Wednesday, 9 April 2025

The Evangelist.

समय, संबंध, संपत्ति और संकट

उनके संसार में, उनकी दृष्टि से, वे एक 'सफल' स्वनिर्मित (successful, self-made person) मनुष्य थे। 

उन्होंने और उनका परिवार जो पहले सनातन धर्म की परंपराओं का पालन करता था, सनातन धर्म की सभी परंपराओं और संस्कृति को पूरी तरह से त्याग दिया था। और तब से वे सनातन से भिन्न किसी अन्य परंपरा में मतान्तरित हो गए थे  क्योंकि यह सुविधाजनक भी था।

किसी भी मत या विश्वास में सिर्फ बाध्यता, प्रलोभन या भय से, सुरक्षित अनुभव करने से मतान्तरित हो जाना तात्कालिक रूप से यद्यपि लाभप्रद जान पड़ सकता है, किन्तु कभी न कभी इसके भयावह परिणामों का सामना भी अवश्य ही करना ही पड़ता है।

वे प्रायः अपनी ही पूर्व-संस्कृति, परंपराओं और मत का उपहास भी किया करते थे और मतान्तरण के शॉर्ट-कट से प्राप्त हुई सफलताओं पर उन्हें गर्व भी होता था। वैसे पहले वे शुद्ध शाकाहारी थे लेकिन मतान्तरित हो जाने के बाद उन्हें शाकाहार के दोष दिखाई देने लगे थे। 'अहिंसा' अब उनकी दृष्टि में डरपोक मानसिकता का ही लक्षण हो चुका था।

मैं उनके इस सब इतिहास से अनभिज्ञ था। उन्हें पता था कि मैं किन परंपराओं और संस्कृति को महत्व देता था। वे मुझे एक औसत 'बुद्धिजीवी' ही मानते थे, इसलिए भी उन्हें लगता था कि मुझसे मेल-जोल रखने पर भविष्य में मुझे भी उनके अपने उस विश्वास में वैसे ही मतान्तरित कर सकेंगे, जैसे कि अभी तक बहुत से लोगों को करते आए थे।

वे कभी कभी और प्रायः ही कहा करते थे -

हर व्यक्ति की एक 'फिलॉसाफी' होती है। उनका मतलब यह था कि हर व्यक्ति जन्म या संस्कार से, या सामाजिक परिस्थितियों के कारण, सोच-विचार के किसी तय साँचे में किसी 'विश्वास' से बँधा होता है। और हर कोई ही ऐसे ही किसी 'विश्वास' में संसार में, और अपनी मृत्यु के बाद भी स्थायी, अन्तहीन सुरक्षा और अनन्त सुख-भोगों को भी प्राप्त कर सकता है। उनका 'विश्वास', मत या मतलब या फिलॉसाफी यही थी। उनका मतलब, फिलॉसाफी या 'विश्वास' भी केवल उनकी 'स्मृति' पर आधारित उनकी एक मनोदशा भर ही थी, इस ओर उनका ध्यान न तो जा सका था, न ही वे इस बारे में जानने या समझने के लिए उत्सुक ही थे।

समय, संबंध, और संपत्ति इसी प्रकार से, हर मनुष्य की ही बुद्धि को मोहित कर लेते हैं कि वह किसी न किसी 'विश्वास' से ग्रस्त हो जाता है। यह 'विश्वास' किसी 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व के आग्रह का रूप भी ले सकता है जो कट्टरता की हद तक जा सकता है, जिसके लिए आप न केवल अपने बल्कि दूसरों के प्राण भी ले सकते हैं, और इससे भी बढ़कर दूसरों को अपने 'विश्वास' में मतान्तरित करने को एक ऐसा पुण्य-कार्य भी मान सकते हैं जिससे वह 'दिव्य' सत्ता आप पर प्रसन्न हो सकती है। आप उन सभी के प्राण लेने को भी अपना महानतम पावन कर्तव्य भी मान और समझ सकते हैं जो आपकी उस इष्ट 'दिव्य' सत्ता के अस्तित्व पर संशय करते हैं, संक्षेप में, वे सभी, जो 'नास्तिक' हैं, या जो आपके 'विश्वास' से भिन्न किसी अन्य मत को मानते हैं।

***