Monday 19 August 2024

The Faithful Friend.

श्वान गाथा 

-- ऋषि शौनक कल्पित --

वे नागर अर्थात् नागरिक ऋषि थे। उन दिनों वैसे भी सर्वत्र और संपूर्ण पृथ्वी पर सनातन वैदिक धर्म ही प्रचलित था। और चूँकि धर्म का अर्थ ही है सनातन, इसलिए सनातन शब्द के साथ धर्म शब्द का प्रयोग वैसा ही अनावश्यक और व्यर्थ का दोहराव है, जैसा कि शक्कर शब्द के साथ मीठा शब्द का प्रयोग।

और चूँकि सदा से अर्थात् सनातन रूप से सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ, परम्पराएँ आदि जहाँ भी जिस भी रूप में जीवन है, वहाँ सदा से सर्वत्र ही विद्यमान होती हैं। जीवन इसीलिए सनातन और नित्य धर्म है। जब तक जीवन है तब तक धर्म भी है और जीवन की ही तरह धर्म भी प्रत्येक जीवन जीनेवाले का स्वाभाविक और अनायास उसे प्राप्त हुआ उसका धर्म है। यह पुनः उस जाति का विशेष और सभी का, फिर चाहे उसका जन्म अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज या जरायुज किसी भी रूप में क्यों न हुआ हो जाति का सामान्य धर्म है। जरायुज अर्थात् गर्भ से जन्म लेनेवालों में भी अनेक प्रकार के बहुत से प्राणी हैं, और उनमें से प्रत्येक का अपना विशेष धर्म होता है। कुछ सभ्य अर्थात् परिवार या समूह में रहते हैं तो कुछ लगभग परिवारविहीन जैसा व्यक्तिगत जीवन जीते हैं और उसी धर्म से प्रेरित होकर प्रजनन की ऋतु आने पर अपनी प्रजाति को जन्म देने और उसका विस्तार करने के लिए कुछ समय के लिए दाम्पत्य धर्मकको स्वीकार कर उस कर्तव्य को पूर्ण कर पुनः परिवारविहीन जैसा जीवन जीने लगते हैं, जैसे कि श्वान, विडाल, सिंह आदि जन्तु। जबकि दूसरी ओर ऐसे भी कुछ जन्तु होते हैं जो परिवार अर्थात् समूह में जन्म लेते हैं और समूह में ही पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं -जैसे कि मृग, हाथी, अश्व, श्वान, भेड़, बकरियाँ, गौ और सर्वाधिक रूप से महत्वपूर्ण है मनुष्य।

मनुष्य वह विशिष्ट प्राणी है जो न तो चतुष्पद होता है और न ही पक्षियों की तरह उड़ने में सक्षम द्विपद। मनुष्य की जाति जैसे ही यक्ष, राक्षस, गंधर्व, नाग और किंनर भी होते हैं, और उनका भी अपना समाज होता है। किन्तु सभी के पूर्वज ऋषि ही होते हैं। जैसे पुलस्त्य ऋषि के कुल में रावण, कुंभकर्ण, विभीषण हुए वैसे ही दैत्य Dutch, Deutsche, कुल में प्रह्लाद  का जन्म हुआ जो नारायण के भक्त थे।

शौनक ऋषि समस्त वेदों के ज्ञाता थे और उनके महाविद्यालय, महाशाल गुरुकुल में पश्चिम से अध्ययन करने के लिए सैकड़ों छात्र आया करते थे। परन्तु ऋषि यह नहीं समझ पा रहे थे कि किस कारण से उनका मन व्याकुल रहता है। इसलिए अपने कुछ विशिष्ट शिष्यों के साथ महर्षि अङ्गिरा के आश्रम में आए।

आगे की कथा मुण्डकोपनिषद् में पढ़ सकते हैं। 

ऋषि शौनक का एक पालतू श्वान था जो उनके वहाँ से भारत चले आने से बहुत दुःखी था और उनके आश्रम में या कहीं भी इधर उधर भटकता रहता था। बहुत से लोग उसे जानते भी थे, किन्तु वह उन सबसे उदासीन अपने दुःख में डूबा हुआ शौनक ऋषि को याद करता रहता था।

ऐसे ही शीत ऋतु के एक दिन वह खुली धरती पर धूप में सुख से लेटा हुआ था। तभी कहीं से एक बन्दर आया और उसने उस श्वान के समक्ष मित्रता का प्रस्ताव रखा। थोड़ी ना नुकर के बाद श्वान ने वह मैत्री प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 

अब वे दोनों प्रायः साथ रहते, और मन होने पर एक दूसरे से खेला भी करते थे किन्तु श्वान को वनस्पति, फल, फूल और पत्तियों से परहेज था जबकि बन्दर को मांसाहार से।

"तुम उदास क्यों हो?"

एक दिन बन्दर ने श्वान से पूछा। 

"मुझे मेरे स्वामी की याद आ रही है, पता नहीं मुझे अकेला छोड़ वे कहाँ चले गए हैं।"

"थोड़ा धीरज रखो, ये मनुष्य जाति के लोग और विशेष रूप से उनमें भी, ऋषि लोग कुछ विचित्र प्रकृति के होते हैं। वे स्वयं ही किसी समय लौट आएँगे।"

"क्या तुम्हें पता है, लोग हमारे बारे में क्या क्या बातें करते हैं?"

श्वान ने प्रश्न किया। 

"करने दो, इसकी चिन्ता ही मत करो। वे न तो शक्ति में, और न ही बुद्धि में हमसे अधिक बलशाली हैं!"

"तुम्हें कैसे पता?"

"क्योंकि हम तो उनकी बातें सुनते और समझते रहते हैं,किन्तु उन्हें तो इसकी कल्पना तक नहीं होती कि हम उनकी बातों को न सिर्फ सुनते हैं, बल्कि किसी हद तक समझने भी लगते हैं। किन्तु हमें उनसे सावधान तो रहना ही चाहिए, क्योंकि वे हमसे अधिक चालाक होते हैं। इसका कारण है उनकी बुद्धि।"

"बुद्धि क्या होती है?"

"बुद्धि का मतलब शायद "विचार" होता है।"

"और 'विचार' क्या होता है?"

"कोई भी विचार कुछ शब्दों का समूह और विस्तार होता है।"

"और 'शब्द'?

"शब्द कुछ ध्वनियों का समूह होता है।"

श्वान चुप हो गया। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही दोनों के दिन के रहे थे। एक दिन वे साथ साथ घूमते हुए बहुत दूर तक चले गए जहाँ हनुमानजी का एक मन्दिर था। हनुमान जी के बहुत से भक्त मन्दिर में आ जा रहे थे वहाँ सब मिलकर भोजन कर रहे थे। जब श्वान वहाँ जाने का उपक्रम करने लगा तो लोगों ने उसे वहाँ से भगा दिया किन्तु बन्दर जब सावधानी से धीरे धीरे अन्दर जाने लगा तो पहले तो लोग कौतूहल से उसे देखते रहे कि वह क्या करता है। तब वह धीरे धीरे उनके सामने से गुजरात हुआ मन्दिर में प्रविष्ट हो गया। किसी ने भी न उसे न तो रोका न दूर भगाया। हनुमानजी की मूर्ति के पास गया और सामने चढ़ाऊ गए प्रसाद की थाली को भी देखा तो उसे समझ में आया कि इसमें खाने की चीजें हैं। उसने सोचा कि इसमें से श्वान क्या खा सकेगा! उसने एक लड्डू उठाया और धीरे धीरे बाहर निकल आया। उसने लड्डू श्वान को दिया तो श्वान को लड्डू बहुत पसन्द तो नहीं आया पर भूख लगने के कारण उसने उसे खा लिया। दूसरी बार बन्दर भोजन कर रहे लोगों के बीच जा पहुँचा  तो देखा वे लोग खीर पूरी खा रहे थे। उसके सामने एक व्यक्ति ने घी की पूरियाँ पत्तल पर रखी तो उसने झपटकर चार पाँच पटरियाँ उठा लीं और शान्तिपूर्वक वहाँ से बाहर आ गया। दोनों मित्रों ने पेट भर खाना खाया तो श्वान बोला -

"अब चलें?"

"रुको, मैं अभी आता हूँ।"

कहकर बन्दर फिर मन्दिर में चला आया। वह' सोच रहा था कि भीतर जाकर भरपेट केले खाएगा, लेकिन इससे पहले ही जब  एक बच्चे ने उसके सामने केले रख दिए तो वह वहीं बैठ गया। और भी लोग उसे मिठाई ओर काले देने लगे तो पेट भर जाने तक वह खाता रहा। फिर उसने सोचा, उस बच्चे को आशीर्वाद दिया जाए तो वह बच्चे के पास गया और उसके सिर पर हाथ रखा। फिर और भी लोगों के सिर पर हाथ रखा। यह सब उसने पहले ही सीख लिया था जब उसने मन्दिर में प्रवेश करते समय कुछ लोगों को ऐसा करते देखा था।

फिर दोनों वहाँ से लौट आए। दोनों को नींद आ रही थी तो पास की ही साफ जगह पर जाकर सो गए। एक दो घंटे बाद वापस अपने स्थान पर आ गए। 

ऐसे ही एक दिन दोनों गणेशजी के मन्दिर में जा पहुँचे। वहाँ भी वानर का स्वागत हुआ और दोनों को भरपेट मिठाई, भोजन भी मिल गया। फिर बहुत दिनों तक ऐसा कोई अवसर नहीं मिला। बन्दर तो फल-फूल आदि खाकर अपना पेट भर लेता और श्वान के लिए भी कुछ न कुछ ले आता।

एक दिन वहाँ एक हाथी आया। पहले तो श्वान उससे डर गया और भौंकने लगा। तब बन्दर ने उसे समझाया -

"हाथी तो बस पत्ते, फल-फूल, रोटी और मिठाई खाता है। तुम्हें उससे डरना नहीं चाहिए।"

तब दोनों ने धीरे धीरे हाथी से दोस्ती कर ली और हाथी भी कभी कभी उन्हें सूँड से उठा लेता और अपनी गर्दन पर बिठा लिया करता।

बहुत दिनों बाद श्वान को वही पुराना सवाल याद आया -

"बुद्धि क्या है?"

तब बन्दर ने उसे समझाया -

"शब्दों को किसी वस्तु से जोड़कर देखने के तरीके को बुद्धि कहते हैं। जैसे "भौं-भौं" मतलब तुम, "खौं-खौं" मतलब "मैं"!"

अब श्वान को बन्दर की कही उस दिन की वह बात समझ में आ गई, जब उसने उसे बताया था कि वह कैसे लोगों की बातों को सुनकर उसका मतलब समझ लेता है। तब श्वान ने तय किया कि अब रह भी मनुष्यों की बातों को ध्यानपूर्वक सुना करेगा। साल भर में श्वान को भी मनुष्यों की बातें समझ में आने लगी। लेकिन उसे यह समझ पाने में अब भी कठिनाई अनुभव हो रही थी कि "बुद्धि" शब्द का क्या मतलब है! बन्दर स्वयं भी अनुभव कर रहा था कि उसे यह शब्द तो पता है किन्तु यह नहीं पता कि यह शब्द किस वस्तु का सूचक है!

"मैं कोई दूसरा तरीका खोजता हूँ।"

- बन्दर ने सोचा।

तब उसे स्पष्ट हुआ कि दो घटनाओं या स्थितियों को एक दूसरे से जोड़कर देखना ही "बुद्धि" या बुद्धि का कार्य है। जैसे -

भूख लगने पर यह जानना कि कुछ खाने से या भोजन करने से भूख से होनेवाली तकलीफ दूर हो जाती है। तो "जानना" ही "बुद्धि" अर्थात् "बुद्धि" का कार्य है। तब उसने सोचा कि हाथी दादा से पूछकर देखें क्या उसे यह पता है!

जब उसने हाथी से पूछा तो हाथी ने कहा -

"जानना" तो इन्द्रियों का कार्य है और एक वस्तु या घटना का दूसरी वस्तु या घटना से क्या संबंध है या हो सकता है यह बुद्धि या बुद्धि का कार्य है।

अब हाथी को मजाक सूझी। उसने बन्दर से पूछा -

"अच्छा बताओ, बुद्धि या बुद्धि के कार्य को कैसे जाना जाता है और कौन इसे जानता है?"

बन्दर को सपने में भी हाथी से ऐसा सवाल सुनने की उम्मीद नहीं थी। जब बहुत देर तक बन्दर सिर खुजलाता रहा तो हाथी बोला "जानना" कोई वस्तु या कार्य नहीं है। "जानना" आत्मा का धर्म  है। "जानना" ही आत्मा है,  और आत्मा ही "जानना" है।

"और मैं?"

"तुम खौं-खौं हो!"

हाथी ने मुस्कराते हुए कहा। 

"नहीं, खौं-खौं तो वैसे ही इस शरीर का नाम है जैसे भौं-भौं उस शरीर का, जिसे श्वान कहा जाता है!"

अब चौंकने की बारी हाथी की थी।

तीनों मित्र बहुत समय तक इसी तरह आपस में बातचीत और हँसी-मजाक किया करते थे। 

आज जब बन्दर और हाथी उसे छोड़कर जा चुके हैं तो श्वान फिर अकेलापन अनुभव कर रहा है। उसे उसके स्वामी की याद आने लगी। पता नहीं वे कब तक लौटेंगे!

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी।।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

***

 








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