धर्म, समाज और सभ्यता
आद्य, प्राचीन और सनातन
वर्तमान समय के वैज्ञानिकों का अनुसंधान इन प्रश्नों के दायरे में शुरु होकर इसी दायरे में समाप्त हो जाता है कि कोई स्थिति कब और कैसे प्रारंभ हुई होगी। और वे इस ओर से अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं कि क्या कभी इस प्रश्न का आरंभ हुआ होगा? तात्पर्य यह कि उन्होंने पहले ही से यह मान रखा होता है कि सब कुछ कभी न कभी शुरू हुआ होगा, वे जानबूझकर यह भूल जाते हैं या फिर अनवधानता / लापरवाही के कारण इस तथ्य की उपेक्षा कर देते हैं कि जिसे वे "समय" कहते हैं उसके प्रारंभ या अंत होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। घटनाओं के क्रम और उनके बीच कल्पित सातत्य से आधार पर वह स्वयं के "समय" को परिभाषित करता है और इस "समय" के आधार पर घटनाओं की अवधि और उनके क्रम और उस "समय" के आरंभ और अंत होने की कल्पना करता है। वह यह नहीं देख पाता कि "समय" की उसकी कल्पना भी एक व्यक्ति-सापेक्ष घटना है, और यह व्यक्ति स्वयं भी एक घटना ही है जो उस वास्तविक "समय", जीवन या चेतना का एक सर्वाधिक छोटा अंशमात्र है, जिसमें ऐसे असंख्य व्यक्ति उनके अपने "व्यतीत होनेवाले समय" में पुनः पुनः व्यक्त होकर विलीन होते रहते हैं। यह व्यतीत होने वाला उसका "समय" उस आदि अंत रहित व्यतीत न होनेवाले "समय" से नितान्त अछूता और अनभिज्ञ भी होता है। इन दोनों परस्पर असंबद्ध "समयों" के बीच न तो कोई संपर्क और न ही कोई संबंध ही कभी हो सकता है, क्योंकि व्यक्ति-सापेक्ष "समय" वह "घटना" होती है, जो कि व्यक्ति के मस्तिष्क में उसके अपने उस "व्यतीत होनेवाले समय" के अन्तर्गत होती है जिसे न तो दूसरा कोई व्यक्ति जानता है, न जान ही सकता है। इस प्रकार "व्यतीत होनेवाला समय" वास्तविक "समय" का एक विपर्यय भर होता है।
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद)
विकल्प और विपर्यय की इस कसौटी पर व्यक्ति-विशेष का व्यतीत होनेवाला "समय" केवल अनुमान ही होता है और योगसूत्र -
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।
(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद)
के अनुसार एक और वृत्ति-विशेष ही होता है।
यद्यपि वृत्तिमात्र का अवश्य ही प्रारंभ और अंत भी होता ही है, और जिस "समय" में यह होता है, वह "समय" भी उस व्यक्ति-विशेष के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है, न कि उस "समय", जीवन या चेतना के परिप्रेक्ष्य में जिसका न तो व्यक्ति कभी अनुमान कर सकता है और न ही जिसे कभी जान सकता है।
वह व्यक्ति-निरपेक्ष, आदि और अंत के रहित "समय", जीवन और चेतना ही धर्म के ही पर्याय हैं। जबकि दूसरी ओर, समाज और सभ्यता ऐसे व्यक्तियों के समुदाय और समूह तथा उनकी मान्यताओं पर आधारित कोई विशिष्ट सभ्यता।
धर्म आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना है, जो कि सदैव अभी और मध्य में है। इसलिए उसे "सदैव" कहने का कोई अर्थ नहीं।
इस आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना का प्रवर्तन करनेवाला भी यही है, जो इससे अनन्य और अपृथक् है।
इसलिए किसी समुदाय में जिसे पाप या पुण्य कहा जाता है उसका इस आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना से कोई संबंध नहीं होता -
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
(गीता अध्याय ५)
धर्म ही एकमात्र आद्य (primordial) नित्य सत्य और इसलिए सनातन भी है, समाज और सभ्यताएँ अनित्य और विनष्ट होती रहनेवाली वस्तुएँ हैं।
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