Story -5 / कथा-5
अपरोक्षानुभूति
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रात्रि में पेट दर्द कर रहा था, फ़िर नींद आ गई थी तो सो गया । पेट-दर्द तब था या नहीं, या कहाँ था, कुछ नहीं कह सकता । सुबह 3:35 से 4:00 के बीच एक स्वप्न देखा । मैं अपने किसी घर में था । मेरी बहन और माँ मुझसे थोड़ी दूर आपस में बातें कर रहे थे । मैं अपने किसी काम में व्यस्त था । जब मैंने देखा कि वहाँ मेरी माँ और बहन हैं, तो मन में प्रश्न उठा कि माँ की तो मृत्यु हो चुकी है, फ़िर यह औरत कौन है, जो न सिर्फ़ हू-ब-हू माँ जैसी लग रही है, बल्कि व्यवहार भी वैसा ही कर रही है ? मैं उनके पास पहुँचा तो वह औरत बोली :
’तुम किला बनाओगे क्या?’
(मुझे याद आया जब मैं 10-11 साल का, और मेरा भाई 5-6 साल का था, तब हमारी माँ ने दशहरे / दीपावलि के कुछ दिनों पहले हमारे मन-बहलाव के लिए घर के बड़े से आँगन में मिट्टी का एक ’किला’ बनाया था । जिसमें दो-तीन मंज़िलें थीं । उनमें दूसरी और तीसरी मंज़िल पर छोटे-छोटे खेतनुमा दालान बने थे, जिनमें माँ ने राई के बीज डाल दिए थे, जो हफ़्ते भर में उग आए थे, और ’किले’ को पहाड़ी का रूप देते प्रतीत होते थे । मैंने पूछा यह क्या है? तो माँ बोली थी, यह दुश्मन की नज़रों से बचने के लिए और उन्हें भ्रमित करने के लिए है ।
मुझे यह भी लगता है कि माँ ने यह प्रश्न उनके संबंध में मेरे संशय का निवारण करने के लिए और यह प्रमाणित करने के लिए कि वे मेरी माँ हैं, संकेत-स्वरूप किया था ।)
मैंने उस औरत को कोई जवाब नहीं दिया और बाहर पानी भरने चला गया, क्योंकि नलों में पानी आ रहा था और पड़ौसी पानी भर रहे थे । इस बीच मैंने नल के नीचे बाल्टी रखते हुए सोचा कि किचन में रखे प्लास्टिक के गमलेनुमा डिब्बे की पुरानी मिट्टी बदलकर उसमें नई ताज़ा मिट्टी डाल दूँ ।
उसे उठाकर बाहर लाया और दूसरी मिट्टी में मिलाने लगा। फिर ध्यान आया कि प्लास्टिक के डिब्बे में गीली मिट्टी ही पुनः भर रहा हूँ, तो भूल सुधार कर सूखी मिट्टी उसमें भरने लगा था। इस बीच मैं उस औरत के बारे में सोचता रहा।
'अगर यह माँ है, तो माँ की मृत्यु हुई थी और उसे श्मशान ले जाकर जला दिया था, क्या यह सब स्वप्न में देखा था?'
फिर मैंने आकर बहन से पूछा :
'यह माँ नहीं हालाँकि बिलकुल माँ जैसी ही कोई दूसरी स्त्री है !
(मराठी में बोला : ही कोणती तरी दुसरी बाई आहे। )
यह सुनकर मेरी बहन सोच में पड़ गई।
बाहर नल पर पड़ौसी पानी भर रहे थे और मैं सोच रहा था कि यह सब सपने में हो है, - सच नहीं है। फिर मेरे मन में प्रश्न उठा 'फ़िर सच क्या है ? तुम अभी कहीं सोए हो और सपना देख रहे हो? क्या वह सोया होना सच है?'
हालाँकि सच क्या है इस बारे में कोई कल्पना मेरे मन में हो भी नहीं सकती थी। यह प्रश्न पहले के स्वप्नों की स्मृति के कारण मन में उठा था। किन्तु 'सत्य' क्या हो सकता है इस बारे में भी मुझे तब कोई कल्पना / ख़याल नहीं था ।
(जैसे कि इस समय भी, 'सत्य क्या है?' इस प्रश्न का कोई उत्तर, कल्पना, ख़याल मेरे पास है क्या?)
इसी प्रकार स्वप्न में भी इसीलिए तब कोई कल्पना, अनुमान, या ख़याल कैसे हो सकता था ?
नींद खुली और स्वप्न भी खो गया । नींद खुलने और पूरी तरह जागने, अर्थात् मैं कहाँ हूँ, क्या कर रहा हूँ इस बारे में सचेत होने के बीच सोच रहा था कि अभी मैं स्वप्न के बारे में सचेत नहीं हूँ, और न इस बारे में कि ’जागने’ / पूरी तरह जागने पर जाने पर मैं अपनी किस स्थिति के बारे में सचेत होऊँगा । मैं सोच रहा था कि जिन लोगों (बहन, माँ) को मैंने ’स्वप्न’ में देखा था, क्या उन्होंने भी उनके ’मन’ के किसी तल पर इसी स्वप्न को उनके अपने मन में उनके अपने सन्दर्भ में देखा होगा? क्या वे कहीं हैं ? बहन है, जिससे मैं संभवतः जाकर मिल सकता हूँ, माँ थी, जब जीवित थी तब, -और अभी देखे गए सपने में उस औरत के रूप में, जिसके मेरी माँ होने के बारे में मुझे संशय था । अब मैं हूँ, बहन है, माँ नहीं हैं । स्वप्न में हम तीनों थे । तब पेट-दर्द कहाँ था? पेट-दर्द, जो कि अब फ़िर है? तब पेट-दर्द का खयाल भी कहाँ था? अगर वह स्वप्न ही था तो अभी का पेट-दर्द वास्तविक कैसे है? क्या यह स्वप्न ही नहीं है?
आजकल 'अपरोक्षानुभूति' को ब्लॉग्स पर पोस्ट करने के लिए एडिट कर रहा हूँ। कल ही यह टाइप किया था :
. …
अनुभूतोऽप्ययं लोको व्यवहारक्षमोऽपि सन् ।
असद्रूपो यथा स्वप्न उत्तरक्षणबाधतः ॥56
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अनुभूतः अपि अयं लोकः व्यवहारक्षमः अपि सन् ।
असत्-रूपः यथा स्वप्नः उत्तरक्षण बाधतः ॥
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anubhūto:'pyayaṃ loko vyavahārakṣamo:'pi san |
asadrūpo yathā svapna uttarakṣaṇabādhataḥ ||57
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anubhūtaḥ api ayaṃ lokaḥ uttarakṣaṇabādhataḥ |
asat-rūpaḥ yathā svapnaḥ uttarakṣaṇa bādhataḥ ||
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स्वप्नो जागरणेऽलीकः स्वप्नेऽपि जागरो न हि ।
द्वयमेव लये नास्ति लयोऽपि ह्युभयोर्न च ॥57
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स्वप्नः जागरणे-अलीकः स्वप्ने-अपि जागरः न हि ।
द्वयं-एव लये नास्ति लयः-अपि उभयोः न च ॥
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svapno jāgaraṇe:'līkaḥ svapne:'pi jāgaro na hi |
dvayameva laye nāsti layo:'pi hyubhayorna ca ||57
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svapnaḥ jāgaraṇe-alīkaḥ svapne-api jāgaraḥ na hi |
dvayaṃ-eva laye nāsti layaḥ-api ubhayoḥ na ca ||
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अपरोक्षानुभूति
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रात्रि में पेट दर्द कर रहा था, फ़िर नींद आ गई थी तो सो गया । पेट-दर्द तब था या नहीं, या कहाँ था, कुछ नहीं कह सकता । सुबह 3:35 से 4:00 के बीच एक स्वप्न देखा । मैं अपने किसी घर में था । मेरी बहन और माँ मुझसे थोड़ी दूर आपस में बातें कर रहे थे । मैं अपने किसी काम में व्यस्त था । जब मैंने देखा कि वहाँ मेरी माँ और बहन हैं, तो मन में प्रश्न उठा कि माँ की तो मृत्यु हो चुकी है, फ़िर यह औरत कौन है, जो न सिर्फ़ हू-ब-हू माँ जैसी लग रही है, बल्कि व्यवहार भी वैसा ही कर रही है ? मैं उनके पास पहुँचा तो वह औरत बोली :
’तुम किला बनाओगे क्या?’
(मुझे याद आया जब मैं 10-11 साल का, और मेरा भाई 5-6 साल का था, तब हमारी माँ ने दशहरे / दीपावलि के कुछ दिनों पहले हमारे मन-बहलाव के लिए घर के बड़े से आँगन में मिट्टी का एक ’किला’ बनाया था । जिसमें दो-तीन मंज़िलें थीं । उनमें दूसरी और तीसरी मंज़िल पर छोटे-छोटे खेतनुमा दालान बने थे, जिनमें माँ ने राई के बीज डाल दिए थे, जो हफ़्ते भर में उग आए थे, और ’किले’ को पहाड़ी का रूप देते प्रतीत होते थे । मैंने पूछा यह क्या है? तो माँ बोली थी, यह दुश्मन की नज़रों से बचने के लिए और उन्हें भ्रमित करने के लिए है ।
मुझे यह भी लगता है कि माँ ने यह प्रश्न उनके संबंध में मेरे संशय का निवारण करने के लिए और यह प्रमाणित करने के लिए कि वे मेरी माँ हैं, संकेत-स्वरूप किया था ।)
मैंने उस औरत को कोई जवाब नहीं दिया और बाहर पानी भरने चला गया, क्योंकि नलों में पानी आ रहा था और पड़ौसी पानी भर रहे थे । इस बीच मैंने नल के नीचे बाल्टी रखते हुए सोचा कि किचन में रखे प्लास्टिक के गमलेनुमा डिब्बे की पुरानी मिट्टी बदलकर उसमें नई ताज़ा मिट्टी डाल दूँ ।
उसे उठाकर बाहर लाया और दूसरी मिट्टी में मिलाने लगा। फिर ध्यान आया कि प्लास्टिक के डिब्बे में गीली मिट्टी ही पुनः भर रहा हूँ, तो भूल सुधार कर सूखी मिट्टी उसमें भरने लगा था। इस बीच मैं उस औरत के बारे में सोचता रहा।
'अगर यह माँ है, तो माँ की मृत्यु हुई थी और उसे श्मशान ले जाकर जला दिया था, क्या यह सब स्वप्न में देखा था?'
फिर मैंने आकर बहन से पूछा :
'यह माँ नहीं हालाँकि बिलकुल माँ जैसी ही कोई दूसरी स्त्री है !
(मराठी में बोला : ही कोणती तरी दुसरी बाई आहे। )
यह सुनकर मेरी बहन सोच में पड़ गई।
बाहर नल पर पड़ौसी पानी भर रहे थे और मैं सोच रहा था कि यह सब सपने में हो है, - सच नहीं है। फिर मेरे मन में प्रश्न उठा 'फ़िर सच क्या है ? तुम अभी कहीं सोए हो और सपना देख रहे हो? क्या वह सोया होना सच है?'
हालाँकि सच क्या है इस बारे में कोई कल्पना मेरे मन में हो भी नहीं सकती थी। यह प्रश्न पहले के स्वप्नों की स्मृति के कारण मन में उठा था। किन्तु 'सत्य' क्या हो सकता है इस बारे में भी मुझे तब कोई कल्पना / ख़याल नहीं था ।
(जैसे कि इस समय भी, 'सत्य क्या है?' इस प्रश्न का कोई उत्तर, कल्पना, ख़याल मेरे पास है क्या?)
इसी प्रकार स्वप्न में भी इसीलिए तब कोई कल्पना, अनुमान, या ख़याल कैसे हो सकता था ?
नींद खुली और स्वप्न भी खो गया । नींद खुलने और पूरी तरह जागने, अर्थात् मैं कहाँ हूँ, क्या कर रहा हूँ इस बारे में सचेत होने के बीच सोच रहा था कि अभी मैं स्वप्न के बारे में सचेत नहीं हूँ, और न इस बारे में कि ’जागने’ / पूरी तरह जागने पर जाने पर मैं अपनी किस स्थिति के बारे में सचेत होऊँगा । मैं सोच रहा था कि जिन लोगों (बहन, माँ) को मैंने ’स्वप्न’ में देखा था, क्या उन्होंने भी उनके ’मन’ के किसी तल पर इसी स्वप्न को उनके अपने मन में उनके अपने सन्दर्भ में देखा होगा? क्या वे कहीं हैं ? बहन है, जिससे मैं संभवतः जाकर मिल सकता हूँ, माँ थी, जब जीवित थी तब, -और अभी देखे गए सपने में उस औरत के रूप में, जिसके मेरी माँ होने के बारे में मुझे संशय था । अब मैं हूँ, बहन है, माँ नहीं हैं । स्वप्न में हम तीनों थे । तब पेट-दर्द कहाँ था? पेट-दर्द, जो कि अब फ़िर है? तब पेट-दर्द का खयाल भी कहाँ था? अगर वह स्वप्न ही था तो अभी का पेट-दर्द वास्तविक कैसे है? क्या यह स्वप्न ही नहीं है?
आजकल 'अपरोक्षानुभूति' को ब्लॉग्स पर पोस्ट करने के लिए एडिट कर रहा हूँ। कल ही यह टाइप किया था :
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अनुभूतोऽप्ययं लोको व्यवहारक्षमोऽपि सन् ।
असद्रूपो यथा स्वप्न उत्तरक्षणबाधतः ॥56
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अनुभूतः अपि अयं लोकः व्यवहारक्षमः अपि सन् ।
असत्-रूपः यथा स्वप्नः उत्तरक्षण बाधतः ॥
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anubhūto:'pyayaṃ loko vyavahārakṣamo:'pi san |
asadrūpo yathā svapna uttarakṣaṇabādhataḥ ||57
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anubhūtaḥ api ayaṃ lokaḥ uttarakṣaṇabādhataḥ |
asat-rūpaḥ yathā svapnaḥ uttarakṣaṇa bādhataḥ ||
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स्वप्नो जागरणेऽलीकः स्वप्नेऽपि जागरो न हि ।
द्वयमेव लये नास्ति लयोऽपि ह्युभयोर्न च ॥57
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स्वप्नः जागरणे-अलीकः स्वप्ने-अपि जागरः न हि ।
द्वयं-एव लये नास्ति लयः-अपि उभयोः न च ॥
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svapno jāgaraṇe:'līkaḥ svapne:'pi jāgaro na hi |
dvayameva laye nāsti layo:'pi hyubhayorna ca ||57
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svapnaḥ jāgaraṇe-alīkaḥ svapne-api jāgaraḥ na hi |
dvayaṃ-eva laye nāsti layaḥ-api ubhayoḥ na ca ||
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और इस अद्भुत् स्वप्न ने मानों मुझ पर उन श्लोकों का तात्पर्य स्पष्ट कर दिया।
नींद खुलने के बाद दस-पंद्रह मिनट उनींदी सी स्थिति में भी सचेत रहते हुए, नींद और परिपूर्ण रूप से जागने की स्थितियों के बीच देखे गए उस स्वप्न बारे में सोचता रहा। फिर जब पूरी तरह से जाग गया, अर्थात् 'अभी' के मनोगम्य यथार्थ से रू-ब-रू हुआ तो सोचा कि इसे लिखना ज़रूरी है। फिर सोचा कि 'लिखना' भी तो 'स्वप्न' ही है। इसके 'ज़रूरी' या 'ग़ैर-ज़रूरी' होने का सवाल ही कहाँ उठता है?
जब 'कार्य' की ही सत्यता संदिग्ध है, तो कार्य-कारण की सत्यता कहाँ तक सत्य हो सकती है? इस पूरे क्रम से यह कल्पना मन में उठी कि जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तथा उनके बीच की संधियों की स्थिति, जब कुछ समय तक मन 'तन्द्रा' / उनींदी जैसी स्थिति में होता है, चेतनता / चेतना के ऐसे विभिन्न स्तरों पर जो कुछ भी होता, या होता हुआ प्रतीत होता है, उसका सूत्रधार अवश्य ही कोई ऐसी आश्चर्यजनक सत्ता / प्रज्ञा है जिसका अनुमान तक लगा पाना मनुष्य के लिए उसकी अनुमति / कृपा के बिना असंभव है। वही प्रज्ञा, विधाता और विधान रूपी 'सूत्रधार' और सम्पूर्ण जगत का परमेश्वर है, जो अपनी सृष्टि से स्वतंत्र है, जबकि उसकी सृष्टि, जो उसका ही विस्तार और अभिव्यक्ति है, पूर्णतः उस पर ही आश्रित और अवलम्बित है।
फिर सोचा, विधाता को मानना / जानना या अस्वीकार करना, उसके अस्तित्व का ख़याल तक मन में न आना क्या यह सब उस अप्रतिम प्रज्ञा का ही चिद्विलास नहीं है?
तव स्वरूपं न जानामि कीदृशोऽसि शङ्कर ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो-नमः ॥
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