Tuesday, 22 July 2025

Collective Consciousness

THE ONLY ISSUE :

WhatIsDharma / adharma / vidharma?

धर्म / अधर्म और विधर्म 

नेति नेति इति च ।

संसार में मनुष्य ही संभवतः एकमात्र विचारशील प्राणी है, जो न केवल अपने आप से, बल्कि अपने जैसे दूसरे मनुष्यों से शाब्दिक विचार के माध्यम का प्रयोग करते हुए अपने मन्तव्य का आदान-प्रदान करता है। और यह आदान-प्रदान भी किसी उस विशेष भाषा के माध्यम से ही किया जाता है, जिसका प्रयोग दोनों कर सकते हों।

शायद आपने कभी ध्यान दिया होगा कि जीवन के किसी भी क्षण में एकाएक अनपेक्षित रूप से कुछ ऐसा होता है और जो आपको अगले ही पल उस सबसे इतनी दूर ले जा सकता है जिसकी आपने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होती है।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।।२४।।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्।।२५।।

(पातञ्जल योगदर्शन - समाधिपाद) 

इसे शायद  

Automatic Divine Action / Will

ईश्वरीय संकल्प या आदेश

कहा जा सकता है। कुछ ऐसा लगभग हर किसी के ही  साथ प्रायः होता रहता है। अगर मन अतीत की स्मृतियों में डूबे रहने से और भविष्य की कल्पनाओं का अनुमान करते रहने की अभ्यस्तता से मुक्त हो तो इच्छा द्वेष और भय उस पर आधिपत्य नहीं कर सकते और तब वह - "जो होता है" उसका सामना करने के लिए उत्सुकता और उत्साहपूर्वक तैयार रह सकता है।

सवाल यह भी नहीं है कि अपने आपसे भिन्न और पृथक् किसी दूसरे ऐसे "ईश्वर" का अस्तित्व है या नहीं जिससे प्रार्थना की जा सकती हो, क्योंकि वैसे भी अभी तो हम ऐसे किसी संभावित "ईश्वर"  से अनभिज्ञ हैं, और इससे भी कि उसका अस्तित्व है या नहीं! किन्तु अगर अपने जीवन में क्षण प्रतिक्षण जो कुछ भी होते जा रहा है, उस घटनाक्रम पर दृष्टि डालते तो तत्काल ही देख और समझ सकते हैं कि किसी अज्ञात दिशा से, और किसी अज्ञात तथा दिव्य सत्ता के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाता है कि आगे क्या होने जा रहा है। उसे हम "ईश्वर"  यह नाम न भी दें तो भी "विधाता"  तो कह ही सकते हैं, और यह भी कि वह "विधाता" कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि चेतन शक्ति विशेष है। चेतन का अर्थ है चेतना से युक्त, और शक्ति का अर्थ है प्राणवान। अर्थात् न तो वह कोई जड वस्तु है और हमारी तरह बुद्धि के सहारे कार्य करनेवाली सत्ता। कोई भी जड वस्तु स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकती बल्कि प्रकृति के नियमों से परिचालित होकर ही कार्य के होने में कारक होती है। जबकि दूसरी ओर, सभी चेतन / जीवनयुक्त और प्राणयुक्त वस्तुएँ या जीव हर समय अपनी बुद्धि से ही परिचालित होकर कार्य करने में संलग्न होने के लिए अपरिहार्यतः बाध्य होते हैं।  साथ ही यह भी सत्य है कि बुद्धि समय समय पर भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त होती है। बुद्धि सदा स्मृति पर निर्भर होती है और स्मृति इन्द्रियानुभवों पर। और "जो होता है" या "होने जा रहा होता है" वह स्मृति या इन्द्रियों के किसी भी अनुभव से पूरी तरह से स्वतंत्र और निरपेक्ष होता है, जिसका पूर्वानुमान तो लगाया जा सकता है किन्तु ठीक ठीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

कुछ ऐसा ही वाकया आज दो घन्टे पहले हुआ जब मैं परमहंस योगानन्द 

(जिनकी लिखी पुस्तक : योगी कथामृत -

Autobiography of a Yogi 

आज से लगभग चालीस वर्ष पहले पढ़ी थी।)

जिससे संबंधित एक वीडियो यू-ट्यूब पर दिखाई पड़ा। यह मनुष्यों के रक्त-समूह / blood-groups , उनके स्वभाव और प्रेरणाओं, मनोवृत्तियों, उनके द्वारा किए जानेवाले कर्मों के बीच के संबंध के बारे में था। इस वीडियो में मनुष्य के चार रक्त-समूहों और उनकी विशेषताओं का वर्णन किया गया था। इस वर्णन में A,  B, AB और O रक्त-समूहों और उनकी विशिष्टताओं के बारे में जैसा कहा गया था उस बारे में मैं प्रायः उसी तरह सोचा करता था और उसे श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 4 के श्लोक 13 के परिप्रेक्ष्य में पूर्णतः सुसंगत पाता था -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं

गुण-कर्म-विभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि-

अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

शायद उसे ही वह "विधाता / ईश्वर" कहा जा सकता है, जो अपनी दैवी, गुणमयी माया से परिचालित करता हुआ क्षण क्षण और प्रतिक्षण ही उन कर्मों के होने में हमें यंत्र की तरह प्रयुक्त करता है और हम चाहते या न चाहते हुए भी यंत्रवत् उन्हें करने के लिए बाध्य होते हैं। उत्तेजना या आवेश में, संशय, संकल्प, आशा, लालसा या भय से युक्त होकर, कर्तव्य या आदेश समझकर। 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।६१।।

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