिण से वाम लिखी जानेवाली भाषाएँ मनुष्य की चेतना में मौलिक भिन्नता पैदा करती हैं। इस विषय में अधिक जानने हेतु प्रख्यात वैज्ञानिक Dr . V.S.Ramachandran द्वारा की गयी खोजों के बारे में अध्ययन इस विषय को समझने में सहायक होगा।
हिब्रू से अ-ब्राह्मिक परम्परा का आरम्भ हुआ जो स्मृति के आधार पर स्थापित / प्रचलित रूढ़ियों का अव्यवस्थित क्रम है। 'स्मृति' स्वभाव से ही भ्रंश-दोष से दूषित होने से निरंतर ह्रासोन्मुख होती है। दूसरी ओर ब्राह्मिक / ब्रह्म / ब्राह्मण परम्परा दर्शन और सतत अनुसंधान पर आधारित होने से सदा शुद्ध रहती है।
स्थान और काल से जगत में ग्रहों का जन्म होता है इसी प्रकार काल-स्थान ग्रहों की उत्पत्ति हैं। सात उपरोक्त गृह तो भौतिक-पिण्डों के रूप में हमें ज्ञात हैं जबकि स्थान और काल भी भौतिक पिण्ड हैं इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। यह 'स्थान' ही व्यक्त रूप में 'राहु' तथा 'काल' ही व्यक्त रूप में 'केतु' हैं। ब्राह्मिक और अ-ब्राह्मिक के बीच इसलिए तुलना का प्रश्न ही नहीं उठता। (कृपया इस पोस्ट के अंग्रेज़ी अनुवाद में संलग्न दो 'links' भी देखें). काल-स्थान इस प्रकार वह 'अक्ष' / धुरी है जिसके अंतर्गत विभिन्न भौतिक शक्तियाँ हमें व्यक्त इन्द्रियगम्य और बुद्धिगम्य रूप में रूप दिखाई देती हैं, किन्तु जिनका 'देवता-स्वरूप' हमारी इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि की पकड़ में नहीं आता। अब्राह्मिक / अब्राहमिक परम्पराएँ इस दृष्टि से नितांत त्रुटियुक्त हैं कि 'एकेश्वरवाद' के दुराग्रह से वे 'देवता'-रूपी उस परमेश्वर की अवहेलना कर देती हैं जो 'एक' तथा 'अनेक' के भेद से भी विलक्षण है. अ-ब्राह्मिक / अब्राहम / अब्राह्म का उल्लेख वेदों में भी पाया जाता है जिसे एक ओर जहाँ 'ब्रह्म' के ही अंतर्गत कहा गया है, वहीं लौकिक - दृष्टि से वास्तविक धर्म से विपरीत भी बताया गया है जो मनुष्य के वास्तविक कल्याण के लिए हानिकर ही है। जिन्हे प्रमाण चाहिए वे देवीअथर्व-शीर्ष देख सकते हैं।
इसी ग्रन्थ देवीअथर्व-शीर्ष में, हमें वसु (अष्टक), - नाग (पाताल) , महो-अमरीश (meso-america) अवज्ञप्ति (Egypt), राक्षस, असुर (Assyrian), यक्ष (माया maya) गन्धर्व (गांधार), मनुष्य, किन्नर तथा वानर जातियों और सभ्यताओं का उल्लेख भी मिलता है। इन सभी का उल्लेख पुराणों में भी तथा रामायण व महाभारत में भी विस्तारपूर्वक प्राप्त है।
इन सभ्यताओं का 'विकास' अपने अपने ढंग से मैदानों, पर्वतों, सागर-तटों मरुभूमियों नदी-तटों और वनों तथा अन्य स्थानो हुआ। इनमें से अतलान्तिक / Atlantic /(पाताल), नाग (वितल / vital), अष्टक / Aztec माया / Maya आदि के बारे में हमारे पास विश्वसनीय जानकारी तो है किन्तु आवश्यकता बस इतनी है हम उसे ठीक से सहेजकर सुव्यवस्थित कर सकें।
इसके आगे का अंश Story -9 / कथा -9 में पढ़िए … !
इन सभ्यताओं का 'विकास' अपने अपने ढंग से मैदानों, पर्वतों, सागर-तटों मरुभूमियों नदी-तटों और वनों तथा अन्य स्थानो हुआ। इनमें से अतलान्तिक / Atlantic /(पाताल), नाग (वितल / vital), अष्टक / Aztec माया / Maya आदि के बारे में हमारे पास विश्वसनीय जानकारी तो है किन्तु आवश्यकता बस इतनी है हम उसे ठीक से सहेजकर सुव्यवस्थित कर सकें।
इसके आगे का अंश Story -9 / कथा -9 में पढ़िए … !
Story -8 / कथा -8,
संस्कृता / हिब्रू / saṃskṛtā / Hebrew
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śaniḥ nivasati yasmin dine sa śanivāsaraḥ
nivārayati ca anyān grahān tato sa śanivāro |
raviḥ somaḥ maṅgalo,budho, gurū śukrādayāḥ
tathaiva kurvantu nivārayanti sarvānanyānapi |
tasmāt saptāḥ āha, saptāni ahāni bhavantu,
saptāha iti saṃskṛte, śabbātha hibrūbhāṣāyām ||
saṃskṛtā choktā, likhitā śodhitā:'pi samyak
dakṣiṇe gatiśīlā vāmādasau dakṣiṇayā vāk |
hibrū tu brūyāt anulikhitā dakṣiṇātvāmaṃ
prathyate smṛtyā bhavati smṛtibhraṃśādapabhraṃśā ||
grahāḥ kālaṃ sṛjanti yathā kālo sasarja tān |
grahāḥ bāhyaṃ jagat kālo tu antargataṃ ||
jagati grahāḥ devāḥ dehe devatā tadvat |
dehasthitā devā te prerayantyasmān ||
rāhurūpeṇa svasthāne keturūpeṇa svakāle
paribhramanti kakṣāyāṃ sve-sve aharniśāyām ||
dehastha devatāpi paribhramanti ātmamanasi |
jīvajagatoḥ tathaiva bhrāmayan tau tathā cha ||
aṣṭakā māyā nāgāḥ maho-amarāvajñiptāḥ |
rakṣayakṣau gandharvā manavaḥ ca vasavādityāḥ ||
parvateṣu upatyakāsu, vanaprāntare marubhūmyām |
pṛthivyāṃ babhūvuḥ sarve hi ādisṛṣṭyām ||
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Meaning :
The Time when Saturn / śaniḥ has authority at a place for 24 consecutive hours is called Saturday (śanivāsaraḥ / śanivāraḥ), because this planet annihilates / lessens the effect of other 6 planets on us.
In the same way there are days, -each of 24 hours when the planets Sun, Moon, Mars, Mercury, Jupiter, and Venus enjoy their Lordship over us.In Saṃskṛta this heptarchy is called 'saptāh' > sapt =7 ahan / ahaH = day. These planets generate 'Time' and 'Space', and in turn 'Time' and 'Space' generate them. The planets revolve in their respective orbits while rāhu (dragon's head) which is 'Space' stays motionless, and ketu (Dragon's tail) which is 'Time' though eternal / stationary (from beyond to beyond) keeps moving all the time (from past to future) .
In Hebrew this becomes Sabbath. Hebrew is a language that is written Right to Left, where-as Saṃskṛta like other many languages Left to right. Here these points are written just to help other things that we shall come across, and so this part is only introductory so is dealt with in short. The research-work of the great neurology-scientist V.S.Ramachandran helps us how our consciousness is greatly affected by studying writing / reading in a L to R or a R to L language.
As this is directly associated to the complicated network of right and left brain, this makes us more or less 'rational' or orthodox in a way. Reasoning, Logic, association of mental perceptions and feelings, emotions and psychic structure has a greatly affected by the simple fact that we use L to R language or R to L. 'Hebrew' was the beginning of 'Abraham-ic' traditions, cultures and languages. And because this Language was based on the foundations of smṛti / memory, this was prone to the defects found in smṛti / memory and is likely to lose its clarity, purity and integrity as well as authenticity also. In comparison 'Brahm-ic' or 'Brahma-tradition' is supported and has foundation in veda (shruti, in contrast to smṛti) and shruti is eternally pure unalloyed and ever so chaste is directly grasped by one who is pure of heart and mind and has a keen approach to the understanding the 'Self' / 'Brahman'. There is no need to adhere to 'faith', but one has to clear only the doubts that obstruct in attaining the Reality of Self / Brahman. Even if one is a nāstika / atheist one is not denied this Reality Supreme, provided he is eager and aspires to investigate the nature of the Supreme Reality. So there is no question at all of comparison between the Abraham-ic and 'Brahma-ic' traditions and approaches. At this juncture, this may be interesting to note that 'Abraham' finds a reference in Veda. On one hand though 'Abraham' / 'Abrahma' / अ- ब्रह्म / abrahma in Saṃskṛta, is accepted as a 'manifestation' of 'Brahman', on the other this has been attributed to be very harmful to the spiritual growth of man also. While insisting upon mono-theism, the 'Abraham-ic'-traditions fail to see that the Supreme Reality which veda call 'Brahman' is beyond the distinction of 'one' or 'many', and so worship of, observing vedika-practices in 'devatā'-aspect of that Supreme Reality helps one immensely in attaining That. About the many things enumerated here one who is interested, may look at the evidence in 'devī-atharva-śīrṣa देवीअथर्व-शीर्ष . In this very scripture where we find many mantra from veda, we also find desription of various 'civilizations' like वसु (अष्टक) / Aztec, - नाग (पाताल) / nether -, महो-अमरीश (meso-america) अवज्ञप्ति (Egypt), राक्षस, असुर (Assyrian), यक्ष (माया maya) गन्धर्व (गांधार), मनुष्य / humans, किन्नर mermaids and fairies, of different clans of man-like specie, which we wrongly call monkey / Gorilla or Bear. These have been narrated in details in 'purāṇa', Mahā-bhārat and Rāmāyaṇa. These civilazations developed and prospered greatly in different parts of earth, in mountains, plains, along the river-banks and sea-shores, deserts woods and other terrains in their own way. We know something about अतलान्तिक / Atlantic /(पाताल), नाग (वितल / vital), अष्टक / Aztec माया / Maya, but we need to arrange that information in proper order and sequence and we shall know much more.
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