Wednesday, 3 December 2025

GITA 5/1, 5/2

सांख्यनिष्ठा और कर्मनिष्ठा 

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संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेयः एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेसकरावुभौ। 

तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।२।।

Here Is The Lock Invisible.

संंन्यास अर्थात समस्त कर्मों का सम्यक न्यास कर देना उन्हें संपूर्णतः न तो सैद्धांतिक दृष्टि से और व्यावहारिक दृष्टि से भी संभव है क्योंकि कर्ममात्र प्रकृति के गुणों के माध्यम से घटित होते हैं-

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

(अध्याय ३)

प्रकृति का अर्थ है - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकारयुक्त अंत:करण और भौतिक प्राण, इंद्रियों और चेतनायुक्त शारीरिक जीवन। इसलिए अपने स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता ही वह दोषपूर्ण त्रुटि है जिसे अविद्या कहा जाता है। अविद्या अस्मिता राग-द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों में से सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रथम क्लेश है जो प्रकृति के गुणों के माध्यम से कार्यरूप ग्रहण करता है और घटित होता हुआ प्रतीत भी होता है। इस प्रकार का घटनाक्रम केवल प्रतीति ही होता है, वास्तविक नहीं होता। चेेतना में हो रही इसी प्रतीति को प्रत्यय, संवेदन या वृत्ति (mode of the mind) कहा जाता है। इसी वृृत्ति को मन, बुद्धि, चित्त अहंकार और इनके संयुक्त या पृथक् पृथक् दिखाई देनेवाले इंद्रिय बुद्धि और मनोगम्य विषयों से संबंधित गतिविधि के रूप में भी जाना जाता है। इससे ही मन में -

यह मैंने किया, मैंने नहीं किया, मैं कर रहा हूं, मैं नहीं कर रहा हूं, जैसी विभिन्न मान्यताएं अस्तित्व ग्रहण करती हुई प्रतीत होती हैं और जिनमें समान रूप से विद्यमान "मैं" नामक तत्व की सत्यता पर संदेह तक नहीं होता, क्योंकि ऐसा कोई संदेह करनेवाला कहीं होता ही नहीं। इसे ही प्रमाद (in-attention) कहा जाता है, जो प्रकृति के रजोगुण का प्रभाव होता है। चूंकि समस्त इंद्रियां स्वभाव से ही बहिर्मुख अर्थात् विषयाभिमुख होती हैं इसीलिए उनसे संलग्न मन भिन्न-भिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर चंचल रहता है, जो प्रकृति के रजोगुण का विक्षेप (distraction) नामक प्रभाव होता है।

केवल और शुद्ध भानमात्र ही वह प्रकाश (light) होता है जिसे सतोगुण कहा जाता है।

इस प्रकार - कर्म और कर्ता केवल मान्यता ही हो सकते हैं न कि वास्तविकता। इसी प्रकार की एक मान्यता अहं (आत्मा) के देह-मन-बुद्धि-चित्त में अस्मिता के रूप में व्यक्त होती है जो पुनः क्लेश ही है।

गीता अध्याय १८ में वर्णित निम्न श्लोक के अनुसार-

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुः त्यागं विचक्षणः।।२।।

दोनों ही स्थितियों में अस्मिता कर्तृत्वभाव के रूप में विद्यमान होती ही है जबकि अध्याय ५ के निम्नलिखित श्लोकोॅ में जो स्पष्ट किया गया है तदनुसार-

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित् पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

संक्षेप में -

आत्मानुसंधान / सांंख्य योग / ज्ञानयोग और कर्मयोग 

तपःस्वाध्यायेेश्वरप्रणिधानः क्रिययोगः।।

दो ही निष्ठाएं पात्रता के अनुसार आध्यात्मिक दृष्टि से समान रूप से श्रेयस्कर हैं।

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