Sunday, 30 November 2025

THE CHAIN.

भव-व्याधि

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जीवन शरीर को जन्म देता है,

शरीर चेतना को। 

चेतना अनुभव को जन्म देती है,

अनुभव अज्ञान को। 

अज्ञान अनुभवकर्ता को जन्म देता है, 

अनुभवकर्ता स्मृति को। 

स्मृति सातत्य को जन्म देती है, 

सातत्य समय को।

समय अतीत को जन्म देता है, 

अतीत भविष्य को। 

भविष्य लोभ को जन्म देता है, 

लोभ भय को। 

भय हिंसा को जन्म देता है,

हिंसा क्रोध को,

क्रोध ग्लानि को जन्म देता है, 

ग्लानि अवसाद को।

अवसाद विक्षेप को जन्म देता है, 

विक्षेप उन्माद को। 

उन्माद अंत है,

जो मृत्यु तक ले जाता है।

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Monday, 24 November 2025

MODES OF MIND.

02:43 a. m. 

महात्मा और महापुरुष 

इस पोस्ट को लिखने से अपने आपको बहुत रोका, फिर सोचा कि लिखकर कुछ समय बाद डिलीट कर दूँगा।

प्रायः रात्रि में तीन बजे नींद खुल जाती है। पता नहीं कि क्या इसका कोई विशेष कारण होता है या यह बस एक संयोग ही है। बरसों से ऐसा है इस पर कभी ध्यान नहीं दिया। और इस पर भी कभी ध्यान नहीं दिया कि नींद से जागते ही लघुशंका के लिए जाना होता है। क्या मेरे साथ ही ऐसा है? या कि दूसरे सभी के साथ भी ऐसा होता है, इस पर भी कभी ध्यान नहीं गया।

वर्ष 1991 में जब नर्मदा किनारे रहता था और जब भी नहाने के लिए नदी में उतरता था तो भी यही होता था। अचानक लघुशंका का वेग जाग्रत हो उठता था। नदी या जलाशय में ऐसा करना शास्त्र के अनुसार भी निषिद्ध है यह भी बहुत पहले से पता था इसलिए मैंने नदी में स्नान करने ही बंद कर दिया। फिर सोचा पहले नदी से बाहर कुछ लोटा जल शरीर पर उँडेल कर नदी से कुछ दूर इस वेग से मुक्त होकर फिर नदी में प्रवेश किया जाए। किन्तु  यह भी कभी कभी इसलिए संभव न हो पाता था क्योंकि आसपास बहुत से दूसरे लोग हो सकते थे। तब से अब तक कभी नदी में स्नान ही नहीं किया। एक बार नदी से इस बारे में मन ही मन प्रश्न किया तो वह बोली - सभी प्राणी मेरे लिए वैसे ही हैं जैसे किसी माता का नवजात शिशु उसके लिए होता है। पर मैं इस तर्क को स्वीकार न कर पाया। अभी कुछ समय पहले एक स्थान पर किन्हीं  महात्मा जी के द्वारा इन स्थितियों का उल्लेख किए जाने पर मेरा ध्यान इस ओर गया। ऐसे ही एक और महापुरुष का स्मरण हुआ जो बचपन में कुएँ में उतरकर नहाते थे, जिसका उल्लेख उन्होंने स्वयं ही किया था।

हो सकता है कि शरीर-मनोविज्ञान की दृष्टि से यह घटना  किसी विशेष महत्वपूर्ण तथ्य की सूचक होती है। शायद इसलिए भी क्योंकि इस प्रकार से शीतल या उष्ण पानी से स्नान करते समय मन में न चाहते हुए भी अनायास ही एकत्र हुए अनेक दबावों और कुंठाओं से भी क्षण भर में ही मुक्ति हो जाने होने से मन एकाएक ही बहुत हल्का और प्रफुल्ल भी हो जाता है। और महात्मा जी ने इसका भी उल्लेख किया था।

किन्तु यह भी लगा कि सनातन धर्म में विभिन्न मुहूर्तों पर तीर्थों में स्नान को इतना महत्वपूर्ण क्यों कहा गया होगा। जिन देशों में नदियाँ और तालाब आदि नहीं हैं वहाँ पर भी समुद्रों के तट पर लोग प्रसन्न होकर जलक्रीड़ा करना चाहते हैं!

स्पष्ट है कि इस प्रकार से मन अनायास ही उस अवस्था में चला जाता है जिसे प्राप्त करने के लिए बड़े बड़े योगी, तपस्वी जप तप, उपासना और व्रतों आदि अनेक कठिन तरीकों का प्रयोग करते हैं।

क्षण भर के लिए मन निर्भर हो जाता है और निर्विचार अवस्था में स्वभावस्थ हो जाता है। स्वभाव कोई वृत्ति न होकर वह अवस्था है जब अपने आपके दृष्टा-मात्र होने की वास्तविकता स्वयं पर अनायास प्रकट / उद्घाटित हो उठती है। 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।

फिर अचानक यह बोध भी उत्पन्न हुआ कि प्राणिमात्र में काम के प्रति इतना प्रबल और स्वाभाविक आकर्षण क्यों होता है?

काम-कृत्य की चरम पूर्णता में मुक्ति प्राप्त होने का जो परम आनन्द मन को क्षण भर के लिए अनुभव होता है, क्या उसकी ही स्थायी प्राप्ति के लिए मन हमेशा ही लालायित नहीं रहता?

क्या तुरंत ही कोई वृत्ति आकर उस अनुभव को आवरित नहीं कर लेती है?

संभोग से समाधि की ओर

के दर्शन को प्रस्तुत करनेवाले महापुरुष शायद इसी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे।

सिद्धान्ततः इससे इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु इस दर्शन की गहराई को समझनेवाले इने गिने लोग ही हो सकते हैं। और शायद इसीलिए किसी में इतना साहस नहीं हो सका कि सरलता से उन महापुरुष के दर्शन को खुले आम स्वीकार कर सकें। और यदि किसी में ऐसा साहस था भी तो वे कुछ भोगवादी पाश्चात्य विचार के समर्थक जिन्हें सतत और अंतहीन भोग में ही जीवन की चरम सार्थकता प्रतीत होती थी।   

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Friday, 21 November 2025

FOMO, FOFO, ...

AND THE FEAR OF BEING LOST.

Mind or the Individual consciousness is a funny thing. 

There is this Fear of Missed Out,

Then,

There is this Fear of Finding Out -

Something which one doesn't want to see and come face to face with. 

For example when a suspicion raises its head.

Like if you've contracted Covid-19.

Then still there is yet another one :

The Fear of being found out by those who you don't want to see or talk to.

They have named These conditions : FOMO and FOFO.

Maybe the last one could be given the name :

Fear of Being coming Face to Face with the Reality, which one always tries to run away from.

And what about when you come across :

The Fear Of Being Lost?-

FOLO? 

I wonder if there is anyone on the earth who never had this fear.

In the first place, isn't this fear quite an irrational and illogical too?

How could one possibly be Lost?

Possibly Maybe for others but could one be Lost to oneself? 

One can say :

I was Lost in thoughts,

My mind was distracted.

This is really the beginning of the ignorance about the Reality of oneself. 

Still almost everyone becones a victim to this because of sheer In-attention only. 

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोक २७;

Shrimadbhagvadgita,

chapter 7, verse 27;

Points out ;

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

The feeling : I'm Lost.

Is itself a self-contradictory idea.

No one can say this to one-self,

No-one, other than your-self could be an evidence to this and could point out this to you.

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Wednesday, 12 November 2025

The Funeral.

दोहराव 

कविता

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सबके ही हैं हाथ बन्धे,

अपने स्वार्थ में सब अन्धे,

सबकी अपनी शवयात्रा है,

खुद को ही सब देते कन्धे।

बाँया कभी, कभी दाहिना,

दोनों ही कन्धे दुखते हैं,

अदल बदल कर चलते हैं,

इसी बीच कुछ रुकते हैं, 

जब आ जाती है मंजिल,

कुछ इंतजार भी करते हैं,

फिर सब जल्दी से हो जाए, 

उम्मीद यही सब करते हैं।

घर पर लौट, स्नान विश्राम,

फिर उठकर बाकी के काम, 

फिर अगले दिन की तैयारी,

फिर अगले दिन भी यही काम!

यूँ ही तो हर दिन होता है,

इंसान सुबह को उठता है,

थककर रात, सो जाता है,

इंसान ही क्या, उसकी दुनिया,

दुनिया से यही तो नाता है!!

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Monday, 10 November 2025

Primordial and Primitive

धर्म, समाज और सभ्यता

आद्य, प्राचीन और सनातन

वर्तमान समय के वैज्ञानिकों का अनुसंधान इन प्रश्नों के दायरे में शुरु होकर इसी दायरे में समाप्त हो जाता है कि कोई स्थिति कब और कैसे प्रारंभ हुई होगी। और वे इस ओर से अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं कि क्या कभी इस प्रश्न का आरंभ हुआ होगा? तात्पर्य यह कि उन्होंने पहले ही से यह मान रखा होता है कि सब कुछ कभी न कभी शुरू हुआ होगा, वे जानबूझकर यह भूल जाते हैं या फिर अनवधानता / लापरवाही के कारण इस तथ्य की उपेक्षा कर देते हैं कि जिसे वे "समय" कहते हैं उसके प्रारंभ या अंत होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। घटनाओं के क्रम और उनके बीच कल्पित सातत्य से आधार पर वह स्वयं के "समय" को परिभाषित करता है और इस "समय" के आधार पर घटनाओं की अवधि और उनके क्रम और उस "समय" के आरंभ और अंत होने की कल्पना करता है। वह यह नहीं देख पाता कि "समय" की उसकी कल्पना भी एक व्यक्ति-सापेक्ष घटना है, और यह व्यक्ति स्वयं भी एक घटना ही है जो उस वास्तविक "समय", जीवन या चेतना का एक सर्वाधिक छोटा अंशमात्र है, जिसमें ऐसे असंख्य व्यक्ति उनके अपने "व्यतीत होनेवाले समय" में पुनः पुनः व्यक्त होकर विलीन होते रहते हैं। यह व्यतीत होने वाला उसका "समय" उस आदि अंत रहित व्यतीत न होनेवाले "समय" से नितान्त अछूता और अनभिज्ञ भी होता है। इन दोनों परस्पर असंबद्ध "समयों" के बीच न तो कोई संपर्क और न ही कोई संबंध ही कभी हो सकता है, क्योंकि व्यक्ति-सापेक्ष "समय" वह "घटना" होती है, जो कि व्यक्ति के मस्तिष्क में उसके अपने उस "व्यतीत होनेवाले समय" के अन्तर्गत होती है जिसे न तो दूसरा कोई व्यक्ति जानता है, न जान ही सकता है। इस प्रकार "व्यतीत होनेवाला समय" वास्तविक "समय" का एक  विपर्यय भर होता है।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।८।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद) 

विकल्प और विपर्यय की इस कसौटी पर व्यक्ति-विशेष का व्यतीत होनेवाला "समय" केवल अनुमान ही होता है और योगसूत्र -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।७।।

(पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद) 

के अनुसार एक और वृत्ति-विशेष ही होता है।

यद्यपि वृत्तिमात्र का अवश्य ही प्रारंभ और अंत भी होता ही है, और जिस "समय" में यह होता है, वह "समय" भी उस व्यक्ति-विशेष के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकता है, न कि उस "समय", जीवन या चेतना के परिप्रेक्ष्य में जिसका न तो व्यक्ति कभी अनुमान कर सकता है और न ही जिसे कभी जान सकता है।

वह व्यक्ति-निरपेक्ष, आदि और अंत के रहित "समय", जीवन और चेतना ही धर्म के ही पर्याय हैं। जबकि दूसरी ओर, समाज और सभ्यता ऐसे व्यक्तियों के समुदाय और समूह तथा उनकी मान्यताओं पर आधारित कोई विशिष्ट सभ्यता।

धर्म आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना है, जो कि सदैव अभी और मध्य में है। इसलिए उसे "सदैव" कहने का कोई अर्थ नहीं।

इस आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना का प्रवर्तन करनेवाला भी यही है, जो इससे अनन्य और अपृथक् है।

इसलिए किसी समुदाय में जिसे पाप या पुण्य कहा जाता है उसका इस आदि-अंत से रहित समय, जीवन और चेतना से कोई संबंध नहीं होता -

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

(गीता अध्याय ५)

धर्म ही एकमात्र आद्य (primordial) नित्य सत्य और इसलिए सनातन भी है, समाज और सभ्यताएँ अनित्य और विनष्ट होती रहनेवाली वस्तुएँ हैं।

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