What makes me insensitive?!
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Sensitivity begets sensitivity while insensitivity breeds insensitivity only. When the life around you is killing you and you can't protect yourself nor change the life around you, you had the only alternative left is : be insensitive. And this creates a need for 'entertainment'. And as much entertainment is available, you become more and more insensitive. In old times there was almost nothing like entertainment and people lived in peace and at the level of minimum entertainment. bull-fight and simple music were all in the name of entertainment. Now there is vast scope of a large kinds of entertainments and if you have money you could 'buy'. The TV, The drugs, The sex-industry , net... . There are some basic needs necessary for living, but there are thrills, excitements, occupations, that only make us more and more insensitive or fanatic. That too is a form of insensitivity. When I see the pics of animals slaughtered in the name of qurbani , I either defend justify the act, or turn aghast, or begin criticizing this or that religion. In every way I become insensitive. When I read the news of violence, crimes, rapes, I either try to 'know more' the details with a view to find a pervert titillation or with rage against something or some-one and I try to identify that some-thing in the form of a group of people, of a culture, caste, religion or race / nationality. I can join some religious group committed to some ideal, and in the interest of achieving the ‘goal’ / objective of that group, I would happily kill or get killed in the process. On every count I just become narrow-minded and more insensitive to the fact of violence, fear, doubt and anger etc, in myself. In a way I am less and less alive and more and more dead!
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अपने असंवेदनशील होने का प्रश्न ?!
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संवेदनशीलता से संवेदनशीलता परिवर्धित होती है और असंवेदनशीलता से असंवेदनशीलता।
जब आपके आसपास का वातावरण आपको मार डालने पर तुला हो और न तो आप अपनी रक्षा कर सकते हों और न ही आपके चारों ओर के जीवन को बदल सकते हों तो आपके पास एकमात्र विकल्प होता है : असंवेदनशील हो जाना। और परिणामस्वरूप 'मनोरंजन' की ज़रुरत का जन्म होता है। और जितने अधिक विविध प्रकारों का मनोरंजन आपको उपलब्ध होता है, आप उतने ही अधिक असंवेदनशील होने लगते हैं। पुराने समय में मनोरंजन नामक वस्तु प्रायः अनुपलब्ध हुआ करती थी और लोग अधिक शांतिपूर्वक जीते थे। मनोरंजन तब पाड़ों की लड़ाई, हल्का-फुल्का संगीत आदि तक सीमित होता था। आजकल मनोरंजन के असंख्य प्रकार और साधन / माध्यम आसानी से प्राप्त हैं, अगर चुकाने के लिए आपकी जेब में पैसे हैं। टीवी, वीडिओ, गेम्स, नशीले द्रव्य, सेक्स और कामुकता के अनेक प्रकारों का, अश्लीलता का मज़ा, इंटरनेट … । हालाँकि जीवन को सुखपूर्वक जीने हेतु कुछ मूल आवश्यकताओं का पूरा होना एक शर्त है, किन्तु आज के जीवन में उत्तेजनाएँ, आकर्षण, मन-बहलाव और समय बिताने के इतने अधिक साधन हमें निमंत्रण देते हैं, और हमें अधिक से अधिक असंवेदनशील और पागलपन / सनक / कट्टरता की हद तक ले जाते हैं कि अपना विवेक ही हमें सही-गलत का चुनाव करने में सहायक हो सकता है। यह पागलपन / सनक / कट्टरता असंवेदनशीलता के ही अनेक प्रकारमात्र होते हैं, इस ओर शायद कभी हमारा ध्यान जाता हो। जब मैं 'मीडिया' में छपे 'क़ुर्बानी' के नाम पर क़त्ल किए जा रहे जानवरों के फ़ोटोज़ देखता हूँ , तो या तो उसे अपने विश्वासों / मतों के आधार पर न्यायसंगत ठहराता हूँ, या बस व्याकुल होकर उनसे अपना ध्यान हटा लेता हूँ, या फिर उस समूह-विशेष के विरोध में उग्रता से अपना रोष व्यक्त करता हूँ। तब मैं इस या उस 'धर्म' के पक्ष या विरोध में सक्रिय हो उठता हूँ और 'मेरे' मत के लोगों से जुड़ने लगता हूँ।
इन सभी तरीकों से मैं सिर्फ और भी अधिक से अधिक असंवेदनशील होता जा रहा हूँ इस ओर मेरा ध्यान ही नहीं जाता। जब मैं हिंसा, युद्ध, हत्या, बलात्कार और दूसरे अपराधों की खबरें पढ़ता / देखता हूँ तो भय, रोमांच, या लोलुप उत्सुकता मुझे और अधिक जानने के लिए उकसाती है। किसी समूह या लोगों के प्रति मुझ में घृणा, रोष, प्रतिहिंसा और क्रोध उठ खड़े होते हैं, और अपने मन में, मैं उनकी 'पहचान' किसी 'संस्कृति', धर्म, जाति, भाषा, सभ्यता, राष्ट्रीयता से सम्बद्ध लोगों के रूप में तय कर लेता हूँ। यह सब इतनी शीघ्र हो जाता है कि मुझे पता नहीं चल पाता कि कैसे मैं संकीर्ण बुद्धि से ग्रस्त हो रहा हूँ तब मैं अपनी संकीर्ण बुद्धि से प्रेरित होकर इस या उस वर्ग-विशेष से अपने को जुड़ा देखने लगता हूँ और उसके आदर्शों / सिद्धांतों / विचारों / उद्देश्यों के लिए खुशी खुशी और गौरवपूर्वक मरने-मारने के लिए तैयार हो जाता हूँ। किसी भी रूप में क्यों न हो, इस तरह मैं बस और भी अधिक संकीर्ण मनोवृत्ति वाला, अपने आप के भीतर स्थित भय, घृणा, क्रोध, दुविधा, आदि से अनभिज्ञ, अपने और अपने संसार के यथार्थ के प्रति असंवेदनशील मनुष्य होता हूँ। यूँ कहना गलत नहीं होगा कि 'जीवन' के वास्तविक अर्थ की दृष्टि से, तब मैं अधिकतम मृत और कम से कम जीवित होता हूँ।
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Sensitivity begets sensitivity while insensitivity breeds insensitivity only. When the life around you is killing you and you can't protect yourself nor change the life around you, you had the only alternative left is : be insensitive. And this creates a need for 'entertainment'. And as much entertainment is available, you become more and more insensitive. In old times there was almost nothing like entertainment and people lived in peace and at the level of minimum entertainment. bull-fight and simple music were all in the name of entertainment. Now there is vast scope of a large kinds of entertainments and if you have money you could 'buy'. The TV, The drugs, The sex-industry , net... . There are some basic needs necessary for living, but there are thrills, excitements, occupations, that only make us more and more insensitive or fanatic. That too is a form of insensitivity. When I see the pics of animals slaughtered in the name of qurbani , I either defend justify the act, or turn aghast, or begin criticizing this or that religion. In every way I become insensitive. When I read the news of violence, crimes, rapes, I either try to 'know more' the details with a view to find a pervert titillation or with rage against something or some-one and I try to identify that some-thing in the form of a group of people, of a culture, caste, religion or race / nationality. I can join some religious group committed to some ideal, and in the interest of achieving the ‘goal’ / objective of that group, I would happily kill or get killed in the process. On every count I just become narrow-minded and more insensitive to the fact of violence, fear, doubt and anger etc, in myself. In a way I am less and less alive and more and more dead!
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अपने असंवेदनशील होने का प्रश्न ?!
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संवेदनशीलता से संवेदनशीलता परिवर्धित होती है और असंवेदनशीलता से असंवेदनशीलता।
जब आपके आसपास का वातावरण आपको मार डालने पर तुला हो और न तो आप अपनी रक्षा कर सकते हों और न ही आपके चारों ओर के जीवन को बदल सकते हों तो आपके पास एकमात्र विकल्प होता है : असंवेदनशील हो जाना। और परिणामस्वरूप 'मनोरंजन' की ज़रुरत का जन्म होता है। और जितने अधिक विविध प्रकारों का मनोरंजन आपको उपलब्ध होता है, आप उतने ही अधिक असंवेदनशील होने लगते हैं। पुराने समय में मनोरंजन नामक वस्तु प्रायः अनुपलब्ध हुआ करती थी और लोग अधिक शांतिपूर्वक जीते थे। मनोरंजन तब पाड़ों की लड़ाई, हल्का-फुल्का संगीत आदि तक सीमित होता था। आजकल मनोरंजन के असंख्य प्रकार और साधन / माध्यम आसानी से प्राप्त हैं, अगर चुकाने के लिए आपकी जेब में पैसे हैं। टीवी, वीडिओ, गेम्स, नशीले द्रव्य, सेक्स और कामुकता के अनेक प्रकारों का, अश्लीलता का मज़ा, इंटरनेट … । हालाँकि जीवन को सुखपूर्वक जीने हेतु कुछ मूल आवश्यकताओं का पूरा होना एक शर्त है, किन्तु आज के जीवन में उत्तेजनाएँ, आकर्षण, मन-बहलाव और समय बिताने के इतने अधिक साधन हमें निमंत्रण देते हैं, और हमें अधिक से अधिक असंवेदनशील और पागलपन / सनक / कट्टरता की हद तक ले जाते हैं कि अपना विवेक ही हमें सही-गलत का चुनाव करने में सहायक हो सकता है। यह पागलपन / सनक / कट्टरता असंवेदनशीलता के ही अनेक प्रकारमात्र होते हैं, इस ओर शायद कभी हमारा ध्यान जाता हो। जब मैं 'मीडिया' में छपे 'क़ुर्बानी' के नाम पर क़त्ल किए जा रहे जानवरों के फ़ोटोज़ देखता हूँ , तो या तो उसे अपने विश्वासों / मतों के आधार पर न्यायसंगत ठहराता हूँ, या बस व्याकुल होकर उनसे अपना ध्यान हटा लेता हूँ, या फिर उस समूह-विशेष के विरोध में उग्रता से अपना रोष व्यक्त करता हूँ। तब मैं इस या उस 'धर्म' के पक्ष या विरोध में सक्रिय हो उठता हूँ और 'मेरे' मत के लोगों से जुड़ने लगता हूँ।
इन सभी तरीकों से मैं सिर्फ और भी अधिक से अधिक असंवेदनशील होता जा रहा हूँ इस ओर मेरा ध्यान ही नहीं जाता। जब मैं हिंसा, युद्ध, हत्या, बलात्कार और दूसरे अपराधों की खबरें पढ़ता / देखता हूँ तो भय, रोमांच, या लोलुप उत्सुकता मुझे और अधिक जानने के लिए उकसाती है। किसी समूह या लोगों के प्रति मुझ में घृणा, रोष, प्रतिहिंसा और क्रोध उठ खड़े होते हैं, और अपने मन में, मैं उनकी 'पहचान' किसी 'संस्कृति', धर्म, जाति, भाषा, सभ्यता, राष्ट्रीयता से सम्बद्ध लोगों के रूप में तय कर लेता हूँ। यह सब इतनी शीघ्र हो जाता है कि मुझे पता नहीं चल पाता कि कैसे मैं संकीर्ण बुद्धि से ग्रस्त हो रहा हूँ तब मैं अपनी संकीर्ण बुद्धि से प्रेरित होकर इस या उस वर्ग-विशेष से अपने को जुड़ा देखने लगता हूँ और उसके आदर्शों / सिद्धांतों / विचारों / उद्देश्यों के लिए खुशी खुशी और गौरवपूर्वक मरने-मारने के लिए तैयार हो जाता हूँ। किसी भी रूप में क्यों न हो, इस तरह मैं बस और भी अधिक संकीर्ण मनोवृत्ति वाला, अपने आप के भीतर स्थित भय, घृणा, क्रोध, दुविधा, आदि से अनभिज्ञ, अपने और अपने संसार के यथार्थ के प्रति असंवेदनशील मनुष्य होता हूँ। यूँ कहना गलत नहीं होगा कि 'जीवन' के वास्तविक अर्थ की दृष्टि से, तब मैं अधिकतम मृत और कम से कम जीवित होता हूँ।
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