Monday, 27 October 2025

Dark Night Of The Soul.

अज्ञ, विज्ञ, अभिज्ञ, और अनभिज्ञ

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जैसे ही कोई जैव-प्रणाली एक स्वतंत्र इकाई के रूप में अपने समग्र अस्तित्व में आती है, उसमें प्रसुप्त, प्रच्छन्न और अनभिव्यक्त जीव-चेतना में अपनी उस जैव इकाई को 'स्व' और उससे भिन्न जगत को 'पर' के रूप में जाना जाता है।

श्रवणकुमार ऐसा ही एक व्यक्ति था।

वह "मैं" था, जिसके माता-पिता दृष्टिहीन थे। पिता 'मन' और माता काया। 'मन' जो मननशील था और जिसका न आदि था और न अन्त। कोई नहीं जानता कि उसमें "समय" का जन्म हुआ था या "समय" में उसका।  किन्तु माता जिसे काया / का या कहते हैं, अवश्य ही "समय" में उसका जन्म हुआ था और "समय" में ही समाप्ति भी होगी, ऐसा उसे श्रवणकुमार समझता था। फिर भी उसे उसके माता-पिता के प्रति अगाध श्रद्धा थी और इसलिए वह चाहता था कि उन्हें सारे तीर्थों की यात्रा पर ले जाए। उसने एक काँवड का निर्माण किया और दोनों सिरों पर दो पलड़ों में माता-पिता को बिठाकर उन्हें तीर्थयात्रा पर ले गया। संसार में विद्यमान असंख्य जड-चेतन वस्तुओं की तरह श्रवणकुमार भी एक चेतन वस्तु या चेतना था, जिसे अपने अस्तित्व का भान था किन्तु संसार की अन्य असंख्य जड-चेतन वस्तुएँ इस भान से युक्त होते हुए भी अपने आपको "मन" या "काया" या उन दोनों का विशेष संयोग भर समझती थीं। संसार में सुख से रहने के लिए यह आवश्यक तो है ही। "मन" और "काया" मानों अंधे की तरह प्रकृति से प्रेरित और संचालित होकर संसार में जन्म से मृत्यु तक सतत गतिशील रहते हैं जबकि उन्हें जिस चेतना में जाना जाता है, वह आधारभूत चेतना न तो गतिशील और न ही अंधी होती है। इस पूरी गतिविधि के साथ चेतना अपनी आत्मा के भान से रहित नहीं होती है किन्तु उस अविकारी आत्मा को जाननेवाला, चेतना से अन्य, उसके अतिरिक्त कोई और कैसे हो सकता है! "मन" से निःसृत अपनी अभिज्ञा निरंतर "मैं" का उद्घोष करती भी है, किन्तु स्मृति उसे तुरंत ही किसी और प्रकार में रूपांतरित कर दिया करती है और तब मिथ्या "मैं" का आविर्भाव होता है। श्रवणकुमार इस पूरी गतिविधि के से परिचित था और जानता था कि यह सब प्रकृति के ही गुणों और कर्मों के फलस्वरूप घटित होता है ऐसा जान पड़ता है किन्तु वस्तुतः न तो आत्मा और न ही चेतना के अन्तर्गत कभी कुछ होता या हो सकता है। "समय" का रथ अहर्निश दसों दिशाओं में भ्रमण करता है और इसी "समय" का दूसरा एक नाम इसलिए दशरथ भी है। इस रथ पर आरूढ कोई काल-पुरुष है जो घने अंधकार में भी किसी भी ध्वनि को लक्ष्य कर उस पर अपने बाण  को चला सकता है। किन्तु यह तो प्रकृति की दैवी ह्येषा गुणमयी माया ही है जो गुणों और कर्मों के माध्यम से उस काल-पुरुष को भी किसी कर्मविशेष को करने के लिए नियोजित करते है और अज्ञानवश वह पुरुष अपने आपको उस कर्म का "कर्ता" मान लेता है -

गीता अध्याय ५

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। 

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१५।।

श्रवणकुमार इस सत्य के दर्शन कर कर्तृत्व की भावना से रहित हो चुका था और इसलिए उस रात्रि में जब वह प्यासे माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए उस सरोवर से पानी लेने गया और जब काल-पुरुष ने राजा दशरथ की बुद्धि को भ्रमित कर उसे पानी पी रहा पशु समझकर उस पर अपना शब्दभेदी बाण चला दिया था तो नियति के इस नाटक पर वह क्षण भर के लिए स्तब्ध हो उठा था और जब राजा दशरथ शब्दभेदी बाण के द्वारा मारे गए  श्रवणकुमार तक पहुँचे और उसे विस्मय तो हुआ किन्तु दशरथ के रूप में उसके समक्ष प्रस्तुत उस काल-पुरुष से उसने कहा -

"हे राजन्! तुम व्याकुल मत होओ। पहले तुम जल लेकर मेरे प्यासे माता-पिता के पास जाओ, पहले उनकी प्यास बुझाओ, और फिर जैसा भी तुम्हें उचित जान पड़े वैसा करो।"

इतना कहकर श्रवणकुमार ने प्राण त्याग दिए।

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Tuesday, 21 October 2025

THE SECOND PERSON

श्रीमद्भगवद्गीता  

4/1, 4/2, 4/3, 4/5, 7/10, 7/19, 10/2, 10/ 14,

अध्याय ४ -

श्रीभगवानुवाच -

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनम्।

भक्तो मेऽसि सखा चेति रहस्यमेतदनुत्तमम्।।३।।

अर्जुन उवाच -

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथं चेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।४।।

श्रीभगवानुवाच -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।५।।

अध्याय ७ -

श्रीभगवानुवाच  -

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।।१०।।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। 

वासुदेवः सर्वमिदं स महात्मा सुदुर्लभः।।१९।।

अध्याय १० -

श्रीभगवानुवाच -

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं च महर्षयः। 

अहं आदिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।२।।

अर्जुन उवाच -

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।

न हि ते भगवन्  व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।१४।।

स्वयमेवात्मनाऽत्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।

भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते।।१५।।

श्रीभगवानुवाच -

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।

प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ न अन्तो विस्तरस्य मे।।१९।।

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। 

अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्तमेव च।।२०।।

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।

मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।।२१।।

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। 

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानां अस्मि-चेतना।।२२।।

अध्याय ११ -

नाहं वेदैर्न तपसा न दानें न चेज्यया। 

शक्यं एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।५३।।

कठोपनिषद् 

1/

बहूनामेमि बहूनामेमि मध्यमः।

This is how I interpret the essence of Gita and the Truth of :

The First Person, 

The Second Person, and,

The Third Person.

The self-conscious self is the

अस्मि-चेतना

Referred to as in the verse 22, Chapter 10 above.

This is the esential First Person while the Sense of "I am" as I'm s this or that, or not this; not that ... is the Second Person.

The "self" can never address to itself  either as "I", nor as "You".

Again, The "Self" couldn't be pointed out as "I", "You" or "That" as is addressed as an object. "Self" is inevitably either the First Person or the Second Person, who are referred to or addressed as "I" or "You" invariably.

The reference to

the mantra in the Kathopanishad

Gives the same sense.

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमो ...

नचिकेता / nachiketA asks to  वाजश्रवा  / VAjashravA.

In many, one  a conscious being is always and inevitably referred to either as "I" or as 'You" only and could never as "That".

"That" - तत्  is the  ब्रह्मन्  / Brahman, 

As is referred to in the  महावाक्य :

अहं ब्रह्मास्मि /  I AM THAT.

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Monday, 20 October 2025

THE TILT.

अष्टमांश / आठ पहर का गणित

रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात् मध्यरात्रि के 12:00 से अगले दिन की सुबह 03:00 तक समय। अभी 02:09 a.m.  का समय है। दिन और रात्रि के चौबीस घंटों को कुल आठ भागों में विभाजित करने पर जो समय प्राप्त होता है, उसे एक प्रहर कहते हैं। सूर्य की दैनिक गति के आधार पर निर्धारित एक समयावधि है। सूर्य की दैनिक गति के अनुसार पृथ्वी के सूर्य के चतुर्दिक् अपनी कक्षा में एक पूर्ण परिभ्रमण करने के समय को एक सौर वर्ष कहा जाता है। पृथ्वी की दूसरी अयन गति उसके अपने अक्ष पर झुके होने के कारण उत्तरायण और दक्षिणायन के रूप में होती है। पृथ्वी के इस प्रकार से अपने अक्ष पर घूमने से पृथ्वी के किसी स्थान पर सूर्योदय और सूर्यास्त होते हुए दिखलाई देते हैं। इस प्रकार सूर्यास्त से सूर्यास्त तक का समय जो दैनिक आधार पर वैसे तो चौबीस घंटे की अवधि का होता है, किन्तु व्यावहारिक गणना दृष्टि से दिन और रात्रि की अवधि शीत ऋतु और ग्रीष्म ऋतु में भिन्न भिन्न होती है, और सूर्य के उत्तर अयन और दक्षिण अयन के बीच अधिकतम कोणीय अंतर 47 अंश होता है जिसका आधा भाग सार्द्ध / साढ़े 23 अंश, पृथ्वी जिस कोण पर अपने उत्तर-दक्षिण अक्ष पर झुकी होती है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि यांत्रिक घड़ी में बैलेंस व्हील से संबद्ध लीवर होता है, जिसे फिर और समायोजित किया जा सकता है। शायद इस घड़ी का आविष्कार करनेवाले को इसका आभास रहा होगा या वह इसी से प्रेरित हुआ हो! गुरु गोरक्षनाथ जी ने इसी आधार पर एक प्रहर की तीन घंटे की अवधि को पुनः आधा कर डेढ़ घंटे के समय का एक चौघड़िया और दिन के आठ तथा इसी तरह से रात्रि को भी आठ चौघड़िया में विभाजित किया होगा। रोचक तथ्य यह है कि सात दिनों को आधार मानकर आठ चौघड़िया :

उद्वेग चर लाभ अमृत काल शुभ और रोग 

निर्धारित किए गए जो कि प्रति बारह घंटों में एक चक्र में घूमते हैं। प्रत्येक दिन का और रात्रि का भी प्रथम और अंतिम चौघड़िया समान होता है। उदाहरण के लिए :

उद्वेग, चर, लाभ, अमृत, काल, शुभ, रोग और पुनः उद्वेग प्रति रविवार के दिन के प्रथम और अन्तिम चौघड़िया होते हैं। इसी प्रकार :

शुभ अमृत चर रोग काल लाभ उद्वेग और पुनः शुभ प्रति रविवार के रात्रि के चौघड़िया होते हैं।

इस तरह से किसी शुभ या अशुभ कार्य को करने के लिए किसी भी दिन या रात्रि का उचित चौघड़िया को समझा जा सकता है। और यह अनुमान भी किया जा सकता है कि कौन से चौघड़िया में होने या किए जानेवाले कार्य के परिणाम में क्या फल प्राप्त होता है। 

एक घटिका / घड़ी की अवधि २४ मिनट, और दो घड़ी का समय मुहूर्त कहा जाता है। इस प्रकार एक मुहूर्त की अवधि ४८ मिनट की होती है।

इस आधार पर विश्व के किसी स्थान पर हो रही किसी घटना के दूरगामी परिणामों का भी अनुमान लगाया जा सकता है।

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